डीपी सिंह की कुण्डलिया

कुण्डलिया
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विकृत होता है कभी, जब मानव का जीन।
फटने लगती है तभी, कहीं-कहीं पर जीन।।
कहीं कहीं पर जीन, दूसरा फाड़े जबरन।
कहीं फटे बिन चैन, न पाए अपना ही मन।।
आजादी के नाम, सभी दुर्गुण हैं स्वीकृत।
किया व्यक्ति को आज, आधुनिकता ने विकृत।।

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