महफूज का पिता अफजल ताँगा चलाता था। घोड़े को इतना सजा-सँवार कर रखता कि लोग उनके ताँगे पर ही सवारी करना पसंद करते थे।  सवेरे नियम समय पर ताँगा निकालना तथा शाम को ठीक समय पर घर घुसाना, अफजल मियाँ की आदत हो गई थी। महफूज की अम्मी फुरसत के समय बीड़ी बनाती। बेटी रेशमा अगर अम्मी के साथ बनाना चाहती तो अम्मी बनाने न देती । रेशमा जिद्द करती तो आँखें लाल कर बोलती-  ‘ तुम दोनों पढा़ई-लिखाई करो……. इस पचड़े  में मत पड़ो।  देखती नहीं…… मैं खाँसती रहती हूँ । ‘

‘ तो आप यह काम मत करें मम्मी।’ – दोनों भाई-बहन ने कहा।  ‘ तुम्हारे अब्बा सारा दिन ताँगा चलाते हैं ……. मैं बैठकर रोटी तोडूं ?   दोनों भाई-बहन चुप थे।
साल भर के भीतर महफूज के अब्बू का कत्ल हो गया। रूपयों के अभाव में अम्मी टी.वी की मरीज बनकर लाइलाज दुनियाँ से कूच कर गई पड़ोसी रामदास दोनों को अपने घर ले आये। घर-बाहर, सगा-संबंधी सभी रामदास से नाखुश थे। ‘मुसलमान के बच्चों को घर ले आना, अपने बच्चों की तरह परवरिश करना – ये कहाँ की बात है ? धन-घरम दोनों तरह से गये।’  कानाफूसी होने लगी।

एक दिन रामदास की पत्नी ने आजिज होकर शिकायत की। रामदास ने पत्नी को समझाया – ‘ तुम तो जानती हो मेरी नौकरी छूटने के बाद अफजल मियाँ ने मुझे ढाढ़स ही नहीं बंधाया, अपनी गाढ़ी कमाई का सारा रुपया मुझे दे दिया ताकि मैं कोई व्यवसाय कर सकूँ। ” हाँ मुझे याद है। वे अपने बीवी के साथ घर पर रुपये देने आये थे । ‘ पत्नी ने उत्तर दिया।

‘ तो तुम बताओ इन दोनों यतीम बच्चों के प्रति क्या मेरा कुछ फर्ज नहीं बनता ?  मैं तो कहता हूँ अपने बच्चों की तरह पढ़ा-लिखकर इन्हें अपने पैरों पर खड़ा भी कर दूँ तो भी अफजल भाई का कर्ज न उतार पाउँगा । ‘ – रामदास के मुखमंड़ल पर अहसास की आभा दमक रहीं थी। ‘ आपने ठीक ही किया

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