आशा विनय सिंह बैस, रायबरेली। वैसे तो मेरे बाबा (दादा) का नाम श्री हौसिला बख्स सिंह था। लेकिन घर, गांव, जंवार के सभी लोग उन्हें ‘भाई’ के नाम से पुकारते और जानते थे। हम लोगों के लिए वह ‘भाई बाबा’ थे। भाई बाबा चार भाइयों में सबसे बड़े थे। हमारे यहां बैसवारा में कुछ समय पहले तक बड़े लड़के के पास कुछ विशेष अधिकार हुआ करते थे। शारीरिक श्रम वाले कार्य प्रायः बड़ा भाई नहीं करता था। मैंने ‘भाई बाबा’ को खेत में हल चलाते, कोन गोड़ते (फ़ावड़ा चलाते), गाय-भैंस का गोबर उठाते शायद ही कभी देखा हो। जमीन का बंटवारा भी चार भाइयों में उस समय 4:3:2:1 के अनुपात में होता था। बड़े भाई का सम्मान भी पिता के समान ही होता था।
लेकिन बड़े भाई होने के नाते उनके पास जिम्मेदारियां भी बहुत अधिक थी। सभी छोटे भाइयों के बेटे-बेटियों की शादी-ब्याह करना, उनकी रिश्तेदारी में आना-जाना, बेटियों की विदा-विदाई करना, गांव-जवार में व्यवहार-बरीक्षा देना, यह सब बड़े भाई की जिम्मेदारी हुआ करती थी। इसके अलावा फसलों की बुवाई-कटाई के समय मजदूरों की व्यवस्था करना, चार बैलों की देखरेख करना, 2 गाय, 2 भैंस का दूध निकालना ‘भाई बाबा’ की जिम्मेदारी थी। जब तक सभी छोटे वाले बाबा खेत से वापस नहीं आ जाते, तब तक वह भोजन नहीं करते थे। देर कितनी भी हो जाए लेकिन दोपहर और रात का भोजन सभी भाई एक साथ चौका में बैठकर ही करते थे।
भाई बाबा ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन ईश्वर की ऐसी कृपा रही कि पापा सहित पांचों भाई सरकारी नौकरी पाने में सफल हुए। जब वायुसेना में मेरे नियुक्ति का पत्र लेकर पोस्टमैन आया था, तब भाई बाबा ने अपनी जेब से ₹20 उसे इनाम स्वरूप खुशी से दिए थे। मेरी नौकरी लगने के बाद भी भाई बाबा मुझे विदा करते समय कुछ पैसे चुपचाप मेरी हथेली में रख दिया करते थे। खुद के पास न होते, तो पापा से मांग कर देते, लेकिन देते जरूर।
शुरुआत के दो-चार साल तो मैं कुछ नहीं बोल पाया लेकिन एक बार मैंने हिम्मत करके कह ही दिया -“बाबा आप मुझे पैसे मत दिया करो। आपका आशीर्वाद ही बहुत है मेरे लिए।” तब भाई बाबा बहुत भावुक होकर बोले थे -“बेटा, मुझे पता है तुम खुद कमाते हो। तुम्हें देने के लिए पैसे मेरे पास हैं भी नहीं। यह 10-20 रुपये जो तुम्हें देता हूँ, इसे मेरा आशीर्वाद ही समझो।”
#बाबा की पुण्यतिथि पर