श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । सनातनियों (हिन्दुओं) को प्रारब्ध से ही विश्वास रहा है कि ‘सत्य की सदा जीत होती है और असत्य का समूल नाश होता है। अंधकार पर प्रकाश की जीत निश्चित है।’ प्राचीन काल से लेकर आज तक की हमारी सभी धार्मिक और सामाजिक ग्रंथ इसी की व्याख्या और दृष्टांत को उद्घाटित करते हैं। स्वच्छता और प्रकाश का यह पावन पर्व ‘दीपावली’ भी यही चरितार्थ करता है। ‘दीप’ अर्थात ‘प्रकाश’ को ‘स्कन्द पुराण’ में सूर्य के अंश का प्रतिनिधित्व करने वाला माना गया है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात, ‘हे भगवान! मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाइए।’ यह उपनिषदों की ही आज्ञा है।
भारत सहित आज विश्व भर में कई देशों में मनाए जाने वाले पर्व ‘दीपावली’ का सामाजिक, धार्मिक और वैज्ञानिक महत्त्व है। गर्मी में घर बाहर-भीतर से धूल-गर्दा से परिपूर्ण हो जाता है। फिर बरसात का आगमन हो जाता है, जो स्वच्छता संबंधित भयावहता को और भी बढ़ा देता है। घर भर में पानी का जमाव, सीलन, दीवारों पर से मिट्टी और रंग- रोगन उतर ही जाते हैं। जहाँ-तहाँ जंगल-झाड़ उग कर तरह-तरह के कीड़े-मकौड़े, मच्छर-मक्खी आदि के आश्रय-स्थल बन जाते हैं। जिससे घर और मुहल्ले का वातावरण श्री विहीन और विभिन्न बीमारीयुक्त हो जाता है। इनके विनाश और स्वच्छ वातावरण के लिए घर सहित अपने आस-पास के वातावरण की साफ-सफाई आवश्यक हो जाती है और यह कार्य दीपावली पर्व के एक-डेढ़ सप्ताह पहले ‘दशहरा’ के उपरांत से ही प्रारंभ हो जाता है। फिर घर का कोना-कोना से लेकर बाहर गली-मुहल्ले तक की सम्पूर्ण सफाई अपेक्षित होती है। फिर सर्वत्र दीपक जलाकर प्रकाश में श्रीलक्ष्मी जी का स्वागत किया जाता है।
धार्मिकता के आधार पर अपने पिता अयोध्यापति महाराज दशरथ के वचन तथा माता कैकयी की इच्छाओं का सादर पालन हेतु श्रीराम 14 वर्ष तक वनवासी जीवन यापन करते हुए साधु-संतों, ऋषि-मुनियों और समस्त चराचर की रक्षा हेतु असुरों का विनाश किए। तत्पश्चात कार्तिक मास के अमावस्या के दिन ही श्रीराम जी अपनी भार्या सीताजी, अनुज श्री लक्ष्मणजी, प्रिय सेवक श्री हनुमानजी, मित्र लंकेश विभीषणजी, किष्किन्धा नरेश श्री सुग्रीवजी, किष्किन्धा युवराज अंगदजी, रीछराज श्रीजामवंतजी आदि सहित अयोध्या लौटे थे। जिसके उल्लास में आयोध्यावासी दीपों की प्रज्ज्वलित माला स्वरूप ‘दीपावली’ से उन सबका स्वागत किए थे।
लेकिन आयोध्यावासियों द्वारा श्रीराम की भार्या, अनुज व सहायकों सहित अयोध्या में स्वागत मात्र ही पर्व ‘दीपावली’ नहीं है, बल्कि श्रीराम द्वारा नर, बानर, रीछ, वनवासी आदि ‘तुच्छ’ समझे जाने वालों के सहयोग से बलशाली दशकंदर के संहार के उपरांत लोगों की हर्ष की गाथा का पर्व ही ‘दीपावली’ है। अतः श्रीराम सहित उनके सहयोगीजन के स्वागत में अयोध्यावासियों ने अपने-अपने घरों और गलियों की साफ-सफाई कर उन्हें सुगंधित द्रवों से सींचा। गजमुक्ताओं से रच-रचकर बहुत ही सुन्दर-सुंदर चौकें पुराई। घर के द्वारों पर सोने के कलशों को मणि-रत्नादि से अलंकृत कर रखा। उनके सम्मुख ही घी के दिए जलाए। अपने घरों पर मंगल संकेत के लिए आम्र-पल्लव, बंदनवार, ध्वजा और पताकाएँ लगाईं। अनेकों प्रकार के सुंदर-सुंदर मंगल साज सजाए गए और हर्षपूर्वक नगर में सर्वत्र ही बहुत से ढोल-नगाड़े बजने लगे।
‘कंचन कलस बिचित्र सँवारे। सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे।
बंदनवार पताका केतू। सबन्हि बनाए मंगल हेतू।
बीथीं सकल सुगंध सिंचाई। गजमनि रचि बहु चौक पुराईं।
नाना भाँति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे।’
सर्वत्र शरद ऋतु की मंद शीतलता में कार्तिक मास की गंभीर काली अमावस्या की उस रात्रि में आकाश में टिमटिमाते तारों की आभा धरती पर जलते दीयों में दिखाई देने लगी, जो लोगों की प्रसन्नता को व्यक्त कर रही थीं। माना जाता है कि तब से ही प्रति वर्ष सनातनी (हिन्दू) इस ‘प्रकाश-पर्व’ को ‘दीपावली’ के रूप में हर्ष व उल्लास से मनाते आ रहे हैं। श्रीराम जी ने पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों आदि सब के सहयोग को सादर ग्रहण कर समुद्र-सेतु का निर्माण कर अपने वृहद कार्य को सम्पन्न किया था। इसलिए इसे ‘विजय और शौर्य’ के पूजन के तौर पर भी देखा जाता है। ‘दीपावली’ का त्योहार हमारे जीवन में निराशा को हटा कर आशा के प्रकाश को बिखेरता है। इस प्रकार भगवान राम के जीवन से जुड़ा यह पर्व हम सबको भी अपने जीवन सहित प्रकृति और समस्त चरचरों के जीवन में आनंद का प्रकाश फैलाने की प्रेरणा प्रदान करता है। सर्वत्र जय की कामना से कवि-हृदय अटल बिहारी वाजपेयी कह उठते हैं –
‘आहुति बाकी यज्ञ अधूरा, अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने, नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।’
दीपावली पर्व का प्रारंभ ‘धनतेरस’ से ही हो जाता है। इस दिन बरतन या गहने खरीदना शुभ माना जाता है। दूसरे दिन ‘नरक चतुर्दशी’ या ‘छोटी दीपावली’ होती है। इस दिन ‘यम पूजा’ हेतु दीपक जलाए जाते हैं। तीसरा दिन ‘दीपावली’ का होता है। इस दिन शाम को शुभ मुहूर्त में ‘गणेश-लक्ष्मी’ सहित ‘खाता-पूजन’ की जाती है। तत्पश्चात ही घर-द्वार, गलियों में दीए जलाकर रोशनी किया जाता है। दीपावली के बाद अर्थात चौथे दिन ‘गोबर्धन पूजा’ स्वरूप अपने गाय-बैलों सहित गोबर का पर्वत बना कर उसकी पूजा किया जाता है। इसी दिन श्रीकृष्ण जी ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अँगुली पर उठाकर इंद्र के कोप से डूबते ब्रजवासियों को मय मवेशियों सहित बचाया था। उसके अगले दिन अर्थात पाँचवे दिन ‘भाई दूज’ का पर्व होता है। इसे ‘यम द्वितीय’ भी कहते हैं। इस दिन भाई और बहिन का गाँठ जोड़ कर यमुना नदी में स्नान करने की परंपरा रही है।
अपने देश सहित विदेशों में भी ‘दीपावली’ का त्योहार बहुत ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसे हिंदू के अतिरिक सिख, जैन तथा बौद्ध आदि सभी इसे मनाते हैं। कोई इसे लक्ष्मी के आगमन के त्योहार के रूप में, तो कोई श्री राम द्वारा लंका विजय कर अयोध्या वापसी के रूप में मानते हैं। इसी तरह से कोई मान्यता कहती है कि पांडव इसी रोज अपना 12 साल का बनवास तथा एक साल का अज्ञातवास पूर्ण कर हस्तिनापुर लौट आए थे। दक्षिण भारत में मान्यता है कि इसी दिन द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा के साथ नरकासुर का वध किया था अतः वे इसे ‘नरकासुर विजय’ के रूप में मनाते हैं। तमिलनाडु में मान्यता है कि इसी दिन विष्णु ने वामनावतार के समय असुर राजा बलि से सबकुछ दान में ले लिया था। इसीलिए वहाँ इसे ‘बलि पड़वा’ भी कहते हैं। यह भी मान्यता है कि शिल्पकला के अधिदेवता भगवान विश्वकर्मा जी दीपावली के दूसरे दिन ही सभी देवी-देवताओं के लिए विभिन्न अलंकारों तथा अस्त्र-शस्त्रों व विमानों की रचना किए थे। अतः दीपावली के दूसरे दिन शिल्पी वर्ग द्वारा विश्वकर्मा जी का भी पूजन की परंपरा है। जबकि गुजरात, महाराष्ट्र तथा राजस्थान के कुछ इलाके में दीपावली से ही उनका ‘पंचांग’ शुरू होता है। बंगाल व पूर्वी भारत में इसे ‘काली पूजा’ के रूप में मनाया जाता है। कई अन्य जगहों पर इसे तांत्रिक-त्योहार के रूप में भी मनाया जाता है।
जैनियों के अनुसार दीपावली के दिन ही उनके 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी को ‘पावापुरी’ में ‘निर्वाण’ प्राप्त हुआ था। बौद्ध धर्म के समर्थकों व अनुयायियों ने 2500 वर्ष पूर्व लाखों दीपक जला कर दीपावली के दिन ही महात्मा बुद्ध का स्वागत किया था। आज भी बौद्ध धर्म के अनुयायी दीपावली के दिन अपने स्तूपों पर अनगिनत दीपक प्रज्ज्वलित करके भगवान बुद्ध का स्मरण करते हैं।
सिखों के अनुसार दीपावली के दिन ही उनके छठे गुरु ‘बंदी छोड़’ हरगोबिंद साहबजी ग्वालियर के किले में से स्वयं को तथा बिना कोई भेदभाव के भारत के अन्य 52 राजाओं को मुगल शासक जहांगीर के कारागार से मुक्त करवाया था। गुरु जी के अमृतसर पहुँचने पर ‘बाबा बुड्ढा’ जी ने ‘दीपमाला’ प्रज्ज्वलित कर उनका स्वागत किया था। इसके बाद ही गुरु हरगोबिन्द साहिब ने ‘मीरी-पीरी’ नाम से दो तलवारें रख कर सिखों में संत के साथ-साथ सिपाही होने की परम्परा भी शुरूआत की थी। ‘स्वर्ण मंदिर’ का निर्माण कार्य भी दीपावली के दिन से ही प्रारंभ किया गया था।
चारों वेदों के अध्येता, सनातन धर्म के प्रचारक आद्य शंकराचार्य जी का निर्जीव शरीर जब चिता पर रख दिया गया था, तब सहसा चमत्कार हुआ और उनके शरीर में दीपावली के दिन ही पुन: प्राणों का संचार हुआ था। ‘वेदों की ओर लौट चलो’ की आवाज को बुलंद करने वाले वेदों के प्रकांड विद्वान और ‘आर्य समाज’ के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती जी दीपावली के दिन ही अजमेर में अपने प्राण त्यागे थे। राष्ट्रवाद की आवाज सहित समाज में जागृति लाने वाले वेदों के परम ज्ञाता दिव्य महापुरुष स्वामी रामतीर्थ जी भी दीपावली के दिन ही देवप्रयाग में गंगा जी में जलसमाधि लेकर ब्रह्मलीन हुए थे।
परंतु बदलते समय और परिस्थितियों के साथ ही हमारी जीवन शैली में बहुत बदलाव हुए हैं। इनके प्रभाव से हमारा दीपावली का त्योहार भी अछूता नहीं रह गया है। सभी अन्य मानवीय, सामाजिक और धार्मिक क्रियाओं की भाँति ही यह पर्व भी वर्तमान में व्यापार का ही जरिया बन चुका है। पहले प्रकाश के नन्हें-नन्हें संवाहक दीपक को कुम्हारवंशी बनाकर घरों में दे जाया करते थे और फिर उन्हें उनके बदले बिन मोल-तौल किए ढेर अनाज व नए कपड़े आदि प्राप्त हो जय करता था। पूरे गाँव भर की हर गालियाँ परस्पर प्रेमरस से परिपूर्ण नन्हें-नन्हें दीपकों के प्रकाश से दमकने लगता था। दीपावली के अवसर पर इसी स्नेह-रस की कामना शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ ने किया है।
‘मृत्तिका का दीप तब तक जलेगा अनिमेष
एक भी कण स्नेह का जब तक रहेगा शेष।’
परंतु वह सब अब इतिहास ही बन गया है। आज उन टिमटिमाते मिट्टी के नन्हें-नन्हें दीपकों के स्थान बिजली की रंगबिरंगे बत्तियों ने ले ली हैं। खुशी और उत्साह की जगह आर्थिक बेचैनी और हड़बडाहट ने ले ली हैं। लोग अपने दिखावे की चमक से दूसरों की आँखों को चौंधिया देना चाहते हैं। चारों ओर प्रतिस्पर्धा की बेहतास दौड़ नजर आ रही हैं। आज डिजिटल समय में हम केवल ‘डिजिटल मैसेज’ में ही बंध कर रह गए हैं। घरेलू खिलौनों के स्थान को तरह-तरह के बन्दूक-पिस्टल जनित खिलौनों ले लिए हैं, जो कि बच्चों में प्रारंभ से ही विध्वंसक और हिंसात्मक प्रवृत्ति की नींव डालने लगे हैं। आज हमलोग केवल अपने तक सीमित होकर एकाकी जीवन जी रहे हैं। जबकि दीपावली के मूल स्वरूप में सामूहिक प्रेम-भाव का होना ही सबसे अहम हुआ करता था।
बाजारवाद ने दीपावली पर आतिशबाजी जलाने की परंपरा का भी प्रचलन कर दिया है, जो आज बढ़ते हुए पागलपन की सीमा पार कर गई है। लोग अपने ही पैसों में आग लगा कर, घर फूंक कर, तन को क्षति पहुँचा कर, पड़ोसियों के दिल दहला कर, जुए में अपना सब-कुछ लूटा कर पता नहीं कैसे आनंदित होने की कल्पना करते हैं। फिर परस्पर ऐसी प्रतिस्पर्धा में कई लोग अपनी जान तक भी गवां बैठते हैं। लोग यह भूल जाते हैं कि दीपावली प्रकाश का पवित्र त्योहार है, आगजनी और विस्फोटों का कदापि नहीं। अतः गोपालदास ‘नीरज’ को कहना पड़ा है –
‘जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना,
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।’
श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा
ई-मेल सूत्र – rampukar11117@gmail.com