बुलंदी से नीचे गिरने का भय ( डरावना ख़्वाब )

डॉ. लोक सेतिया, विचारक

बात इज्ज़त के सवाल की होती है तब ऑनर किलिंग के नाम पर घर परिवार वाले अपनी बेटी तक को क़त्ल कर देते हैं। बस उनकी शोहरत की बुलंदी बरकरार रहे लोग मरते हैं मर जाएं उनको बदनाम नहीं कर जाएं। इतना ऊंचा लंबे लंबे कद का होना कितना कठिन होता है मगर ज़रूरी है सबको ध्यान दिलवाने को अपनी तरफ आकर्षित करने को संतुलन बनाकर खड़े होना नहीं चल कर दिखाना पड़ता है।

तमाशा दिखाने को बंदर भालू सांप नेवला का खेल गली गली हुआ करता था मगर सिगरेट का कारोबार का निराला ढंग हुआ करता था टांगों से बड़े बड़े ऊंचे बांस बांधकर उन पर चलना क्या नज़ारा होता था। लोग भूल गए थे मगर किसी ने सोशल मीडिया का उपयोग कर कुछ ऐसा मायाजाल बिछाया खुद को बड़ा साबित करने को जितने बड़े बड़े कद्दावर लोग थे सबको छोटा बनाने का काम किया। मगर छोटी करने को रेखा मिटाना ज़रूरी नहीं होता है सामने उस से बड़ी रेखा बनानी पड़ती है। इधर उधर से देश विदेश से तीन हज़ार करोड़ खर्च कर 182 मीटर अथवा 597 फ़ीट ऊंची मूर्ति बनवाना मुश्किल नहीं था खुद अपनी शोहरत की बुलंदी आसमान से ऊपर पहुंचाना मुमकिन किया सिर्फ किसी एक ने।

अब चिंता होनी स्वाभाविक है जब उनकी कही तमाम बातें खरी साबित नहीं होती हैं। पचास दिन मांगे कालाधन लाने को लोग मर गए हाथ धेला नहीं लगा उल्टा पापी गंगा नहाकर काले से सफ़ेद हो गए। ऐसा होता रहा और कितनी बार किस किस ऐलान का अंजाम वही निकलता रहा मगर जैसे उनको हर विषय की जानकारी दुनिया भर से बढ़कर और पहले होती है समझते समझाते हैं 24 मार्च 2020 को आधी रात से 21 दिन का लॉकडाउन घोषित किया भरोसा दिलाकर कि उसके बाद कोरोना पर जीत तय है। 

साल से अधिक समय बीत गया और अब देश की सांस अटकी रहती है मगर जनाब की हसरतें थमने का नाम नहीं ले रहीं उनको सेंट्रल विस्टा प्रोजक्ट जल्द पूरा करना है बीस हज़ार करोड़ लागत से शासक वर्ग के लिए शानदार भवन का निर्माण हरी भरी ज़मीन पर पत्थर और मशीनी निर्माण से पर्यावरण की सुरक्षा की परवाह को दरकिनार करते हुए। अपने नाम को इतिहास में दर्ज करवाने की चाहत ने ये सोचने समझने नहीं दिया कि आज ज़रूरत किस की पहले है। जब राज्य राज्य शहर शहर गांव गांव लोग स्वास्थ्य सुविधाओं की बदहाली और सरकारों की उदासीनता व संवेदनहीनता से बेमौत मर रहे हैं उस समय ये अनुचित अनावश्यक कार्य सत्ता की बीमार सोच को बताता है।

लेकिन हद इस बात की है सत्ताधारी दल के लोग ही नहीं संवैधानिक संस्थाएं और देश की न्याय व्यवस्था तक मौन होकर ये देख खुद शामिल हैं इंसानियत को शर्मसार करने वाले ऐसे अमानवीय आचरण पर। सत्ताधारी नेताओं और सरकारी अधिकारी कर्मचारी वर्ग की चिंता नागरिक की ज़िंदगी से अधिक शासक की खराब होती छवि की है। जब कोई व्यक्ति देश समाज से बड़ा नज़र आने लगता है अथवा समझाया जाने लगता है तब पता चलता है कि विवेकशून्यता की बात है।  

बचपन में पढ़ी थी की कहानी जिस में किसी को उपहार में अपने को ढकने पहनने को मिलता है खास परिधान जो शायद जादू से या कुदरती कारण से कोई खोल आवरण फैलता जाता है सभी दिशा में लंबा चौड़ा और ऊंचा भी नीचे पाताल तक चला जाता है ऊपर आसमान छूने लगता है। लेकिन जितना बाहरी तौर पर विस्तार होता है भीतर से सिकुड़ते सिकुड़ते बिल्कुल छोटा होता जाता है। सरकार शासक अधिकारी धनवान लोग वास्तव में उसी रोग के मरीज़ होते हैं उनके महल निवास दफ़्तर जितने बड़े आधुनिक और खूबसूरत बनते जाते हैं उनकी सोच उनकी कर्तव्य पालन की आदत उतनी सिमटती जाती है।

देश में सरकारी इमारतों की शोभा बढ़ती गई है मगर जो उन में रहते हैं बैठते हैं उनकी शोभा खत्म होते होते इस हद तक पहुंच गई है कि वो किसान की फसल की बीच कोई डरावा बन गए हैं। किसान लकड़ी भूसा हांडी कपड़े से बनाकर आदमी जैसे आकृति दे कर दूर से आदमी दिखाई देता है पक्षियों आवारा पशुओं से बचाने को खेत को। लेकिन फसल को कीड़े और बिजली या आंधी तूफ़ान ओले से बचाने के लिए ये कारगर नहीं होता है। अब तो ये सभी बाढ़ बनकर खेत खलियान को चौपट करने लगे हैं।

झूठी इज्ज़त की खातिर मरने वालों की संख्या के आंकड़े छिपाने कम करने तक नहीं बल्कि जो अस्पताल वास्तव में कम बिस्तर वाले हैं उनको सिर्फ सरकारी साइट्स पर कई गुणा बढ़ाकर लोगों को गलत जानकारी दे कर भटकाया और उलझाया जाता है। सत्ता और शासकीय अधिकारों का मोह इतना खतरनाक कभी नहीं होता था। अवश्य उनको मखमली बिस्तर पर सोते हुए भी डरावना ख़्वाब जगाता होगा बुलंदी से नीचे गिरते खुद को देखना पसीने पसीने हो जाना। वास्तविक देशभक्त या जनसेवक नहीं ये सभी डरावा बिजूका बन गए हैं।

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