आशा विनय सिंह बैस की कलम से : “दो कोट, पूरा पेट”

आशा विनय सिंह बैस, रायबरेली। संस्थाओं का निजीकरण करने की मुहिम ने अब जोर पकड़ लिया है।लेकिन इसकी शुरुआत बहुत पहले हो चुकी थी। छोटे मोटे कार्यों को ठेका, आउटसोर्सिंग के माध्यम से कराने की तब प्रायोगिक स्तर पर शुरुआत हुई थी। 1990 के आसपास की बात होगी। मेरे चाचा एनटीपीसी, ऊंचाहार में इंजीनियर थे। वहां के सरकारी क्वार्टरों में पुताई का कार्य किसी ठेकेदार को दिया गया था। उसके पेंटरों को पुताई करने के बाद एक रजिस्टर में क्वार्टर मालिक/मालकिन के हस्ताक्षर लेने पड़ते थे कि पुताई कार्य संतोषजनक ढंग से हुआ है। तभी उसे दिहाड़ी का भुगतान होता था।

हुआ यूं कि एक पेंटर ने पूरे दिन पुताई करने के बाद भुगतान प्राप्त करने के लिए रजिस्टर जब सरकारी बाबू गुप्ता जी के पास रखा तो गुप्ता जी ने आपत्ति लगा दी। बोले कि- “लगता है तुमने काम ठीक से नहीं किया। यह देखिये टाइप-II/440 के रिमार्क्स कॉलम में कुछ अजीब सा लिखा है- “दो कोट, पूरा पेट” तुम बताओ इसका मतलब क्या है??”

पेंटर रुआंसा होकर बोला- “साहब मैं अनपढ़ आदमी हूँ। काम पूरा करने के बाद सर/मैडम रजिस्टर में क्या लिखते हैं, मुझे नहीं पता। बस इतना पता है कि टाइप – II/440 में मैने ठीक से पुताई और पेंट कर दिया है। आप जिस से चाहो, पता करा लो।”

गुप्ता जी को इतना समझ तो आ गया कि पेंटर झूंठ नहीं बोल रहा लेकिन सरकारी रिकॉर्ड तो लिखापढ़ी पर चलते हैं। अतः उन्होंने पुराने बाबू श्रीवास्तव जी से पूछा- “लाला जी!!! ‘यह दो कोट, पूरा पेट’ क्या होता है?? आपके समय कभी किसी ने ऐसा रिमार्क्स लिखा है क्या?”

श्रीवास्तव जी थे तो चकड़ आदमी लेकिन तमाम माथापच्ची करने के बावजूद इस ‘कोड वर्ड’ को ‘डिकोड’ न कर पाए। अब मामला एनटीपीसी के सबसे होशियार और चतुर आदमी शुक्ला जी, रायबरेली वाले के पास लाया गया। शुक्ला जी को एनटीपीसी के हर घर और हर आदमी का हाल पता था। उन्होंने मामले की गंभीरता को देखते हुए पहले पान थूका और बोले- “तुम लोगों के चक्कर मे मेरा एक पान बर्बाद हो गया इसलिए पहले एक बढ़िया सा चौकस पान मंगाओ। तब तक हम देखते हैं कि ऐसा क्या लोचा हो गया जो तुम्हें हमारे पास आना पड़ा??”

वैसे तो शुक्ला जी लिफाफा देखकर खत का मजमून भांप लिया करते थे लेकिन यह अजीब सा कोड वर्ड एकबारगी तो शुक्ला जी के भी पल्ले न पड़ा। लेकिन जैसे ही तुलसी तंबाकू वाला बनारसी पान शुक्ला जी के गले के नीचे उतरा, उनके दिमाग की बत्ती जल गई। फिर वह पूरे विश्वास से बोले- “अबे तुम लोग भी पूरे झंडू हो। 440 वाली मैडम वही हैं न जो ‘लखनऊ’ को ‘नखलऊ’ और ‘ट्रैक्टर’ को ‘टिकटर’ बोलती हैं। उनके ‘दो कोट, पूरा पेट’ मतलब है- पूरा पेंट किया है और दो बार किया है यानी दो कोटिंग की है।”
तब जाकर उस बेचारे पेंटर को दिहाड़ी मिल पाई।

आशा विनय सिंह बैस, लेखिका

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