विनय सिंह बैस की कलम से: गुरु पूर्णिमा

विनय सिंह बैस, नई दिल्ली। लगभग दो दशक पहले की बात है! मैं उस समय एयर फोर्स एकेडमी, हैदराबाद में पोस्टेड था और क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर से प्रभावित होकर बिल्कुल नई टीवीएस विक्टर बाइक खरीदी थी। उसके कुछ दिन बाद ही पापा हमसे मिलने हैदराबाद आये थे।

एक छुट्टी के दिन मैं उन्हें बाइक पर बैठाकर एयर फोर्स अकेडमी, हैदराबाद से लगभग 150 किलोमीटर दूर स्थित अपनी पुरानी यूनिट एयर फोर्स स्टेशन, बीदर घुमाने ले जा रहा था। पापा ने बाइक पर बैठते ही ताक़ीद कर दी – “बेटा आराम से चलना। ”

कुछ देर यानी गागिलापुरम तक तो मैं आराम से ही चला। लेकिन कुछ तो जवानी का जोश, ऊपर से नई बाइक और सबसे बढ़कर हैदराबाद की चौड़ी, चिकनी, भीड़भाड़ रहित सड़कें। लगभग सुनसान आउटर रिंग रोड पहुंचते ही मेरी बाइक का स्पीडोमीटर 60-65 के बीच दोलन करने लगा।

पापा ने फिर टोंका। बोले- “बेटा आराम से चलो, हमारी कोई ट्रेन थोड़े छूटी जा रही है।”
मैं कुछ स्लो हुआ। थोड़ी देर 40-45 चलता रहा। इस दौरान पापा मुझे डिफेंसिव ड्राइविंग के फ़ायदे, कुत्ता-बिल्ली या किसी छोटे बच्चे के अचानक सड़क पर आने से हुए हादसों की हिस्ट्री तथा बाइक की स्पीड लिमिट और फ्यूल इकोनॉमी के बारे में समझाते रहे। जब तक वह समझाते रहे, मैं आराम से चलता रहा। पूरे आउटर रिंग रोड बाइक का कांटा 50 से ऊपर न गया होगा। रिंग रोड खत्म होने के बाद हमने एक गुमटी में चाय पी और फिर चल पड़े।

अब मैं चौड़े, रनवे जैसे चिकने मुंबई हाईवे पर पहुंच चुका था। पापा भी चुपचाप बैठे हुए थे। इसलिए कुछ ही देर में फिर से मेरी नीली बाइक, नीले आसमान के तले हवा से बातें करनी लगी। इस बार 20-25 किलोमीटर तक मैं अपनी मनमर्जी करता रहा। कभी 60 तो कभी 70 किलोमीटर प्रति घंटा। मैं बाइक को हवाई जहाज की स्पीड से उड़ाकर बीदर पहुंचना चाहता था। पापा भी नहीं टोंक रहे थे, इसलिए मेरा मनोबल भी बढ़ा हुआ था। मुझे विश्वास हो चला था कि पापा शुरू में मुझे इसलिए टोंक रहे थे कि उन्हें मेरी ड्राइविंग स्किल पर भरोसा नहीं था, लेकिन अब शायद वह आश्वस्त हो चुके हैं कि मैं कुशल ड्राइवर हूँ, इसलिए चुपचाप बैठे हैं।

अब सदाशिवपेट आने वाला था। मैंने सोचा कि कुछ रेस्ट कर लिया जाय, पापा भी कुछ खा-पी लेंगे। मैंने बाइक कुछ स्लो करते हुए पूछा -“पापा, यहां रुक के कुछ नाश्ता पानी कर लेते हैं, फिर आगे चलेंगे। लेकिन पापा ने कोई जवाब नहीं दिया। इस बार मैंने कुछ जोर से पूछा फिर भी उनकी कोई आवाज आई। मुझे अंदेशा हुआ कि कहीं पापा पिछली चाय की दुकान में छूट तो नहीं गए। एक बार मैं अम्मा के साथ ऐसा कर चुका था। लेकिन पापा तो दोनों तरफ पैर करके बैठते हैं, फिर ऐसा होना कैसे संभव है??

हालांकि मेरे और पापा के बीच रखे हुए छोटे बैग के कारण हमारे बीच कुछ दूरी तो थी। इसलिए मैंने खुद को doubly sure करने के लिए एक हाथ पीछे करके चेक किया, तो पापा बैठे थे। इस बार मैंने बाइक एकदम स्लो करके उन्हें प्यार से पुकारा- “पआआपा, पआआपा!!”

लेकिन कोई जवाब नहीं आया। मैंने पुनः और अधिक प्यार से पुकारा लेकिन कोई आवाज नहीं आई। मैं अनजाने भय से कांप उठा और डरकर तुरंत बाइक रोक दी। रुकते ही पापा बोल उठे- “क्या हुआ मुन्ना? बाइक क्यों रोक दी??”

मैंने लगभग कांपते हुए कहा, “आप कुछ बोल ही नहीं रहे। मैं तो डर गया था।”
पापा बड़े गंभीर स्वर में बोले, “बेटा, अगर तुम सचमुच डरते तो मेरा कहना पहले ही मान लेते। जहां तक मेरे जवाब न देने का सवाल है तो मैं ‘हनुमान चालीसा’ पढ़ रहा था। संकट के समय यही तो रामबाण उपाय है।”

विनय सिंह बैस, लेखक/अनुवाद अधिकारी

पापा की यह प्रतिक्रिया सुनकर मैं जमीन से गड़ गया। उनके इस जवाब ने मुझे शर्मिंदा और निरुत्तर दोनों कर दिया। मैं यही सोचता रह गया कि पापा चाहते तो मुझे जोर से डांट सकते थे। उस जमाने के हिसाब से पिता होने के नाते मुझे सड़क पर सरेआम कूट-पीट भी सकते थे और कुछ नहीं तो बाइक से उतरने की धमकी तो दे ही सकते थे या सचमुच उतर ही जाते। लेकिन उन्होंने यह नायाब, नफ़ासत भरा तरीका चुना मुझे सबक सिखाने का। उस दिन के बाद से शायद ही मैंने कभी 50 के ऊपर बाइक चलाई हो।

आज पापा को याद करते हुए पाता हूँ कि वह सामाजिक व्यक्ति के रूप में तो सम्मानित और पूज्य थे ही। इसके अलावा वह एक प्यारे पिता, शानदार शिक्षक और गौरवशाली गुरु थे।
#गुरुपूर्णिमा

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