डीपी सिंह की मुक्तक : ज्वार

“ज्वार”

पहले सूरज चन्दा मिलकर सागर को उकसाते हैं
शान्त पड़े जल को मिलकर वे उद्वेलित कर जाते हैं
उठता है जब ज्वार भयंकर, कोलाहल तब मचता है
सागर उच्छृंखल है, कह कर फिर सबको भड़काते हैं

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