रायबरेली । “बैसवारा की कतकी यानी कार्तिक पूर्णिमा”
करवा हैं करवाली,
उनके बरहें दिन दिवाली।
उसके तेरहें दिन जेठुआन,
और
फिर चुटिया-पुटिया बांध के चलो गंगा नहाय।
मतलब की दीपावली की धूम और फिर जेठुआन के गन्ने की मिठास खत्म होते कतकी (गंगा स्नान) की तैयारी शुरू हो जाती।
सबसे पहले लड़िहा (बैलगाड़ी) की मरम्मत की जाती। उसका जुंवा ठीक किया जाता, पटिया की रस्सी आदि कसी जाती। पहियों में चढ़ी लोहे की हाल का हाल-चाल लिया जाता। दोनों पहियों की धुरी औंगी (सन और तेल से) जाती। बैलगाडियों में बैठने के लिए सबसे पहले पैरा (पुआल) बिछाया जाता। उसके बाद टाट की बोरी, दरी बिछाई जाती। फिर रंगीन मोटे चद्दर बिछाए जाते। बैलों की सजावट भी शुरू हो जाती। उनकी सींगे काली की जाती। रंगीन साफा, घुंघरू, झालर, रंग बिरंगी झूल निकाली जाती।
महिलाओं की तैयारी अलग से होती थी। घर मे सूरन होता तो ठीक नहीं तो बाजार से लाया जाता और इसकी सब्जी तैयार की जाती। इसके औषधीय गुण तो अब वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित हुए हैं लेकिन उस समय बस इतना पता था कि सूरन की सब्जी कई दिनों तक खराब नहीं होती। इसलिए कतकी का मतलब ही सूरन की सब्जी हुआ करती थी।
कार्तिक की पूर्णिमा से एक दिन पहले दोपहर का भोजन करने के पश्चात लगभग पूरे गांव की बैलगाड़ी एक साथ गंगा स्नान के लिए निकल पड़ती। बुजुर्ग बताते हैं कि पहले हमारे गांव की बैलगाडियां डलमऊ जाया करती थी लेकिन डलमऊ में जिन आम पेड़ों के नीचे गांव की बैलगाडियां रुका करती थी, वहां पर बाद में खेत बन गए इसलिए अब गेंगासों जाने का प्रचलन शुरू हो गया था। डलमऊ हमारे गांव बरी से 4 कोस यानी लगभग 12 किलोमीटर और गेंगासों 5 कोस यानी लगभग 15 किलोमीटर पड़ता है।
जब सारे गांव की बैलगाडियां एक साथ गंगा स्नान के लिए निकलती तो बड़ा मनमोहक दृश्य होता। ऐसा प्रतीत होता जैसे हम किसी बड़े अभियान पर जा रहे हों। बैलगाड़ी आगे बढ़ती जाती और पीछे धूल उड़ती जाती। हम बच्चों की खुशी का तो कोई ठिकाना न रहता। लालगंज पहुंचते ही पक्की सड़क पर सब तरफ बैलगाडियां ही दिखती। कुछ मुबारकपुर, निहस्था की तरफ से आती हुई। कुछ भादे, कुम्हड़ौरा जैसे दूसरे गांव से आती हुई। कुछ बैलगाड़ियों में महिलाएं गंगा मां की आराधना के गीत गाती रहती। वह मुझे समझ तो नहीं आते थे लेकिन कर्णप्रिय बहुत लगते थे।
जैसे ही हमारी बैलगाड़ी सेमरपहा पहुंचती, अमरूदों का बाग और पके हुए अमरूदों की खुशबू से मुंह में पानी आ जाता था। बाबा से जिद करके हम लोग अमरूद खरीद ही लिया करते थे। कुछ बैलगाडियां रास्ते भर एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में रहती थी तो कुछ लोग बैलगाड़ी दौड़ भी सड़क पर ही कर लेते थे। जबकि कुछ आराम से गीत गाते, मस्ती करते हुए गंगा स्नान के लिए जाते थे। उनके लिए मंजिल जितनी सुखद थी, रास्ता भी उतना ही आनंददायक था।
उन दिनों सड़क पर ट्रैफिक बहुत कम हुआ करता था। बड़ी गाड़ियां तो लगभग न के बराबर ही चलती थी। कभी कभार कोई ट्रक या सरकारी रोडवेज की बस आ जाती थी। अन्यथा पूरी सड़क पर उस दिन बैलगाड़ियों का ही कब्जा रहता था।
सूर्यास्त होते-होते हम गेंगासों पहुंच जाते और गंगा पुल के बाएं तरफ आम की बाग हमारे गांव के लिए रात्रि विश्राम का तय स्थान था। वहां जाकर पहले थोड़ी साफ-सफाई की जाती। हम लोग नल के पास जाकर अपने हाथ पैर धोते और महिलाओं के लिए पानी बाल्टी में भरकर बैलगाड़ी के पास तक आता था। वह वहीं पर हाथ-मुंह धूल लिया करती थी।
इसके बाद बैलों को चारा-पानी दिया जाता। उनको किसी पेड़ के नीचे बांध दिया जाता था। फिर चादर से टेंट बनाकर नीचे बोरी, दरी आदि बिछाकर खाने-पीने और सोने का प्रबंध किया जाता। आज मुझे यह सोच कर आश्चर्य होता था कि उस समय बिजली भी नहीं थी। हर परिवार के पास सिर्फ एक टॉर्च हुआ करती थी। फिर भी किसी को उस जंगल जैसे स्थान में बिच्छू , सांप का डर नहीं हुआ करता था।
रात को हम घर से लाया हुआ खाना खाकर जल्दी ही सो जाते और सुबह सब लोग जल्दी उठ जाते। नित्य-कर्म से निवृत्त होने के बाद दो-चार लोग बाग में रखवाली के लिए रह जाते बाकी लोग गंगा स्नान के लिए निकल पड़ते। इतने सारे लोगों के साथ गंगा स्नान करते से ठंड भी छूमंतर हो जाया करती थी।
गंगा स्नान करने के बाद हम कपड़े बदलते और पंडित जी के पास जाकर तेल कंघी करते। फिर वह हमारे माथे पर चंदन का तिलक लगा देते थे। वहां से हम लोग गंगा तट पर स्थित संकठा देवी मंदिर में दर्शन करते और फिर मेला देखने निकल जाते। बड़े लोग बच्चों का हाथ या उंगली पकड़े ही रखते क्योंकि इतने बड़े मेले में बच्चों के खो जाने का डर भी रहता है। हम चाट, समोसा, पकौड़ी जलेबी पेट भरकर खाते। बांसुरी, तलवार, धनुष जैसे कुछ खिलौने भी खरीदते। महिलाएं अपने लिए सुहाग का सामान और कुछ अंतर्वस्त्र भी खरीद लिया करती थी। पुरुषों का काम मुख्यतः बच्चों की निगरानी रखना और पैसे का भुगतान करना होता था।
मेला घूमते-घूमते दोपहर हो जाती और हमारे पैसे भी खत्म हो जाते थे। तब हम वापस बाग की और लौट आते। जहां हमारी बैलगाड़ियां रुकी होती थी। फिर सब लोग पूरी के साथ सूरन की सब्जी का भोजन करते और सारी बैलगाड़ियां एक साथ गांव के लिए वापस लौट पड़ती।
लेकिन घर से गंगा स्नान के लिए निकलते समय जो खुशी और उत्साह हम बच्चों के चेहरे पर होता था, अब वह गायब हो चुका होता था। इसीलिए किसी ने ठीक ही कहा है कि – “जात का कतकी, आवत का मुंह लटकी।”
अब हमारे पास अगले साल गंगा स्नान के लिए पुनः आने की खुशी के अलावा मन को समझाने का और कोई उपाय नहीं होता था।
जय गंगा माई।
विनय सिंह बैस
गांव-बरी, पोस्ट-मेरूई, जनपद-रायबरेली (उत्तर प्रदेश)