आशा विनय सिंह बैस की कलम से…आज विजय दिवस है!!

नई दिल्ली । पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान के ग्रैंड अंकल जनरल नियाज़ी को लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा साहब के सामने ढाका के रेस कोर्स ग्राउंड में आत्मसमर्पण दस्तावेज पर हस्ताक्षर करते हुए देखना कितना गौरवशाली और सुखद है। फील्डमार्शल मानेकशॉ के कुशल नेतृत्व और हमारे रणबांकुरों के शौर्य के कारण एक नए राष्ट्र बांग्लादेश का जन्म हुआ। पाकिस्तान की पराजय हुई। उसके 93,000 सैनिक युद्धबंदी हुए। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को ‘लौह महिला’ का ख़िताब मिला। उनका राजनैतिक कद बढ़ा।

लेकिन इस युद्ध से देश को क्या मिला???
बांग्लादेश में रहने वाले 85 लाख हिंदुओं को हमने उनके रहमोकरम पर छोड़ दिया। वहाँ से आए शरणार्थी हमारे गले की हड्डी बन गए। हम हाजीपीर, स्कर्दू और गिलगिट पर काबिज होने ही वाले थे लेकिन युद्धविराम ने हमारे कदम रोक दिए। लाहौर, स्यालकोट भी हमारे स्ट्राइकिंग रेंज में थे। कब्जा करने की तो छोड़िए, छम्ब का हमारा 120 वर्ग किलोमीटर का इलाका पाकिस्तान के कब्जे में चला गया।

निक्सन और किसिंजर के दबाव तथा बंगाल की खाड़ी की तरफ़ बढ़ रहे अमेरिकी बेड़े के डर से हमारे दब्बू राजनैतिक नेतृत्व ने कश्मीर समस्या के स्थायी समाधान का स्वर्णिम अवसर गंवा दिया। शिमला समझौते के माध्यम से हजारों सैनिकों की शहादत से प्राप्त शानदार विजय को थाल में सजाकर पाकिस्तान को सौंप दिया गया। देश का ‘विजय दिवस’ महज़ एक ‘मिलिट्री एक्सरसाइज’ बनकर रह गया। 16 दिसंबर 1971 को हमारे पास देश का ‘इतिहास और भूगोल’ बदलने का नायाब मौका था, जिसे यूँ ही जाने दिया गया।

(स्पष्टीकरण : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी व व्यक्तिगत है। इस आलेख में दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई है।)

आशा विनय सिंह बैस, लेखिका

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