आशा विनय सिंह बैस की कलम से : मिष्ठान प्रेमी

आशा विनय सिंह बैस, रायबरेली। मेरे एक मिर्जापुर के मित्र थे, नाम था पंकज त्रिपाठी। हैदराबाद में वह मेरे पड़ोसी थे। पंडित जी ‘खाने-पीने’ के शौकीन और थोड़े दबंग भी थे। कई बार वह मुझसे मजाक में कहते कि- “सर, आप जब देखो तब किताबों में घुसे रहते हो, पूजा-पाठ करते हो और मिठाई भी बड़े चाव से और खूब खाते हो। सारे लक्षण तो आपके पंडितों जैसे हैं, आप केवल जन्म से ठाकुर हो।”

इस पर मैं केवल मुस्कुरा देता क्योंकि मिठाई बचपन से ही मेरी कमजोरी रही है। किसी भी निमंत्रण या भोज-भात में मेरी नजर सदैव मीठे पर रहती थी। पत्तल में पूरा भोजन परोसने के बाद जब मेजबान कहता कि ‘श्री गणेश’ करिए तो बाकी भोजन तो बस मैं स्वाद के लिए खाता, अपना पेट मुख्यतः मिठाई से भरता। अगर पायस, खीर, रसगुल्ला, गुलाब जामुन भर पेट खाने को मिल गए तो मेरे लिए भोज भव्य होता, नहीं तो भोजन के नाम पर मैं केवल खानापूर्ति करता था।

बंगाली मिठाइयों विशेषकर ‘रोसोगुल्ला’ के स्वाद और प्रसिद्धि के बारे मैंने बहुत सारी कहानियां बचपन से ही सुन रखी थी। कोलकाता जाने पर दो-चार बार मिट्टी के कुल्हड़ में परोसा गया ताज़ा ‘रोसोगुल्ला’ खाया तो मैं सदैव के लिए ‘रोसोगुल्ला’ का मुरीद हो गया। फिर तो ऐसा होता कि मिट्टी के कुल्हड़, हांडी में रखे धवल, उज्ज्वल ‘रोसोगुल्लों’ की कल्पना करते ही मेरे मुंह में पानी आ जाता।

एक बार बैरकपुर में विश्वकर्मा पूजा (17 सितंबर) के पश्चात भोज का कार्यक्रम था। मैं भी उसमें आमंत्रित था। सभी मेहमानों को भोज के लिए ससम्मान जमीन पर बैठाया गया। पत्तल परोसे गए, पानी का गिलास सामने रखा गया और उसमें पानी परोस दिया गया। फिर एक तरफ से सलाद आनी शुरू हुई, दूसरी तरफ से कोई राधाबल्लभी (एक प्रकार की कचौरी) ले आया। उसके बाद पीछे से आलू की सब्जी भी आ गई। लेकिन मेरी नजर तो ‘रोसोगुल्ले’ पर लगी हुई थी।

मैंने कुछ देर इंतजार किया लेकिन किसी तरफ से कुछ आता नजर नहीं आया और पास बैठे दादा लोगों ने भोजन शुरू भी कर दिया तो मुझे भी मजबूरन श्री गणेश करना पड़ा। हमारे उत्तर प्रदेश में तो पांत (पंक्ति) में बैठे सभी लोगों को पूरा भोजन परोसने के बाद ही श्री गणेश होता है। फिर मैंने सोचा कि शायद विश्वकर्मा पूजा में बंगाली लोग राधाबल्लभी कचौरी, सब्जी और सलाद ही खिलाते होंगे।

मेरे बगल में बैठे लगभग सभी बंगाली एक- दो राधाबल्लभी कचौरी सब्जी के साथ खाकर रुक गए। मैंने मन ही मन सोचा कि बंगाली मानुष थोड़े नाजुक और नफासत वाले होते हैं, इसलिए कम ही खाते होंगे। परंतु मैं तो उस समय जवान भी था और शारीरिक रूप से बिल्कुल फिट भी था। इसलिए मैंने दो बार राधाबल्लभी और एक बार सब्जी और मांगकर ली। हालांकि भोजन परोसने वाले दादा मुझे देखकर कुछ रहस्यमयी ढंग से मुस्कुरा रहे थे लेकिन मुझे उनकी मुस्कराहट का भेद उस समय समझ नहीं आया।

कुछ देर बाद देखता हूँ कि एक तरफ से पनीर की सब्जी, सादी पूड़ी और दूसरी तरफ से पायस आनी शुरू हो गई है। मेरा पेट काफी हद तक भर चुका था लेकिन पनीर की सब्जी और विशेषकर पायस को देखकर मैंने दो पूड़ी और ले ली। थोड़ी देर तक फिर इंतजार किया। कुछ नहीं आया तो एक पूड़ी और लेकर पनीर की सब्जी खत्म की फिर पायस पी लिया। ‘ब्राह्मण’ (मीठे का प्रेमी) होने के कारण एक दोना पायस और मांगकर पिया। अब मेरा पेट भर चुका था। मुझे लगा अब किसी तरफ से आवाज आने ही वाली है कि -” भाई लोगों उठो। हाथ धो लो, भोजन समाप्त हुआ।”

तभी देखा कि एक तरफ से राजभोग चला आ रहा है। हालांकि मेरा पेट पूरा भर चुका था लेकिन मिष्ठान तो मेरी कमजोरी थी, इसलिए भला उसे न कैसे कहता। अतः मैंने हिम्मत करके एक राजभोग ले लिया। अब तो मेरा पेट बिल्कुल फटने जैसा हो गया था।

लेकिन अब देखता हूँ कि दूसरी तरफ से ‘रोसोगुल्ला’ भी आ रहा है। ‘रोसोगुल्ला’ सामने आया तो परोसने वाला व्यक्ति एक ‘रोसोगुल्ला’ मेरे पत्तल में रखकर बोले – “दादा, आर रोसोगुल्ला देबो की?” (भाई साहब, और रसगुल्ले दूं क्या?)
अब मैं कभी पत्तल में पड़े ‘रोसोगुल्ला’ को देखता, कभी अपने पेट के बारे में सोचता और कभी परोसने वाले के हाथ में ‘रोसोगुल्लों’ से भरी हुई बाल्टी को देखता। मेरी दयनीय स्थिति को देखकर वह बोले -“दादा, कोनो सोमोस्या आछे की? (भाई साहब, कोई परेशानी है क्या?)

अब मैं उनसे कैसे कहता कि समस्या यह है कि तुम बंगालियों ने किस्तों में भोजन परोसकर एक उत्तर प्रदेश के ‘ब्राह्मण’ के साथ पूजा के दिन चीटिंग की है। इस ब्राह्मण के पेट में जिस जगह तमाम ‘रोसोगुल्ले’ तैरने चाहिए थे, उस जगह को तुम लोगों ने राधाबल्लभी कचौड़ी और आलू की सब्जी से भर दिया है।

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आशा विनय सिंह बैस, लेखिका

(आशा विनय सिंह बैस)
मिष्ठान प्रेमी

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