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आशा विनय सिंह बैस की कलम से : नंदी महाराज

आशा विनय सिंह बैस, नई दिल्ली। हमारे गांव बरी वाले घर में दो गोई (जोड़ी) यानी कुल चार बैल हुआ करते थे। बड़ी वाली गोई ‘बछौना’ (जब बछवा यानी बच्चा था, तभी खरीदा गया था इसलिए बछौना) और ‘बड़ौना’ (थोड़ी छोटी पूंछ होने के कारण) से मिलकर बनती थी। छोटी गोई में ‘टेढ़वा’ (बहुत चटक यानि तेज था और थोड़ा ऐंठ में रहता था) और ‘संवलिया’ (रंग सांवला था) शामिल थे। चूंकि ताकतवर और चटक बैल हमेशा दाएं चलता है, अतः बड़ी गोई में ‘बछौना’ दाहिने नाधा जाता जबकि छोटी गोई में ‘टेढ़वा’ दाहिने जोता जाता। उस समय बैल केवल पशु या कृषि सहायक उपकरण नहीं बल्कि स्टेटस सिंबल हुआ करते थे। दो जोड़ी बैल का मतलब बड़ी जोत। चार बैल का मतलब- बड़ा परिवार जो इनके लिए चारा पानी की व्यवस्था करता होगा। बैल दरवाजे की शान और किसानों का मान हुआ करते थे।

बैल सिर्फ हल चलाने के लिए नहीं होते थे। वह परिवहन का साधन थे तथा बैलगाड़ी हमें एक जगह से दूसरी जगह ले जाते। गर्मी में खेतों में पांस (गोबर की खाद) डालते तो जाड़े में कोल्हू से गन्ना पेरते। बरसात से पहले वे तालाबों से मिट्टी ढोकर घर लाते जिससे दरवाजे का सहन और आंगन ऊंचा किया जाता तथा घर की छत की मरम्मत होती। बैल आलू के खेतों में रहट से पानी पहुंचाते तो किसी पुरानी पत्थर की चक्की में गेंहू/ज्वार/बाजरा भी पीसते। आटा चक्की तक गेंहू, राइस मिल तक धान और स्पेलर तक सरसों/राई पहुंचाने तथा वहां से काम होने के बाद आटा, चावल, तेल और खरी वापस लाने का कार्य भी बैलगाड़ी से ही होता था। दीपावली से पहले हमारे गांव से कुछ दूर दुकनहा नामक गांव से बैलगाड़ी से सफेद मिट्टी लाई जाती, जिससे पूरे घर की पुताई होती थी और घर की कच्ची दीवारें चांदी जैसी चमक उठती थीं।

गेंहू की फसल जब खेत से कटकर खलिहान पहुंचती तो गेंहू के बोझों को खोलकर गोलाकार फैला दिया जाता। पूरा सूखने के बाद इसके ऊपर मंड़नी मांडी जाती यानी उसके ऊपर बैलों को चलाया जाता। बैलों के लगातार लॉक (गेंहू के पके और कटे हुए पौधों) पर चलने से उनके खुरो से गेहूं के दाने पौधे से अलग हो जाते। पौधा भी छोटे-छोटे टुकड़ों में कटकर/बंटकर भूसा हो जाता था। भूसा और गेंहू के दानों को अलग करने के लिए इसे झौआ या दौरी से ओसाया जाता (लगभग छाती की ऊंचाई से साफ गोबर से लीपी जमीन पर गिराया जाता) और किसी मजबूत चद्दर से दो लोग मिलकर हवा करते। भूसा हल्का होने के कारण दूर उड़ जाता जबकि गेंहूँ भारी होने के कारण वहीं पास गिर जाता। बाद में कटे हुए गेहूं के ऊपर चलाने की एक दांतेदार मशीन आ गई थी जिसे बैल से चलाते थे। इसके आने से मँड़ाई का कार्य महीनों के बजाय हफ्तों में होने लगा था।

यह चारो बैल हमारे परिवार के सदस्य की तरह ही थे। जब नए आये थे तो उनका स्वागत गुड़ खिलाकर हुआ था। किसी त्योहार में अच्छा भोजन बनता तो गाय, भैंस के साथ बैलों को भी दिया जाता। बांस की बनी नार से कभी उन्हें नमक/खरी खिलाई जाती तो कभी उसी नार में भरकर तेल/घी पिलाया जाता। बाबा लगभग रोजाना उनके शरीर पर खरहरा मारकर उनकी गंदगी साफ करते। कभी बैठकर उनके शरीर से जूं/चीलर भी निकालते। सर्दियों को छोड़कर सप्ताह में एक बार उन्हें कुंए के पानी से नहलाया जाता। गर्मियों में हम लोग उन्हें पास के दनकुआं तालाब या एकौनी वाली नहर में धोने/नहलाने ले जाते थे।

दोनों जोड़ी बैल हमारे परिवार के जीवन चक्र का हिस्सा थे। किसी को बीमारी/अज़ारी होती तो बैल उसे ननकऊ वैद्य के पास ले जाते। प्रसव पीड़ा होती तो बैलगाड़ी लालगंज के अस्पताल की ओर मुड़ जाती। बुआ/बहन अपनी ससुराल से विदा होकर बैलगाड़ी से ही घर आती और चाची/अजिया मायके जाते समय लालगंज तक बैलगाड़ी से ही जाती। कोई रिश्तेदार रात-बिरात लालगंज में बस या ट्रेन से उतरता तो उनको गांव लाने के लिए भी बैलगाड़ी का ही इस्तेमाल होता था। अपने बैलों से हमने बहुत कुछ सीखा। उनकी ‘चाल’ के साथ हम तेज कदमों से चलते। ‘हुदकी’ पर जॉगिंग करने लगते और उनके ‘दौड़’ लगाने पर पूरी दम लगाकर उनके पीछे भागते। तालाब/नहर में उनके साथ ही हमने तैरना भी सीखा।

गांव/जंवार में बैलों की दौड़ प्रतियोगिता होती थी। गांव में जब कोई सुंदर बैल की जोड़ी खरीद कर लाता तो लोग उसे देखने जाते। सुंदर और बड़े पंछाही बैल प्रतिष्ठा का प्रतीक हुआ करते थे। शादी-ब्याह/त्योहार में बैलों का विशेष श्रंगार किया जाता। उनकी सींगे ट्यूबवेल के इंजिन से सर्विसिंग के समय निकले काले तेल रंग से रंगी जाती। कतकी (कार्तिकी) के दौरान जब हम लोग बैलगाड़ी में बैठकर गंगा स्नान के लिए गैंगासों जाते तो उस समय बैलों की शोभा देखते ही बनती थी। उनको नहला-धुलाकर साफ सुथरा किया जाता। फिर सींगों को काले रंग से रंगा जाता। गले में घुंघरू/चमकीली पट्टियां और सींगों में रंग-बिरंगा साफा बांधा जाता। बैलगाड़ी भी खूब सजाई जाती और उसमें दरी/चद्दर आदि बिछाये जाते।

पुराने समय मे जैसे लोग जरूरत के समय एक दूसरे के खेत/खलिहान में काम कर दिया करते थे, वैसे ही बैलों को भी जरूरत पड़ने पर लोग उधार मांग लिया करते थे। कभी खेत जोतने के लिए तो कभी बारात ले जाने के लिए। लेकिन वह वस्तु नहीं थे कि उनके साथ कोई कैसा भी व्यवहार करे। मुझे याद है कि एक बार गांव के एक व्यक्ति बाबा से बड़े वाले बैलों की जोड़ी दिन भर के लिए उधार ले गए थे। शाम को जब वापस करने आए तो बैलों की पीठ पर अरई/छवार के निशान देख बाबा बुरी तरह भड़क उठे थे। जो बैल बाबा के इशारों पर नाचते थे और जिन बैलों को बाबा ने शायद ही कभी डंडे से मारा हो, उनके शरीर मे अरई/छवार के निशान देख बाबा आपा खो बैठे थे। मानो किसी ने उनके बच्चों को मार दिया हो। इसके बाद बाबा ने दोबारा कभी उस शख्स को बैल उधार नहीं दिए।

सिर्फ कुत्तों को प्यार करने वाली यह पीढ़ी शायद हमसे इत्तफाक न रखे लेकिन बैल भी उतने ही वफादार और स्वामीभक्त हुआ करते थे। कई बार बैलगाड़ी हांकने वाला सो भी जाये तो बैल खूंड़ा (जिस रास्ते पर बैलगाड़ी के दोनों पहिये चलते थे) पकड़ सुरक्षित अपने घर ही वापस आया करते थे। हम जैसे छोटे बच्चे भी बैलों को हांक लिया करते थे। “बैल बुद्धि” का तंज कसने वालों को मैं बताता चलूं कि बिना ब्रेक वाली बैलगाड़ी से कच्चे रास्तों और पक्की सड़कों, दोनों पर शायद ही कोई दुर्घटना हुई हो। छोटा बच्चा या कोई पशु सामने आ जाता तो बैल खुद-ब-खुद रुक जाते या रास्ता बदल लेते। दोनों सींगों के बीच उनके माथे पर हाथ फेरते ही, वे बच्चे जैसा लाड़ जताने लगते थे। प्यार से पुचकारते तो वे हमारे हो जाते थे।

केवल मनुष्यों ही नहीं अपितु देवताओं को भी बैल प्रिय रहे हैं। शायद इसीलिए भगवान शंकर का वाहन नंदी, मां शैलपुत्री का वाहन वृषभ और मां महागौरी का वाहन बैल है।

आशा विनय सिंह बैस, लेखिका

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