“दहेजुआ साइकिल” : (कहानी) :– श्रीराम पुकार शर्मा

श्रीराम पुकार शर्मा,

आज ही मेरे कुंवर साहब (एकमात्र पुत्र) एक बेशकीमती ‘रॉयल इन्फिल्ड बुलेट 350’ फटफटिया खरीद लाये हैं। सूचना पाकर अति उत्साहित मैं सपत्नी अपनी कोठरीनुमा कमरे से बाहर निकला। अपनी चारदीवारी में मकान के मुख्य-द्वार के सामने ही बहुत ही गर्वित भाव से नया ‘रॉयल इन्फिल्ड बुलेट 350’ फटफटिया अपने ‘स्टैंड’ पर खड़ा शायद कुछ विशेष स्वागत का इंतजार करते प्रतीत हुआ। बाबू कुंवर उसे थोड़ी देर तक निहारने के बाद हमारी ओर मुखातिब होकर कहे, “इससे दफ्तर जाने में अब कुछ समय बच जाएगा और भीड़-भाड़ युक्त बस में जाने से भी बच जाऊँगा।”

मन में तो आया कि कह दूँ, – ‘अब अपने परिचितों और अपने समाज से भी कट जाओगे।’ पर व्यक्तिगत और पारिवारिक मजबूरी ने ऐसा कहने से मुझे पूर्णतः रोक दिया। और बहुत कुछ ठीक ही किया I
‘कितने में आया है?’ – मैंने बस योहिं आदतन जिज्ञासावश पूछा बैठा।
‘एक लाख तिरसठ हजार में, और कुछ कागज-पत्र ठीक करवाने में अतिरिक्त बतीस हजार I कुल एक लाख पनचानबे हजार लगे हैं।’ – कुंवर की बातों में बड़ी निश्चिंतता और संतुष्टि थी।
मैं अपने आश्चर्य को व्यक्त ही करना चाहा, पर छठी इन्द्रिय ने अति शीघ्र ही मुझे वैसा करने से रोक दिया। उसने अच्छा ही किया। अब तो हमारे मन-मस्तिष्क कुंवर साहब की हर बात को बिना कोई प्रश्न किये चुप-चाप स्वीकार करने और उनके अनुकूल ही तुरंत ‘हाँमी’ भरने की जबरदस्त कला का आदि बन गए हैं, जो कभी अपने अड़ियल स्वभाव के लिए प्रसिद्द रहे थे I
मैंने सोचा कि अब हमारी बहू इस आगन्तुक यांत्रिकवाहन अतिथि ‘रॉयल इन्फिल्ड बुलेट 350’ के स्वागत में पुष्प-अक्षत-रोड़ी और जलते दीये युक्त थाल को सजाये आयेंगी और इस विशेष मेहमान की भव्य आरती उतरेंगी। पास-पड़ोस के लोगों की भीड़ जमा होगी। सभी चकित और इर्ष्या भरी नजरों से इसे देखेंगे, कुछ अपने मन के विपरीत तारीफ भी करेंगे। फिर मुहल्ले भर में मिठाइयाँ भी बटेंगी।
पर ऐसा कुछ भी न हुआ। यह सब शायद इसके भाग्य में बदा ही न था। बस इस विशेष अतिथि के गले में गेंदा फूलों की एक साधारण-सी माला पड़ी हुई थी, जिसे रास्ते में महावीर मन्दिर के पुजारी जी कुछ अतिरिक्त दक्षिणा के लोभवश डाल दिए होंगे। आस-पास के लोग भी इस आगन्तुक यांत्रिकवाहन अतिथि ‘रॉयल इन्फिल्ड बुलेट 350’’ को देखने न आये। केवल घर के हम सदस्यों ने ही अपनी आँखों में अलग-अलग भाव लिए इसका स्वागत किये। मिठाई-उठाई कुछ भी न आई थीं।
मकान की चारदीवारी में कुछ ही दूरी पर एक कोने में हमारी पुरानी ‘हरक्यूलिस’ साइकिल घर में उपेक्षित बुढ़िया (मूल गृहस्वामिनी)-सी उपेक्षित खड़ी टुकुर-टुकुर आगन्तुक यांत्रिवाहन अतिथि ‘रॉयल इन्फिल्ड बुलेट 350’ को देख रही थी। ठंडी-गर्मी-बरसात सभी ऋतुओं में वह बाहर ही खुले आकाश के नीचे रहती है I उसकी दोनों पहियों के ‘रिंग’ पर तथा उसके ‘फ्रेम’ पर जंग लग गये हैं I आगे की पहिये का कीचड़-रक्षक ‘मेडगार्ड’ कब के झर कर उससे अलग हो गया है I पिछला ‘मेडगार्ड’ भी तार से बंधा है I उसके दोनों टायरों में कई जगहों पर घाव से फूल गए हैं I ‘सिट’ भी सी-सा कर ‘रफ्फू’ किया हुआ है I उसके नसीब में ‘तेल-पानी’ की सेवा तो ‘गोइठा में घी’ सुखाने का ही पर्याय रहा है I सब मिलाकर मेरी प्रानप्रिय अधेड़ पत्नी और मेरी सहचारिणी साइकिल में बहुत कुछ समानता है I दोनों समय के थपेड़े खा-खा कर कुरूप हो गए हैं I
यह मेरी दहेजुआ ‘हरक्यूलिस’ साइकिल है। ससुराल की दो ही चीजें तो आज पचपन वर्षों के बाद भी हमसफर बनी साथ देती रही हैं, एक मेरी अधेड़ पत्नी और दूसरा यह दहेजुआ साइकिल। दोनों ही हर मौसम और हर परिस्थिति में गिरते-पड़ते, हँसते-रोते घर-परिवार को सवाँरते ही रही हैं। इनके त्याग-बल ही हमारे घर-परिवार की मूल आधारशिला रही हैं।
आज उसकी दयनीय स्थिति को देखने मात्र से ही अनायास पिछले पचपन वर्षों का इतिहास मेरी आँखों सहित मस्तिष्क में पुनर्जीवित हो गए। जब यह दहेजुआ साइकिल अपने पैरों पर महावर लगाये घुंघटधारी मेरी नवेली पत्नी के पीछे-पीछे हमारे आँगन में पहुँची थी, तब गाँव भर के लोग इसे देखने के लिए आँगन में इकट्ठे हो गए थे। गाँव भर की मेरी चाचियों, बुआयों, दीदियों और बहनों ने तो मेरी घुंघटधारी नवेली पत्नी को तो तुरंत ही अन्तः प्रकोष्ठ में लेकर चली गईं। पर हमारी दहेजुआ साइकिल तो आँगन में ही शर्माई खड़ी रही। इसे गाँववालों के ईर्ष्यालु स्पर्श से बचाने की हर कोशिश की गई। सबसे ज्यादा डर बच्चों से था। दुल्हिन के साथ ससुराल से आयी या आया हर पात्र गाँव भर के लिए छेड़-छाड़ या मजाक के ही पात्र माने जाते हैं। अतः कोई इसके हैंडल, तो कोई इसके पैडल, तो कोई इसकी घंटी को छेड़-छाड़ करने लगा। बहुत मुश्किल से उनकी छेड़-छाड़ सम्बन्धित घटनाओं से इसे बचाया गया। गाँव के लोगों के बीच इसके आगमन की ख़ुशी में लगभग पाँच सेर मिठाइयाँ भी बाँटी गई थीं।
आँगन से निकालने के पहले और आँगन में प्रवेश के पूर्व इसे भली भांति झाड़-पोंछ किया जाता था। लगभग प्रतिदिन ही इसे स्नान कराया जाता I थोड़ी-सी छींक आने या फिर चरचराने पर तुरंत ही ‘गडी के तेल’ पिलाया और लगाया जाता I उस समय परिजन के लिए जितनी प्यारी दुल्हिन अर्थात मेरी पत्नी थी, उतनी ही प्यारी यह मेरी दहेजुआ साइकिल भी थी। पर आज मेरी वह पचपन वर्षीय वृद्ध प्यारी साइकिल आँगन के एक कोने में खड़ी शायद सशंकित नजरों से इस आगन्तुक बेशकीमती यांत्रिक-वाहन ‘रॉयल इन्फिल्ड बुलेट 350’ को देख रही है। शायद अब उसे भी हमारे जैसे ही इस घर में अपनी अनावश्यकता का बोध सताने लगा था। अपनी लाचारी भरी नजरों से वह अपने स्वामी अर्थात मुझे घूरती नजर आयी। पर उसकी रक्षा भर कर पाने की स्थिति अब मुझ पराश्रित में न थी। लेकिन मैं भला उसे कैसे उपेक्षित कर दूँ? उसने हर परिस्थिति में पिछले पचपन वर्षों से मेरी पत्नी सदृश मेरे सभी नाज-नखडों को सहन करती हुई कदम-कदम पर मेरे साथ देते आयी है। इन पचपन वर्षों में न तो मैंने कभी पत्नी का दिल दुखाया और न इस दहेजुआ साइकिल का ही।
मेरे परिवारजन की सेवा में मेरी पत्नी की भांति मेरी यह दहेजुआ साइकिल सदैव ही संलग्न रही है। मेरी यह दहेजुआ साइकिल ने अपने स्वस्थ्य की कभी परवाह न कर मेरे वृद्ध माँ-पिताजी सहित गाँव के कई लाचार लोगों को बड़ी तत्परता के साथ कस्बे के डॉक्टर साहब के पास उनकी इलाज के लिए समय पर पहुँचाई है। बारी-बारी से ही सही, पर सैकड़ों मन अनाज खेत से घर तक, फिर घर से मीलों तक पहुँचाई है। कभी-कभी तो रिश्तेदारों के यहाँ भी अनाज की बोरियाँ पहुँचा आयी है। मेरे आज के पक्के मकान की हर एक ईंटें इसी पर लाद कर सड़क से लायी गई हैं। ट्रैक्टर तो बालू, सीमेंट, गिट्टी, लोहा आदि सब कुछ गाँव के बाहर ही सड़क के किनारे गिरा दिया करते थे। वहाँ से उन वस्तुओं को मेरी यही दहेजुआ साइकिल ने अपने ऊपर पर लाद-लाद कर मेरे घर तक पहुँचाई है, तब जाकर आज यह मेरा पक्का का मकान गर्व से खड़ा दिख रहा है। मेरी नौकरी दिलाने में भी इसकी बहुत बड़ी भूमिका है। नौकरी का बुलावा आया हुआ था। दुर्भाग्य से उस दिन जिले भर में अचानक हड़ताल हो जाने के कारण सभी सवारी बसें बंद थीं। तब इसी प्यारी दहेजुआ साइकिल के सहारे गाँव से अठारह मील दूर रेलवे स्टेशन पर मैं समय से पहुँच पाया और कलकाता शहर में जाकर अपना इंटरव्यू दे पाया था। तब जाकर मेरी नौकरी लगी थी। घर के नौनिहाल बच्चे यहाँ तक कि स्वयं कुंवर साहब भी अभी डेंग भी नहीं काढ़ पाते थे कि उन्हें यह अपने कंधे पर धारण कर अक्सर गांव की गलियों की सैर उन्हें करवाती रही। फिर तो उन्हें पढ़ने के लिए विद्यालय ही क्या, कालेज तक की यह साथी रही है। गाँव में किसी की व्याह-शादी, पर्व-त्योहार या फिर गमी होती, तो यह अपने हृदय की विशालता को प्रदर्शित कर रात-दिन सेवा-कार्य में बिन पारिश्रमिक के ही जुटी रहती। इसने कभी भी किसी की सेवा-कार्य से मुख नहीं मोड़ा। समयानुसार इसके कुछ कल-पुर्जे अवश्य बदले गए। तेल, ग्रीस, हवा, झाड़-पोंछ जैसे खुराक निरंतर पा कर यह हमेशा दुरुस्त रही और मेरे प्रति सदैव सेवा-भाव से तत्पर भी रही।
परंतु आज यह अपने सम्मुख नवागत बेशकीमती यांत्रिक वाहन ‘रॉयल इन्फिल्ड बुलेट 350’ फटफटिया को देख कर कुछ सशंकित अवश्य है, बिल्कुल मेरे ही जैसे। मैं भी नौकरी से सेवानिवृत्त हो कर मकान से सटे दालान की एक छोटी-सी कोठरी से ही बड़ी ही उपेक्षित दीनतावश दूसरों को नौकरी पर आते-जाते देखते रहता हूँ।
चुकी मेरी यह साइकिल ससुरालपक्ष से सम्बन्धित है, अतः इसके साथ मेरी आत्मियता पत्नी की आत्मियता-सी ही बनी हुई है। दोनों को ही मैंने अपने अंदाज से कभी कोई भी कष्ट होने न दिया हूँ। पत्नी के कराहने मात्र से ही डॉक्टर के पास ले जाने के लिए मैं सदैव उद्धत रहा, तो इसकी करूण चीत्कार सुन कर भी इसकी सेवा में मैं सदैव तत्पर ही रहा हूँ। भला मैं कैसे इसके उपकार को भूल जाऊँ?
लेकिन आज अपने पुत्र कुंवर साहब की बात को सुनकर मैं भी बहुत ही सशंकित हूँ। उन्होंने मुझे प्रस्ताव दिया कि इस पुरानी साइकिल को कबाड़ी के पास बेच दिया जाय। घर में ‘रॉयल इनफील्ड मोटर साइकिल 350’ के आ जाने के बाद घर में अब तो इसकी कोई उपयोगिता ही न रह गई है। इसकी पुरानी सूरत से अपने घर का ‘इमेज’ भी खराब होने लगा है। घर में अब इसको रखने भर की जगह भी तो न रह गई है। यह तो अब घर पर फटे पैबंद की भाँति है। पत्नी भी पास ही बैठी थी। मुझे तो लगा कि किसी ने मेरे हृदय पर किसी कठोर पत्थर से भीषण आघात ही कर दिया हो। पत्नी भी बहुत ही भारी हुए अपने सिर को धीरे से उठाई और बड़ी दीनता से मुझे देखने लगी। मैं जो समझ रहा था, शायद वह भी समझ ही गई थी। हम दोनों की बूढ़ी चारों आँखें निराशा युक्त कहीं अनंत में खो गईं। बड़ी मुश्किल से वह अपने पुत्र कुंवर से बोली, – ‘कोई भोजन थोड़े ही माँगता है, पड़ा रहने दो इसे किसी कोने में।’ हमें लगा कि मेरी पत्नी ने एक साथ कई गूढ़ बातें कह दी। शायद हमारे कुंवर साहब उसकी बातों में छुपी गूढ़ता को समझ जायेंगे। लेकिन हमारे कुंवर साहब के चेहरे पर दृढ़ निश्चयता कुछ और ही प्रबल हो गई।

अगले ही दिन सबेरे देखता हूँ कि एक कबाड़ी वाला द्वार पर खड़ा मेरी प्रिय दहेजुआ साइकिल को एक हथौड़े से पीट-पीट कर देख रहा था। जैसे कि कोई कसाई बकरे का भाव लगाने के पूर्व उसे टटोल कर देखता है, ‘कितना मांस है इसमें’? उसके हथौड़े की हर एक चोटें हम तीनों के ह्रदय पर पड़ रही थीं। एक तो बेचारी हर चोट पर शोर कर अपनी व्यथा को प्रदर्शित कर रही थी, परंतु अन्य ‘दो’ के हृदय पर पड़ते चोट की चीत्कार को सुन पाने का सामर्थ्य शायद वहाँ उपस्थित जनों में से किसी में न था।

घर पर लगे एक पुराने पैबन्द को हटा कर घर को तथाकथित ‘सभ्य’ कहलाने के लिए उपयुक्त दुरुस्त और चिकना कर दिया गया। अब बाकी अन्य दोनों पैबन्द अपनी-अपनी बारी के इंतजार में पड़े खिड़की से उस सूखे पेड़ को देख रहे हैं, जिसने कभी सुंदर पुष्पों-फलों से पशु-पक्षी, बच्चे-बूढ़े आदि सबको उपकृत किया करता था। पर आज लोग उसकी टहनियों को तोड़-तोड़ कर जलावन के लिए ले जा रहे हैं।

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