श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । भाद्रमास में कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि। रोहिणी नक्षत्र की काली अंधियारी लगभग मध्य रात्रि। आकाश में घने बादल। रह-रह कर बिजली की चमक और घनघोर वर्षा। मथुरा में कंश का बंदीगृह। सर्वत्र घोर सन्नाटा। लगभग सभी निद्रावश। केवल दो बंदी प्राणी आगे आने वाले समय के लिए चिंतित। अचानक बंदीगृह में तेज प्रकाशविम्ब उत्पन्न हुआ। जिसमें से शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए हुए दिव्य चतुर्भुज भगवान श्रीनारायण प्रकट हुए। उस बंदीगृह के केवल वही दोनों बंदियों ने ही उस दिव्य स्वरूप का दर्शन किया, – ‘देवकी और वासुदेव’। बाकी सभी तो गम्भीर निद्रा के आगोस में समाए हुए थे।
श्रीनारायण की पावन ध्वनि भी सिर्फ उन दोनों के ही कानों में गुँजित हुई, – ‘हे देवी देवकी! मैं तुरंत ही तुम्हारे गर्भ से नवजात शिशु के रूप में जन्म ग्रहण करूँगा। हे देव पुरुष वासुदेव! वर्तमान परिस्थितियों की चिंता न कर आप तुरंत ही मेरे शिशुरूप को गोकुल ग्राम में अपने मित्र नन्द जी के घर ले जाइएगा। वहाँ देवी यशोदा ने जिस माया रुपी कन्या को जन्म दिया है, उसके स्थान पर मुझे रख कर उस माया रुपी कन्या को आप यहाँ अतिशीघ्र लेते आइयेगा।’ और आदेश पूरा होते ही दिव्य प्रकाशपुंज लुप्त हो गया।
दोनों बंदियों को भ्रम हुआ कि कहीं उन्होंने कोई स्वप्न तो नहीं देखा। पर दिव्य प्रकाशपुंज के लुप्त होते ही माता देवकी की मधुर प्रसव पीड़ा अचानक बढ़ने लगी और जैसे ही मध्य रात्रि का बेला हुआ, ठीक तभी श्रीनारायण, माता देवकी के गर्भ से एक साधारण नवजात शिशु रूप में जन्म लिये । श्रीनारायण की मधुर कर्णप्रिय अल्प क्रुन्दन की ध्वनि सिर्फ माता देवकी और पिता वासुदेव के कानों में ही अमृतरस प्रवाहित की। उस कर्णप्रिय अमृत-ध्वनि में माता की सारी प्रसव पीड़ा जाती रही।
शिशु का स्वरूप ही मन की आशंका को निर्मूल कर दिया कि वह कोई स्वप्न न था। लेकिन वासुदेव जी तो अभी तक इसी चिंता में विमग्न ही थे कि इन मजबूत जंजीरों से बंधित मैं प्रभु की आज्ञा का पालन भला कैसे करूँगा? पर यह क्या? तुरंत ही मजबूत जंजीरें स्वतः ही खुल गए और पिता वासुदेव मुक्त हो गए। बंदीगृह के दरवाजे भी एक-एक कर स्वतः खुलते ही गए। तत्काल बंदीगृह में कोई उपयुक्त वस्तु न पाकर लाचार पिता वासुदेव जी ने पत्नी देवकी के ही वसन के एक टुकड़े में अपने नवजात ईश्वरीय शिशु को लपेट दिया और फलों के लिए रखी एक पुरानी टोकरी में ही सावधानी से उसे रख अविलम्ब ईश्वरीय आदेशानुसार गोकुल ग्राम के लिए चल दिया।
बेचारी सद्य:प्रसूता माँ देवकी अपने जन्मा को भर निगाह देख भी तो न पाई थी। पर अपने शिशु पुत्र की रक्षा और ईश्वरीय आदेश में ही विधाता की हेतु को समझ कर वह अपने कलेजे पर पत्थर रख कर उसकी मंगल कामना करते हुए उसे पिता संग विदा की। माँ का विशाल हृदय हर कष्ट को सह कर भी अपनी सन्तान की रक्षा ही चाहता है। देवी देवकी भी तो एक माता ही थी!
वासुदेव जी, भाद्रमास के अतुलित वर्षाजल को धारण किये गर्व से उफनती यमुना के तट पर अपने शिशु पुत्र के साथ पहुँच गए। यमुना के इस भयंकर स्वरूप को देखकर वे ठिठक ही गए। उन्हें अपनी चिंता न थी, पर शिशु की चिंता तो थी ही । अपने पति श्रीनारायण को इस शिशु रूप में भी दूर से ही देखकर यमुना उन्हें पहचान गई थी। फिर उनके चरण को स्पर्श करने के लिए प्रतिपल व्यग्र होने लगी। पर यमुना के इस अशांत रूप को देखकर वासुदेव जी को विचलित होना स्वाभाविक ही था। तभी श्रीनारायण की वही पूर्व ध्वनि उनके कानों में फिर गुँजित हुई, – ‘वर्तमान परिस्थितियों की चिंता न कर आगे बढ़ते जाएँ।’ – और वासुदेव एक साधारण टोकरी में त्रिलोक के स्वामी को अपने माथे पर धारण किये यमुना के उफनती जल में प्रवेश किये।
शेषनाथ भी शायद उस निर्धारित योजना के अनुकूल प्रभु सेवा के लिए यमुना-जल में पहले से ही तैयार बैठे थे। तुरंत छत्रप-सा तनकर प्रभु-सेवा में लग गए। पर बेचारी यमुना क्या करे? इतने करीब होकर भी अपने स्वामी के चरण-स्पर्श से दूर! उसकी व्यग्रता उछाल लहरों के रूप में बदलने लगी। फिर भी अपने स्वामी का चरण-स्पर्श करने में सफल न हो पा रही थी। जल-तल की बढ़ती गहराई के साथ ही साथ यमुना की व्यग्रता वासुदेव जी को डुबोती ही जा रही थी। पहले कमर, फिर कन्धा डूबा, फिर मुँह-नाक और आँखें भी डूब गए। अब तो उनका सिर भी जल तल होने लगा।
कहीं नवजात ईश्वरीय शिशु को यमुना जल न डुबो देवे। पर यमुना अपने उद्देश्य की प्राप्ति में और ऊँची उछाल भरने लगी। शायद टोकरी में अठखेलियाँ करता शिशु उन दोनों की परीक्षा ही तो ले रहा था। तब ईश्वरीय शिशु ने शायद अपनी प्रिया यमुना की व्यग्रता को शांत करने के लिए अपने कोमल चरण को धीरे से टोकरी में से नीचे लटका दिया। अपने पति के कोमल चरण को स्पर्श कर यमुना मानो तृप्त हो गई और वासुदेव जी के मार्ग पर निरंतर घटती हुई उन्हें सुगम मार्ग प्रदान करने लगी। व्यथित पिता इस रहस्य को न समझ सका। उस समय उस रहस्य को समझने की उनकी कोई उत्कंठा भी न थी, उत्कंठा तो अतिशीघ्र गोकुल ग्राम पहुँचने की थी।
यमुना को पार कर वासुदेव जी उसे धन्यवाद अवश्य ही दिए। यमुना भी अन्तः भाव से ही शिशु स्वरूप अपने स्वामी श्रीनारायण जी से पुनः दर्शन देने का निवेदन की। शिशु टोकरी में से ही मंद-मंद मुस्कुराते हुए यमुना को आश्वस्त किया, – ‘तुम्हारे बिना तो मेरी बाल-लीलाएँ अधूरी ही रह जाएगी, प्रिये! मैं तुम्हारे करीब ही समस्त बाल क्रीड़ाएँ करते हुए तुम्हें सुख पहुँचाऊँगा।’
उस काली अंधियारी बरसती रात्रि में वासुदेव जी गोकुल में अपने मित्र नन्द के द्वार पर पहुँचे। वहाँ के भी सभी बंद दरवाजे स्वतः ही खुलते गए। सभी लोग यहाँ तक कि उनके मित्र नन्द जी और सद्य:प्रसूता यशोदा जी भी गम्भीर निद्रा में बेसुध पड़े हुए दिखाई दिए। वासुदेव जी अपने मित्र और उनकी पत्नी को मन ही मन प्रणाम किये और ‘प्रभु कार्य’ में अविलंब प्रसूति-गृह में प्रवेश कर बहुत ही सावधानी से अपने शिशु पुत्र को यशोदा के पास की माया रुपी पुत्री के पास रख दिए। माया पुत्री अपनी कोमल आँखों से आगत शिशु को देखी और शिशु रूप में श्रीनारायण को पहचानकर मन ही मन उन्हें प्रणाम कर प्रभु कार्य में स्वयं को भागी मानकर गर्व महसूस की। तब तक वासुदेव जी उस माया पुत्री को अपने गोद में उठा लिये थे। एक बार मन हुआ कि अपने शिशु पुत्र को मन भर देख तो लेवें, पर पुत्र प्रेम बढ़ने और विलम्ब होने के डर से उससे मुख मोड़कर द्रुतगति से उस गृह से निकल पड़े। बरसाती रात्रि में गिरते-बचते पुनः मथुरा के बंदीगृह पहुँच गए।
वासुदेव जी मन ही मन सोच रहे थे कि उनके भीगे और कीचड़ से सने वस्त्रों से उनकी और ईश्वर की चाल पकड़ ली जाएगी। बंदीगृह के सभी दरवाजे अभी भी खुले ही पड़े थे। एक-एक कर दरवाजे को पार करते गये और वे दरवाजे भी एक-एक कर स्वतः ही बंद होते गए। बंदीगृह में पहुँचते ही माया रुपी यशोदा-नंदिनी को उन्होंने जैसे ही देवी देवकी के अंक में रखा, वैसे ही कारा की मजबूत बेड़ियाँ पुनः उनके हाथ-पैर को बंधित कर दीं। उनके वस्त्र पूर्व की भांति सूखे और कीचड़हीन हो गए। उस मुख्य बंदीगृह का दरवाजा भी स्वतः ही बंद हो गया। फिर उस बंदीगृह में नवजात शिशु की क्रुन्दन की कर्णप्रिय मधुर ध्वनि गूँज उठी, जिससे बंदीगृह के रक्षकगण भी गम्भीर निद्रा से अचानक जाग गए।
बंदीगृह का रक्षक-प्रमुख दौड़ पड़ा अपने महाराज कंश को सूचना देने। कुछ समय में ही मथुरा नरेश कंश उस बंदीगृह में काल के विकराल स्वरूप में उस बंदीगृह में प्रकट हुआ। अपनी बहन देवकी के अंक से उस नवजात शिशु को पूर्व की भाँति जबरन छिन लिया। कुछ गौर किया, यह क्या? यह तो नवजात कन्या शिशु है। पर उससे हत्यारे को क्या? उसे तो बस आकाश वाणी का वही उवाच स्मरण था, – ‘देवकी की आठवीं संतान ही तेरा काल है।’ उसने विधाता पर क्रूर अट्टहास किया, – ‘तो बहन देवकी की आठवी संतान, तू रूप बदल कर मेरा काल बनकर आयी हो।’ अब भला वह पापी-हत्यारा कंश इस बालिका रूपी अपने सम्भावित काल को कैसे छोड़ सकता है? इस बालिका की मौत ही उसके संभावित अमरत्व का आधार है।
अतः वह पूर्व आदतन उस शिशु कन्या को भी पास की बड़ी चट्टान पर पटक मारने के लिए उसे ऊपर की ओर उछाला। पर यह कैसी विडम्बना हुई? वह कन्या शिशु ऊपर उठती ही गई। फिर गगन भेदी कठोर ध्वनि में कही, – ‘पापी हत्यारा कंश! तुम्हारा काल जन्म ले चूका है। वह जल्द ही तुझे तेरे पापों का उचित दंड देगा। बचा सकते हो तो, बचा लो अपने आप को।’ – और वह माया शिशु अगले ही पल अंतर्ध्यान हो गई। हतभागा कंश उपेक्षा में अपने पैर को पटकते हुए बंदीगृह से बाहर निकल गया। व्यथित माता देवकी और पिता वासुदेव उस परम शक्ति को स्मरण कर अपने हाथों को जोड़े प्रणाम किए, जिसके कारण उनका नवजात पुत्र इस धरती पर जीवित रहेगा और दुष्टों का सर्वनाश करेगा।
“श्री कृष्णचन्द्र कृपालु भजु मन, नन्द नन्दन यदुवरम्
आनन्दमय सुखराशि ब्रजपति, भक्तजन संकटहरम्।”
‘जय श्रीकृष्ण’
(कृष्ण जन्माष्टमी उत्सव, भाद्रमास, कृष्णपक्ष, अष्टमी तिथि)
श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 1
पश्चिम बंगाल
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com