कॉप 27: कमज़ोर देशों के हितों के लिए हुआ एहम फैसला, नहीं हुई एमिशन पर रोक के लिए खास कार्यवाई

Climate कहानी। संयुक्त राष्ट्र की 27वीं जलवायु वार्ता, या कॉप 27, आज मिस्र में समाप्त हुई। जहां एक ओर इस सम्मेलन में जलवायु संकट के सबसे कमजोर लोगों पर असर को कम करने पर अहम फैसले लिए गए, वहीं इस वार्ता में ग्लोबल वार्मिंग के कारणों को दूर करने के लिए कुछ खास देखने या सुनने को नहीं मिला। इस कॉप में चर्चाओं के तराज़ू के एक पलड़े में अगर थी विकसित दुनिया की और अधिक मिटिगेशन महत्वाकांक्षा और जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार देशों की सूची का विस्तार तो दूसरे पलड़े में थी विकासशील देशों की बढ़ते जलवायु प्रभावों का सामना और उनसे निपटने के लिए वित्तीय और तकनीकी सहायता की मांग।  इस कॉप में तमाम समझौते हुए मगर ग्लासगो में तय हुए एमिशन कटौती की आधार रेखा को बमुश्किल छूया जा सका।

इस कॉप में एक अकल्पनीय पहल ज़रूर हुई। और वो थी जलवायु संकट के प्रभाव के कारण होने वाले “नुकसान और क्षति” से निपटने के लिए, 2023 में अगले कॉप से पहले, दुनिया के सबसे कमजोर जनसमूहों के लिए वित्तीय सहायता संरचना स्थापित करने की प्रतिबद्धता। इसे अकल्पनीय इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि कुछ ही समय पहले इस पर मजबूती से चर्चाओं का दौर शुरू हुआ था और कॉप में इस पर फैसला भी ले लिया गया। ध्यान रहे कि जलवायु परिवर्तन के चलते हानी की कीमत बढ़ कर $200 बिलियन हो चुकी है। एक चिंता की बात भी रही इस सम्मेलन में। इसमें भविष्य के ऊर्जा स्रोतों के रूप में रिन्यूबल के साथ “लो एमिशन या कम उत्सर्जन” वाले ऊर्जा स्ट्रोटोन पर चर्चा हुई।

इससे डर इस बात का है कि इस लो एमिशन जैसे अपरिभाषित शब्द की आड़ में नयी जीवाश्म ईंधन तकनीकों का विकास शुरू हो सकता है। कॉप 27 पर टिप्पणी करते हुए, उल्का केलकर, निदेशक, जलवायु कार्यक्रम, डब्ल्यूआरआई इंडिया, ने कहा, “नया लॉस एंड डेमेज कोष गरीब और कमजोर देशों के नागरिक समाज समूहों के लिए एक तरह की सुरक्षा की गारंटी है। एक और बढ़िया बात रही बहुपक्षीय विकास बैंकों को साफ संदेश दिया गया कि वह विकासशील देशों को कर्ज में डूबने के लिए मजबूर किए बिना उन्हें अधिक जलवायु वित्त प्रदान करें।

COP27 एक नया न्यायसंगत एनेर्जी ट्रांज़िशन कार्यक्रम भी बना है जो भारत जैसे देशों के लिए प्रासंगिक है, जिनके पास जीवाश्म ईंधन पर निर्भर क्षेत्रों में बड़े कार्यबल लगे हैं।” जिस तरह G20 का अंत युद्ध के खिलाफ एक मजबूत बयान के साथ हुआ, वैसे ही COP27 से अंत में सभी जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के लिए वर्तमान ऊर्जा संकट में एक शक्तिशाली प्रतिबद्धता दिखाई जा सकती थी। मगर इसके बजाय, यह केवल एक विविध ऊर्जा मिश्रण का आह्वान करता है, जो कि एक लिहाज से गैस के निरंतर विस्तार को बढ़ावा देता है।

आगे, IISD की वरिष्ठ नीति सलाहकार, श्रुति शर्मा कहती हैं, “यह निराशाजनक है कि COP27 ने COP26 के फैसलों पर आगे खास कदम नहीं बढ़ाए। ऐसा न होने से जीवाश्म ईंधन के फेजआउट पर एक मजबूत संदेश नहीं दिया जा सका। कॉप 26 ने अन्य बातों के साथ-साथ, कोयले के बेरोकटोक फेजडाउन के माध्यम से कम ऊर्जा प्रणालियों कि ओर बढ्ने के लिए पार्टियों से कहा था। भारत के प्रस्ताव के माध्यम से COP27 में उम्मीद थी कि कोयले के तेल और गैस सहित सभी जीवाश्म ईंधनों को धीरे-धीरे समाप्त किया जाए।

मगर भारतीय प्रस्ताव के इरादे के बावजूद, हम जानते हैं कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों के साथ चलने और 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान सीमा को पहुंच के भीतर रखने के लिए अब भारी उत्सर्जन में कटौती की आवश्यकता है। इसका मतलब है कि हमें तत्काल (1) कोई नया जीवाश्म ईंधन निवेश नहीं करने की प्रतिबद्धता की आवश्यकता है; (2) कोयले, तेल और गैस के वैश्विक उत्पादन और खपत में कमी के लिए ठोस योजनाएँ, और (3) इन सभी जीवाश्म ईंधनों के लिए सरकारी समर्थन को खत्म करने के लिए फैसले लेने होंगे।”

दुनिया पहले चरण में कोयले को कम करने और उसके बाद तेल और गैस की ओर मुड़ने का जोखिम नहीं उठा सकती है। इस इस वर्ष के कॉप में जीवाश्म ईंधन से दूरी पर खास ज़ोर नहीं दिखा और यह निराशाजनक बात है। अंत में क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक, आरती खोसला ने निष्कर्ष निकाला, “COP27 निगलने के लिए एक कठिन गोली कि तरह रही है, लेकिन अंत में अनुमान से अधिक प्रगति भी हुई है।

यह दर्शाता है कि सभी देश अभी भी इस प्रक्रिया में शामिल होने के इच्छुक हैं और इसका महत्व समझ रही हैं। वार्ताकारों ने भाषा पर बहस की है लेकिन बड़ी तस्वीर में दुनिया ने 1.5 डिग्री तापमान वृद्धि पर भाषा से समझौता न करके एक साल बर्बाद होने से बचा लिया है। इस कॉप को नुकसान और क्षति कोष बनाने के समझौते के लिए याद किया जाएगा।

कॉप ने प्रदर्शित किया है कि कैसे भू-राजनीति बदल रही है और प्रत्येक देश ने अपने हितों में काम किया है। नवीनीकरण के पैमाने को शामिल करने में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई है। देश सभी जीवाश्म ईंधनों को चरणबद्ध तरीके से कम करने पर सहमत होने से चूक गए। यह न सिर्फ ऊर्जा संकट पर प्रकाश डालता है बल्कि इस कॉप में और तेल और गैस लॉबी की पकड़ के बारे में भी बताता है।”

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