आशा विनय सिंह बैस की कलम से…उत्तर भारत में पत्नियां अपने पति का नाम नहीं लेती!!

नई दिल्ली। मान्यता है कि नाम लेने से उनके “उनकी” उम्र कम हो जाती है। इसी बात पर हरीलाल वाला चुटकुला भी बना है। हां, वही हरी/लाल जिनका शुरू का नाम लेने से गाड़ी चल देती है और बाद का नाम लेने से गाड़ी रुक जाती है। नाम तो एक दूजे के प्यार में पागल निब्बा-निब्बी भी नहीं लेते। सोना बाबू, जानू जैसे डायबिटिक नामों से अपने प्रियतम को बुलाते हैं। अपनी शादी के हनीमून पीरियड (पहले एक साल) में नवविवाहित भी एक दूसरे को करेजऊ/जानम कह कर भाव बढ़ाते हैं।

लेकिन क्या आपको पता है कि पुराने जमाने की महिलाएं अपनी सबसे प्रिय सखी को उनके नाम से पूरे जीवन भर नहीं बुलाती हैं। हालांकि प्रिय सखी चुनने की प्रक्रिया भी बड़ी रोचक होती है – सबसे पहले कोई लड़की अपनी तमाम सहेलियों में से किसी एक सबसे अच्छी सहेली का चुनाव करती है। फिर किसी तालाब, पोखर, नदी, नहर में कमर तक पानी में जाकर संकल्प लेती हैं कि आज से वे –
1. एक दूसरे से लड़ाई नहीं करेंगी।
2. एक दूसरे की किसी से बुराई नहीं करेंगी।
3. एक दूसरे का जूंठा बिना किसी हिचक के खायेंगी।
और सबसे प्रमुख
4. एक दूसरे को उनके नाम से ताउम्र नहीं बुलाएंगी।

यह संकल्प लेने के बाद दोनों सहेलियां एक बड़ा बताशा लेकर पूरे पांच बार अपनी होने वाली सखी को खिलाती है और फिर पांच बार वही जूठा बताशा खुद खाती हैं। इसके बाद एक दूसरे को पान खिलाकर दो सहेलियां जीवन भर के लिए “सखी” बन जाती हैं।

#अम्मा से प्राप्त ज्ञान के आधार पर
(आशा विनय सिंह बैस)

आशा विनय सिंह बैस, लेखिका

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