पुस्तक समीक्षा पंडित दीनदयाल उपाध्याय: राष्ट्रवादी पत्रकारिता के पुरोधा

पंडित दीनदयाल उपाध्याय: राष्ट्रवादी पत्रकारिता के पुरोधा

डॉ सुनीता

अपिकल बुक एजेंसी
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दूरभाष 7042255675

  • पत्रकारिता में राजनीति और शासन चिंतन के वर्तमान आयाम

राजीव कुमार झा : पंडित दीनदयाल उपाध्याय को आजादी के बाद देश की संसदीय राजनीति में दक्षिणपंथी विचारधारा का पुरोधा माना जाता है। उन्होंने एकात्म मानववाद के सिद्धांत के प्रतिपादन से देश में समाज और शासन को लोकतंत्र के सच्चे आदर्शों की ओर उन्मुख किया और पूंजीवादी- समाजवादी विचारधारा के उथल पुथल के दौर में भारत को एक देश के रूप में अपने इतिहास अपनी संस्कृति के जीवनादर्शों के अनुरूप अपनी राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना पर जोर दिया।

वह महान देशभक्त थे और उनके विचारों में राष्ट्र की सनातन संस्कृति और सभ्यता की अस्मिता और उसकी पुनर्स्थापना के भावों के अलावा भारतभूमि के समस्त निवासियों के कल्याण की उत्कट सोच सदैव समाहित रही।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम को यहां के सभी लोगों का पावन कर्म मानते थे और ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ भारत के विभाजन का प्रसंग सदैव उनके हृदय को व्यथित करता रहा और एक राष्ट्र के रूप में भारत की एकता और अखंडता का सवाल सदैव उनको सबसे संवाद की ओर उन्मुख करता रहा।

अपने संक्षिप्त जीवन काल में उन्होंने इसलिए की पत्र – पत्रिकाओं की शुरुआत की और पत्रकारिता को अपने जीवन का मिशन बनाकर अपने ज्वलंत विचारों से देश की समकालीन राजनीति को गहराई से अनुप्राणित किया। डॉ सुनीता की पुस्तक ” पंडित दीनदयाल उपाध्याय: राष्ट्रवादी पत्रकारिता के पुरोधा ” इस संदर्भ में प्रामाणिक तथ्यों का विवेचन करती है और देश की वर्तमान राजनीति से जुड़े मुद्दों का सारगर्भित लेखा जोखा प्रस्तुत करती है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय के पत्रकारिता कर्म को अपनी विषय-वस्तु का आधार बनाकर डॉ सुनीता की लिखी इस पुस्तक में आजादी के बाद देश की राजनीति में कांग्रेस के वर्चस्व और राष्ट्रीय महत्व के तमाम मुद्दों पर उसकी ढुलमुल नीतियों के बरक्स राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दिशा निर्देशन में जनसंघ की स्थापना के साथ यहां राजनीति की नयी धारा के विकास और उसके सम्यक वैचारिक प्रवाह का सहज विवरण प्रस्तुत पुस्तक को बेहद पठनीय पुस्तक का रूप प्रदान करता है।

लेखिका ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय को राष्ट्रवादी पत्रकारिता का पुरोधा संबोधन पद से प्रस्तुत पुस्तक के शीर्षक में संबोधित किया है। इसका अर्थ आशय स्पष्ट है। दीनदयाल उपाध्याय संकीर्ण विचारों के व्यक्ति नहीं थे और भारत की राष्ट्रीयता को वह सदैव यहां के धर्म पंथ और समुदाय की समन्वित जीवन चेतना का अजस्र प्रवाह मानते थे।

Book Review: Pandit Deendayal Upadhyaya: Pioneer of Nationalist Journalism

उन्होंने अपने जीवन काल में अपने कुछ अभिन्न वैचारिक सहयोगियों के साथ पांचजन्य, राष्ट्रधर्म और स्वदेश इन तीन पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन और संपादन किया।

प्रखर पत्रकार के रूप में अपने संपादकीय लेखों और स्तंभों के माध्यम से उन्होंने राष्ट्रीय – अंतर्राष्ट्रीय विषयों और मुद्दों पर सदैव देशहित को सर्वोपरि मानकर अपने विचारों को निर्भीकतापूर्वक प्रकट किया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारत की सनातन संस्कृति के उपासक थे और यहां की उदार जीवन परंपरा के तत्व उनके पत्रकारीय चिंतन में सदैव दृष्टिगोचर होता रहा और इसने वर्तमान पत्रकारिता की कुत्सित व्यावसायिक मनोवृत्ति से उपजे संस्कारगत भटकावों की कुहेलिका में जन-मानस को राष्ट्र और इससे जुड़े मुद्दों को लेकर स्पष्ट मार्गदर्शन देकर भारत को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने में प्रमुख भूमिका निभाई।

डॉ सुनीता ने इस पुस्तक में हिंदी पत्रकारिता के प्रति पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अवदान की विवेचना में इन सारे प्रसंगों को रोचकता से समेटा है ।

पुस्तक के प्रारंभ में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की संक्षिप्त प्रेरक जीवन कथा को भी लेखिका ने भावपूर्ण शैली में प्रस्तुत किया है। अपनी समग्रता में यह सारी पुस्तक पठनीय प्रतीत होती है और इसमें पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों के आलोक में लेखिका समकालीन भारतीय राजनीति के महत्वपूर्ण विषयों की विवेचना में भी तल्लीन दिखाई देती है।

इस पुस्तक की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता के रूप में इस तथ्य को देखा जाना चाहिए। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने अंग्रेजी भाषा में आर्गनाइजर नामक एक पत्र का प्रकाशन भी शुरू किया। 1948 में कांग्रेस की तत्कालीन सरकार के द्वारा पांचजन्य और दीनदयाल जी के द्वारा प्रकाशित पत्र पत्रिकाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया लेकिन इन परिस्थितियों में भी उनका मनोबल कायम रहा। अंततः सरकार को झुकना पड़ा और इन पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ।

Book Review: Pandit Deendayal Upadhyaya: Pioneer of Nationalist Journalism
डॉ सुनीता

आजादी के बाद पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने अपने चिंतन और मनन से राजनीति में स्वस्थ आलोचना की परंपरा को प्रारंभ किया और भारत के बहुदलीय लोकतंत्र में कांग्रेस के समानांतर देशहित में नहीं विपक्ष के रूप में राजनीतिक दल के रूप में लोक संगठन के विकास के कार्यों में वह संलग्न रहे।

इसका रचनात्मक प्रभाव आज भारतीय राजनीति में बेहद सकारात्मकता से दृष्टिगोचर हो रहा है। यह सब उनके जीवन संकल्प और कठोर अध्यवसाय का परिचायक है। डॉ सुनीता की प्रस्तुत पुस्तक पंडित दीनदयाल उपाध्याय की इस सारस्वत साधना का विस्तृत और प्रामाणिक लेखा जोखा प्रस्तुत करती है।

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