कोलकाता: कौन कहता है आसमान में सुराख हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों। इस कहावत को सच साबित किया है भारत के, जलयोद्धा पद्मश्री उमा शंकर पांडे ने। पर्यावरण दिवस से पूर्व दो दिनों के दौरे पर कोलकाता पहुंचे कलयुग के इस भगीरथ ने विशेष बातचीत में बताया कि किस तरह से जल संरक्षण की हमारी प्राचीन पद्धति पूरी दुनिया को भी जल संरक्षण का पाठ पढ़ा रही है। केंद्र सरकार की ओर से देश के पहले जल योद्धा के सम्मान से सम्मानित उमा शंकर कहते हैं कि “खेत में मेड़ और मेड पर पेड़” भारत के हर गांव में सदियों से देखे जाते रहे हैं। हमने इसी को नारा बनाया और इसे जन आंदोलन का रूप दिया।
बुंदेलखंड का एक छोटा सा गांव जखनी आज पूरे देश में जल ग्राम के नाम से जाना जाता है। क्योंकि दुनिया के विकसित और विकासशील देश यहां भूजल संरक्षण की प्राचीन पद्धति को सीखने के लिए अपने प्रतिनिधि भेजते हैं। इस गांव में उमाशंकर ने ग्रामीणों की मदद से यहां जल संरक्षण की प्राचीन पद्धति के मुताबिक वर्षा जल संचय का शानदार उदाहरण पेश किया है।
वह कहते हैं कि आज हमारी पद्धति को सीखने के लिए अमेरिका, जापान, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, इजराइल के लोग आ रहे हैं। दुनिया जानना चाहती कैसे बंजर भूमि में फसलें लहलहाईं, कैसे बंजर भूमि में पानी की नदियां बह निकलीं। कैसे बुंदेलखंड की सुखी भूमि में हरे पेड़ और पौधे आज दुनिया को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। दुनिया जानना चाहती है कैसे बदली बंजर बुदेलखंड की तकदीर और तस्वीर।
वह कहते हैं, भूजल संरक्षण का एक ही तरीका है, जहां गिरें जल की बूंदें, वहीं उसे रोक लें। उसे बहने नहीं दें, उसे बर्बाद होने नहीं दें। इसके लिए हमारे पुरखों ने खेतों में मेड़ और मेड़ों पर पेड़ लगाने का उत्तम और वैज्ञानिक तरीका दिया है। यही तरीका हमने बांदा और बुलेंदलखंड में अपनाया। चित्रकूट जहां मालगाड़ी के डिब्बों से किसानों को पानी पहुंचाया जाता था। आज उन्हीं मालगाड़ी की डिब्बों से धान की ढुलाई हो रही है।
किसानों ने मेड़बंदी की। बरसात की बूंदों को बर्बाद नहीं होने दिया। आवश्यकता पड़ने पर तालाब बनाए गए मैंने पहल की और एक आह्वान पर ग्रामीणों ने फावड़े चलाए। बरसात का पानी खेतों में रहा। अब वहां का किसान अपनी पुरखों की वैज्ञानिक और बिना आधुनिक तकनीक के हजारों क्विंटल धान की उगा रहा है। केवल बांदा में ही 20 लाख क्विंटल धान की उपज हुई। जहां कभी धान खरीद सेेंटर नहीं थे, वहां सेंटर बने। यह सब कुछ संभव हुआ, भूजल संरक्षण से।
खेतों में मेड़ और मेड़ों पर पेड़ों की विधि से। इसमें सबसे ज्यादा अगर किसी का योगदान है तो जन सहभागिता का। किसनों ने मिलकर सामूहिक प्रयास किए और नतीजे सामने हैं। जल संरक्षण में आम जनों की भूमिका को रेखांकित करते हुए उमाशंकर कहते हैं कि करीब साढ़े तीन दशकों से जल बचाने की मुहिम को जीवन का वह मकसद बना चुके हैं। अब पूरी दुनिया को समझ आ गया है कि भविष्य में पानी की समस्या सबसे बड़ी होेने वाली है। लोगों को लगता है कि पानी बचाने का काम सरकारों का है।
मेरा मानना है कि पानी बचाना केवल सरकार का ही काम नहीं है बल्कि इसमें जन भागीदारी बहुत जरूरी है। समाज में वही चीज जिंदा रही है, जिसमेे समाज और समुदाय की भागीदारी रहती है। उमाशंकर कहते हैं कि तकनीक का हाथ पकड़कर दुनिया तेजी से भले विकसित हो रही है लेकिन मनुष्य और मनुष्यता के बचे रहने के लिए जिन प्राकृतिक संसाधनों की जरूरत है उसे कोई नहीं बना सकता।
इसमें पानी सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण जरूरत है। आदमी केवल धरती पर बरसात के समय गिरीं बूंदों को संजो सकता है। संरक्षण कर सकता है। क्योंकि जल के कारण ही पृथ्वी पर जीवन है। ये जो हरियाली देख रहे हैं, वह सब कछ पानी के कारण ही है। इसलिए दुनिया के लोगों को अब बारिश की बूंदों को सहेजना की दिशा में काम करना चाहिए। नहीं तो इसके गंभीर परिणाम होंगे।
जल संरक्षण में वर्तमान केंद्र सरकार की भूमिका की सराहना करते हुए उमाशंकर ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इकलौते ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने पर्यावरण और इंसान की जरूरत के लिए जल संरक्षण के महत्व को समझा है। वह गुजरात के मुख्यमंत्री रहे जहां पर पानी की बड़ी किल्लत थी। उन्होंने गुजरात में इस दर्द को सहा था। जब वे देश के प्रधानमंत्री बनें तो उन्होंने जल संरक्षण के लिए अलग मंत्रालय बनाया जल शक्ति मंत्रालय। विभाग में उन प्रदेशों के लोगों जिम्मेदारी दी गई, जो प्रदेश पानी की कमी से जूझ रहे हैं।
प्रधानमंत्री की ओर से सारे देश ग्राम प्रधानों को पत्र लिखकर मेड़बंधी को अपनाने की अपील की गई। जलशक्ति मंत्रालय की मदद से आज देश के 1.50 लाख गांवों में मेड़बंदी विधि का उपयोग करके किसान मालामाल हो रहे हैं। जहां कभी धान पैदा नहीं होती थी, आज वहां बासमती की खेती हो रही है। वह कहते हैं कि इस देश के पहले जलयोद्ध हुए महाराज भागीरथ। भागीरथ ऊपर से पानी लाने के विशेषज्ञ थे।
उन्होंने हिमालय से पानी डायर्ट करके नीचे लेकर आए। 2525 किलोमीटर की यात्रा तय करके जल लेकर आए। हमारे यहां जमीन के नीचे से जल लाने की कला किसी के पास थी तो वह माता अनसुया के पास थी। जो उन्होंने मंदाकिनी को लाकर दिखाया। तालाब के प्रबंधन की तकनीत भोज के पास थी। भोपाल में सबसे बड़ा तालाब बनवाया। आदिवासी क्षेत्रों में तालाब कैसे बनते हैं, माहाराणी दुर्गावती ने गोड़वाणा में बनाकर दिखाया। सामुदायिक आधार पर तीर्थों में कैसे जल को रोका जाए, उसकी तकनीक अहिल्याबाई होल्कर के पास थी।
महारानी होल्कर ने सभी तीर्थों के पास तालाब बनवाए। पूरी दुनिया में अगर आज भूजल संरक्षण की बात करते हैं तो वे हैं हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी। अगर वास्तव में कहना हो तो हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस युग के जलयोद्धा हैं। इसके अलावा तेजी से शहरीकरण और विकास की अंधी दौड़ में भरे जा रहे जल भूमि को लेकर चिंता जाहिर करते हुए जल योद्धा कहते हैं कि सनातन परंपरा के पुरखे सदियों से तालाब और कुएं बनाते रहे हैं।
हमारे यहां सुख में, दुख में, उत्सव में और अकाल में तालाब बनाए जाते थे लेकिन आज देश के कई छोटे और बड़े शहर भूजल की समस्या से तरसने लगे हैं। हमें केवल इतना करना है कि हमारे पुरखों ने जो तालाब और कुएं बनाए थोे, हमें उनको मरने नहीं देना है। उनको पुर्नजीवित करना है। अगर शहर के कुएं और तालाब भूजल से भरे रहेंगे तो कभी पानी की कमी नहीं रहेगी। पेड़ों को पानी मिलेगा, पेड़ों से पर्यावरण शुद्ध रहेगा। इसलिए तो मैं बार-बार कह रहा हूं, भूजल संरक्षण में जन सहभागिता बहुत जरूरी है। जन सहभागी के बिना जल संरक्षण संभव नहीं है।