एक सभ्य समाज के लोगों में सामाजिक और राजनीतिक चेतना का होना बहुत ही जरूरी है और बिहार की आबादी में लगभग सात प्रतिशत जनसंख्या वाले हिंदू बुनकर समाज यानी पान समाज देश की आजादी के 73 वर्षों बाद आज भी अपनी खुद की पहचान से भी वंचित है, सिर्फ आजादी के बाद पहली बिहार विधानसभा चुनाव में इस पान समाज के एक मात्र बाबू मुकुंद राम तांती जी विधायक चुने गए थे।
उसके बाद से आज तक एक भी विधायक निर्वाचित नहीं हुए, सांसद तो बहुत दूर की चीज है। सभी राजनीतिक दलों की इस समाज के प्रति उदासीनता समेत अनेक कारणों में एक कारण यह भी है कि पान समाज खुद भी इतने सारे कुनबों में बँटा हुआ है और वैचारिक मतभेद आपस में इतनी गहरी है कि इस समाज के नेतृत्व कर्तागण आपस में ही संगठित नहीं हो पाये हैं आजतक जिससे कि सभी बड़े राजनीतिक दलों की नजरों में इस समाज का कोई मूल्य नहीं है, यानी हमारा समाज जनसंख्या के आधार पर बिहार में काफी अधिक है
परंतु खुदरा पैसों की तरह जिसे कोई बहुत मजबूरी में ही लेना चाहता है और उसी जगह रुपया कुछ कम भी हो तो सब लेना चाहते हैं। जबकि गर्व भी होता है की पान समाज की ही उपजाति कोरी/कोली से आने वाले यूपी के देश के प्रथम नागरिक महामहिम राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद जी हैं। बिहार की जनसंख्या में डेढ़-दो प्रतिशत की आबादी वाले अन्य समाज के कितने ही विधायक, पार्षद, लोकसभा और राज्यसभा सांसद है, तथा विभिन्न आयोगों के अध्यक्ष और सभापति।
पहले पान समाज पिछड़ी जातियों (OBC) में गिनी जाती थी फिर 1 जुलाई 2015 को इसे अनुसूचित जाति (S/C) में डाला गया अर्थात आजादी के 68 सालों बाद पान जाति की कोई उन्नति नहीं हुई बल्कि पतन ही हुआ, परंतु आज भी सरकारी या गैर सरकारी आंकड़ों में पान समाज के नाम का कहीं भी उल्लेख नहीं किया जाता है तथा सभी बड़ी पार्टीयों द्वारा पान जाति के नेताओं का विधान पार्षद के चुनावों में भी नजरअंदाज किया जाता है और यही हाल विधानसभा चुनाव में भी टिकट देते वक्त है।
जबकि इन आरक्षित सीटों पर कितने ही ऐसे सीट है जहां पर पान समाज के वोटर निर्णायक भूमिका मे हैं और अपनी-अपनी सुविधा और राजनीतिक प्रतिबद्धता के अनुसार अपने-अपने वोट देते आए हैं। बिहार विधानसभा के लिए आरक्षित 38 सीटों में से पक्ष विपक्ष मिलाकर 38×2=78 यानी 76 सीटों में से शायद ही कभी एक दो सीटों पर इस समाज के लोगों को मौका मिला हो।
आजादी के बाद से आजतक पान समाज को सभी पार्टियों द्वारा पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया और आनेवाले 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में भी कोई बहुत ज्यादा मुझे उम्मीद नहीं दिख रही है, हालांकि सभी राजनीतिक दलों में पान समाज के कार्यकर्ताओं में इस बार काफी उत्साह है टिकट को लेकर।
आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से पिछड़े इस समाज के पास इतने संसाधन भी मौजूद नहीं है कि अपनी पार्टी बनाकर तथा चुनाव लड़कर आने वाले दिनों के लिए अपनी पहचान बना सके। बिहार का तो सदियों से इतिहास रहा है कि यहां की पानी और जवानी बिहार के किसी काम की नहीं बल्कि देश के दूसरे राज्यों के काम में आती अतः दूसरे समाज की तरह इस समाज के भी शिक्षित लोग पढ़ लिख कर नौकरियों में लगे हुए हैं और कम पढ़े लिखे लोग मजदूर बनकर दूसरे राज्यों में अपनी जवानी खत्म कर रहे होते हैं।
ये लोग सिर्फ चुनावों के वक्त बिहार लौट कर अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं फिर अपनी अपनी कर्मभूमि की ओर लौट जाते हैं। बाकी यहां रह रहे लोगों में ऐसा नहीं है कि इनके अंदर राजनीतिक चेतना बिल्कुल ही लुप्त है परंतु यह समाज आपस में इतना बिखरा हुआ है की राज्य की राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करवा पा रहा है। अतः सभी बड़ी पार्टियों से अनुरोध है कि पान समाज को भी अपने-अपने दलों से जनसंख्या के आधार पर उम्मीदवारी दी जाए।
बीजेपी जिनका नारा ही है कि “सबका साथ सबका विकास” तो 7 प्रतिशत पान समाज का साथ बिहार में कब लीजियेगा और विकास कीजियेगा? जदयू के सुशासन बाबू भी इस ओर ध्यान दें कि आपके सुशासन में इतनी बड़ी आबादी अपने राजनीतिक अधिकारों से वंचित क्यों है, क्या यही सुशासन है? बाकी लोजपा और राजद आप सब भी यदि अपने परिवार और अपने समाज के लोगों को इन आरक्षित 38 सीटों पर टिकट देने के बाद अगर कुछ सीट बचे तो इस 7 प्रतिशत आबादी वाले पान समाज पर भी ध्यान दीजिएगा!
पूरे लेख का सारांश यही है कि बिहार में इतनी बड़ी आबादी वाले दलित पान समाज जो कि राजनीतिक रूप से आज भी सभी अन्य जातियों से पिछड़ा हुआ है और अपनी राजनीतिक पहचान के लिए आज भी सभी दलों के दर-दर भटकता फिर रहा है बिहार का यह दलित पान समाज अतः एक नजर इस समाज पर भी सभी राष्ट्रीय पार्टी अपनी नजरें इनायत करें।