आशा विनय सिंह बैस की कलम से : वैलेंटाइन डे बनाम बाजारवाद

“रोने से और इश्क में बेबाक हो गए,
धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए।”

आशा विनय सिंह बैस, नई दिल्ली। प्रेम एक दैवीय गुण है। अपूर्णता में पूर्णता का भाव प्रेम है। प्रेम एक भाव है, एक सुंदर सा जज़्बा है, एक खूबसूरत एहसास है। प्रेम ही इस लोक में शाश्वत है, बाकी सब नश्वर है। भारत की संस्कृति प्रेममय रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण वसंत पंचमी का पावन पर्व है। वसंत पंचमी को वसंतोत्सव और मदनोत्सव भी कहा जाता है। प्राचीन काल में स्त्रियां इस दिन अपने पति (ध्यान रखें पति) की कामदेव के रूप में पूजा करती थीं क्योंकि मान्यता है कि इसी दिन कामदेव और रति ने सर्वप्रथम मानव हृदय में प्रेम और आकर्षण का संचार किया था। यही प्रेम और आकर्षण दोनों के अटूट संबंध का आधार बना, संतानोत्पत्ति का माध्यम बना।

प्रेम का कोई विशेष दिन हो ही नहीं सकता। क्योंकि प्रेम हर दिन, हर घड़ी, हर पल किया जा सकता है। प्रेम सिर्फ बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड के लिए नहीं होता है। प्रेम सिर्फ रोमांस और सेक्स नहीं है। प्यार पवित्र, गहरा, नि:स्वार्थ रिश्ता होता है। प्यार सब के लिए है। पश्चिमी देशों विशेषकर इटली जहां से यह डे आयातित हुआ है, वहां भी अब यह दिन केवल प्रेमी प्रेमिका और शादीशुदा जोड़े ही नहीं अपितु घर के सभी सदस्य एक दूसरे को प्यार दर्शाने के लिए मनाते हैं।

लेकिन आजकल मुहब्बत एक तिजारा हो गई है। प्रेम का बाजारीकरण हो गया है। बॉलीवुड, ड्रग माफिया का इस बाजारीकरण में अहम रोल है, उनके कुत्सित स्वार्थ हैं। माना जाता है कि जैसे करवा चौथ ‘दिल वाले दुलहनियाँ ले जाएंगे’ फ़िल्म का बायप्रोडक्ट है।वैसे ही वैलेंटाइन डे यश चोपड़ा की फिल्म ‘दिल तो पागल है’ की देन है।

भावनाओं के बजाय आंकड़ों की बात करें तो पिछले तीन वर्ष में भारत में 43 लाख लड़कियों में बाझपन और 30 लाख में कैंसर पाया गया। इस तथाकथित डे के बाद मुश्किल से 10 दिन के अंदर गायनेकोलोजिस्टो के पास लड़कियों की भीड़ लग जाती है। समाचार पत्रों, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर एक लुभावना ऐड आता है – “सिर्फ एक कैप्सूल से 72 घंटो के अंदर अनचाही प्रेगनेंसी से छुटकारा पाएं।”

कमसिन उम्र और बिना दिमाग की लडकियां, ऐसी गोलियां जिसका न कम्पोजीशन पता होता है, न कांसेप्ट बस निगल जाती हैं। इन फेक गोलियों में आर्सेनिक भरा होता है। यह जहर 72 घंटो के अंदर सिर्फ बनने वाले भ्रूण को खत्म नही करता बल्कि पूरा का पूरा प्रजनन सिस्टम ही बर्बाद कर देता है।

शारीरिक आकर्षक को प्यार समझने वाली, बाजार के कड़वे सच से अनजान लड़कियां शुरू में तो गोलियां खाकर फिर से ‘वर्जिन’ बन जाती हैं लेकिन शादी के बाद पता चलता है वे अब गर्भधारण नही कर सकती। सबको पता चल जाता है इनका भूतकाल कैसा रहा है, उनकी खुद की जिन्दगी अभिशाप बन जाती है।

सरकार हर साल मातृत्व सुरक्षा, जननी सुरक्षा, बेटी बचाओ जैसी योजनाओ के नाम पर हज़ारों करोड़ रुपये की योजनाएं चलाती है। आज हालत ये है कि 13-14 साल की बच्चियां बैग में i-pill लेकर घूम रही है, अपनी ही मौत का सामान खुद लेकर घूम रही हैं।

ऐसी जहरीली और भ्रामक चीजों को मेडिकल माफिया जानबूझकर वैलेंटाइन डे के आसपास खूब प्रचारित करता है, भारतीय बाजारों में जानबूझकर उतारता है। पहले यह शातिर माफिया लड़कियों को जहर खिलाकर बीमारी देते हैं, फिर उसकी दवाई बेचकर अरबो रूपये कमाते हैं। इस कमाई का कुछ हिस्सा ब्यूरोक्रेसी और सफेदपोश नेताओं के पास भी जाता है! क्योंकि ऐसे जहर को बेचने का परमिट और उनकी चेकिंग न करवाने का काम यही लोग करवाते हैं।
बच्चे आपके हैं, तो उसकी जिम्मेदारी भी आपकी ही है।

समय है वेलेंटाइन जैसे कुकर्म को बढ़ावा देने वाली घटिया मानसिकता को रोकने का। बाजारीकरण के काले सच को समझने का और युवा पीढी को इस मृग मरीचिका से बचाने का। अगर हम अब भी न सुधरे, अब भी न चेते तो ‘टेस्ट ट्यूब बेबी’ ही हमारा भविष्य होगा।

आशा विनय सिंह बैस, लेखिका

(स्पष्टीकरण : इस आलेख में दिए गए विचार लेखिका के हैं और इसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है।)

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