सोने-चांदी के कलम नहीं लिखेंगे आंसू की दास्तां ( गरीबी की पीड़ा ) 

डॉ. लोक सेतिया, स्वतंत्र लेखक और चिंतक

जो लिखना चाहता हूं उस असहनीय दर्द की व्यथा कथा को लिखने को अश्कों का इक समंदर चाहिए। पता नहीं जो टीवी पर अपने घर किसी तरह वापस जाते भूखे नंगे गरीब मज़दूर महिलाएं बच्चे सैकड़ों मील का फासला धूप या बारिश जैसा भी मौसम हो जाते नज़र आ रहे हैं उनकी पीड़ा को कोई समझ भी रहा है। उनकी बदहाली को भी टीवी चैनल वाले बताते दिखलाते हैं तब रत्ती भर भी मानवीय संवेदना उनके चेहरे और खबर बताने के ढंग में दिखाई नहीं देती है।

दो दिन से तो मोदी जी की भारत सरकार द्वारा की बीस लाख करोड़ की घोषणा की चर्चा से अधिक महत्व किसी और विषय का नहीं का रह नहीं गया है। सरकार के लोग टीवी पर आकर बीस लाख करोड़ का विवरण बताते हुए अपने चेहरे पर गर्व और मुस्कुराहट लिए नज़र आते हैं जिसे देख कर लगता ही नहीं उनको करोड़ों बेबस उन गरीबों की दशा का कोई एहसास भी है। खुद ही अपनी पीठ थपथपाते लगते हैं जबकि जो भी किया गया या किया जाना है वो कोई उपकार नहीं है आपको करना ही चाहिए था और माफ़ करें ये जनता का धन है जनता के लिए ही है कोई महानता की बात नहीं है।
क्या हम को अपनी साहूलियत से इस बात को अनदेखा कर देना चाहिए कि कोरोना को लेकर लॉक डाउन घोषित करने से पहले क्यों सरकार को देश की सबसे नीचे की पायदान पर गरीबी रेखा से नीचे के करोड़ों उन मज़दूरों की कोई चिंता नहीं होनी चाहिए थी जो अपने घर से हज़ार मील दूर रोज़ी रोटी की खातिर गए हुए हैं। अगर आप कोरोना की आहत होने के बाद भी नमस्ते ट्रम्प आयोजित करते हैं तो क्यों नहीं काम और सभी अन्य तरह की रोक लगाने से पहले उनकी उचित व्यवस्था करते।
घोषणा करने से हुआ कुछ नहीं लोग बेसहारा और मज़बूर होकर अपनी जान हथेली पर रखकर निकल पड़े। हमने सुनी हैं दर्द की कहानियां उन से जो आज़ादी के समय बंटवारा होने पर इधर आये उधर से या उधर गए इधर से। मुहाज़िरनामा , मुनव्वर राणा की ज़ुबानी सुनते ही आपकी आंखें अगर नम नहीं होती है तो फिर आप ज़िंदा नहीं हैं एहसास मर चुके हैं। मगर तब हालात और थे नफरत की आग थी दोनों तरफ ही और कोई नहीं जानता था जिधर जा रहे हैं उधर भविष्य क्या होगा। सब कुछ छोड़ या जितना मुमकिन था समेट कर घर नहीं मकान नहीं शहर नहीं बहुत कुछ छोड़ आये थे। जाने कितने साल लगे थे उनको फिर से खुद को खड़ा करने में फिर भी जीवन भर इक तीस चुभती रहती थी जब कोई उनको शरणार्थी कोई मुहाज़िर कह कर बुलाता।
आज अपने ही देश में अपने ही घर लौटने में अपनी ही बनाई सरकारों की असंवेदनशीलता ने जो दर्द उनको दिया है वो बंटवारे से बढ़कर है। उस से अधिक खेदजनक बात है देश राज्य की सरकार के साथ बाकी समाज का भी उनको लेकर उदासीन नज़र आना। आपने सोचा नहीं होगा भले जानते हैं कि देश की सड़कें बहुमंज़िला इमारतें आलीशान बाजार जहां जो भी है इन्हीं की मेहनत और पसीने से ही निर्मित हैं। कोई उद्योग कोई विकास इनके बिना नहीं मुमकिन था मगर जब इनको ज़रूरत थी कोई आसरा नहीं कोई दर्द बांटने वाला नहीं मिला। अपनी सबसे अधिक पसंद की गई ग़ज़ल से कुछ शेर यहां उपयुक्त हैं।
हमको ले डूबे ज़माने वाले ,
नाखुदा खुद को बताने वाले।देश सेवा का लगाये तमगा ,
फिरते हैं देश को खाने वाले।

उनको फुटपाथ पे तो सोने दो ,
ये हैं महलों को बनाने वाले।तूं कहीं मेरा ही कातिल तो नहीं ,
मेरी अर्थी को उठाने वाले।

मैं तो आइना हूँ बच के रहना ,
अपनी सूरत को छुपाने वाले।

उन लाखों लोगों के आंसू भी खुश्क हो चुके हैं उनके चेहरे जाने कैसे अपनी निराशा और बेबसी को छुपाए अपने बच्चों की भूख और पांव के छालों को अनदेखा कर चल रहे हैं। जाने कितने कब कैसे कोरोना से नहीं अव्यवस्था का शिकार हो कर परलोक सिधार गए कोई उसका दोषी नहीं कोई मुजरिम नहीं। आज उनकी मौत कोई हादिसा नहीं कोई समाचार नहीं और कुछ दिन बाद उनके लंबे दर्द भरे सफर की भी कोई बात किसी इतिहास के पन्ने पर दर्ज हुई नहीं दिखाई देगी।

उनकी मौत बेमौत मरना उनकी नियति समझी जाएगी और हमेशा की तरह गरीबी अभिशाप है कहकर भूल जाएंगे गरीबी क्यों है। आज बीस लाख करोड़ का पैकेज कोई पहला नहीं है पचास साल से कितनी योजनाओं का नतीजा शून्य रहा है। और ये तो घोषणा गरीबी को मिटाने की है ही नहीं ये तो है अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा करने की। जिनके पास कुछ है उनको थोड़ा और साथ या सहारा देने की बात है जिनके पास कुछ भी नहीं उनके लिए कुछ है भी नहीं।

बीस लाख करोड़ की राशि को बताते हुए टीवी वाले दो के बाद 13 जीरो लगती हैं सुनकर इक बात का ख्याल आया की आज से पांच सौ साल पहले बीस रूपये की कीमत कितनी होती थी। तब नानक को पिता ने बीस रूपये देकर कोई अच्छा कारोबार करने को भेजा था। रस्ते में उनको कुछ भूखे साधुओं की टोली मिली। तब उनको लगा इनको रोटी खिलाने से अच्छा और कोई कारोबार क्या हो सकता है। और उन्होंने सारे बीस रूपये इसी नेक काम पर खर्च कर दिए थे। वो इक अकेले इंसान की बात थी पांच सौ साल पहले।

मुझे नहीं लगता आज इतने बढ़े देश की सरकार के बीस लाख करोड़ की कीमत उस से बढ़कर होगी। मगर इन में भी वास्तव में भूखे गरीबों को क्या कब कितना मिलता है विश्वास से कोई नहीं जानता क्योंकि भाषण बहुत सुनते रहे हैं हुआ क्या सामने है। दो और बातें हैं जो बाद में कहनी हैं इक गांव की मुखिया की बेटी ऐश्वर्या की और इक बड़ी पुरानी कविता पंजाबी की।

                    वतन से इश्क़ गरीबी से बैर और प्यार अमन से ,

                         सभी ने ओढ़ रखे हैं नकाब जितने हैं।

 

नोट : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी व व्यक्तिगत हैं । इस आलेख में दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।

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