‘जब तक सूरज चाँद रहेगा, बिराज तेरा नाम रहेगा‘…. ‘भारत माता की जय’ की गगन भेदी आवाज करते हजारों लोगों के बीच शहीद बिराज का पार्थिव शरीर तिरंगा से ढका एक ताबूत में फौजी गाड़ी से उतर कर साथ आये फौजियों के कंधें पर सवार हुआ और घर की ओर प्रस्थान किया। कुछ समय के लिए गगन-भेदी आवाज थम-सी गई। चारों ओर एक गम्भीर सन्नाटा पसर गया। फिर थोड़ी ही देर में गंभीर नारों का बदहवासी दौर। उसके अतिरिक्त अब कुछ भी सुनाई नहीं देता है, – ‘जब तक सूरज चाँद रहेगा, बिराज तुम्हारा नाम रहेगा’….. ‘भारत माता की जय‘………
गलवान घाटी का एक भारतीय सैनिक पोस्ट, 15 जून की गम्भीर रात, अचानक चीनी सेना ने गोला-बारी शुरू कर दी। बिराज सहित कई भारतीय सैनिक चीनी शत्रु सेना का जम कर मुकाबला किये। चीनी सेना के कोई 17 सैनिक मारे गए, परन्तु भारतीय सेना के भी 6 जवान पुण्य-वेदी पर शहीद हुए, जिनमें से एक ‘बिराज’ भी था।
वंशीधर बाबू की आँखों के अश्रू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे, अन्तः उद्वेग से सारा बदन ही कम्पन कर रहा था। लगभग यही हाल वहाँ पर उपस्थित सब लोगों की थी। घर के भीतर आँगन में जाने की उनकी हिम्मत न हो पाई। कुछ समय बाद ही उस आँगन से निकलती ह्रदय-विदारक चीखें और सम्मिलित दारुण क्रुन्दन के स्वर वहाँ के चतुर्दिक वातावरण को गमगीन और अश्रुपूर्ण सन्नाटा में बदल दिए। घण्टें भर बाद ही शहीद बिराज बाँस की ठठरी पर केसरिया रामनामी ओढ़े घर से अपनी अनंत यात्रा पर निकला। अब तो लगा कि अश्रू से प्रलय ही आ जाएगा। कोई कुछ कह पाने में असमर्थ केवल आँसू से सराबोर। कुछ दूर खड़े नवयुवक दल ही नारे लगा रहे थे – ‘जब तक सूरज चाँद रहेगा, बिराज तेरा नाम रहेगा’ ‘भारत माता की जय’
और फिर शहीद बिराज का वह पार्थिव शरीर अंतहीन यात्रा पर हजारों लोगों के साथ चल पड़ा।
कुछ वर्ष पहले की सारी बातें वंशीधर बाबू के मन-मस्तिष्क में किसी स्वचालित चलचित्र की भांति स्पष्ट हो चला। वह रेलयात्रा, रात्रि का समय दो बर्थों के बीच फर्श पर लेटा हुआ युवक बिराज।
‘अरे भाई! इस तरह से तुम यहाँ लेटे रहोगे तो हम लोग टॉयलेट आदि के लिए कैसे जाएंगे। उठो भाई! कहीं और जाकर लेटो।’
कुछ लाचारी से वंशीधर बाबू ने दो बर्थों के बीच सोये हुए एक अजनबी युवा यात्री से कहा।
वंशीधर बाबू सपत्नी साईं बाबा के दर्शन हेतु यात्रा पर थे। रात में जब ट्रेन चली थी, तब उनके आस-पास की सीटें या बर्थों के अनुकूल ही यात्री थे। बल्कि कई बर्थ तो खाली ही पड़ी हुई थीं। हो सकता है, बाद के स्टेशनों से उन खाली बर्थों के यात्रीगण चढ़े हो। अब तो स्लीपर क्लास की गलियारों में भी कई यात्री सोये और बैठे हुए थे, जो दूसरे अन्य यात्रियों की जरूरत पर निकल पाने में बाधक ही हुए थे। जो अक्सर यात्री बोगी में देखने को मिलता है।
बासठ वर्षीय वंशीधर बाबू बेचारे करते तो आखिर क्या करते? उन्हें तो रात्रि में भी कई बार पेसाब के लिए जाना पड़ता है। शुगर, प्रेशर के साथ प्रोस्टेट की बीमारी से ग्रस्त। सामने की बर्थ पर ही उनकी पत्नी निश्चिन्त गम्भीर निद्रा में लेटी हुई थीं। (1)
लेकिन दोनों बर्थों के बीच फर्श पर अनायास लेटे हुए एक अनचाहा युवा यात्री से उन्हें खास परेशानी हो रही थी। उन्होंने फिर उसे जगाने की कोशिश की, ‘अरे भाई! उठो, जरुरत पड़ने पर लोग कैसे आएंगे और जाएंगे।’
सोया हुआ युवा यात्री कुछ किनारे घसक कर नींद के अवसाद में ही बैठ गया। वंशीधर बाबू किसी तरह से गिरते-बचते गए और निपट कर वापस लौट आये। देखा बीस-बाईस वर्ष का एक लड़का बैठा ऊँघ रहा है। वंशीधर बाबू ने पूछा, ‘क्यों जी, कहाँ जान है ?’
‘नासिक’ नींद की खुमार में ही उस अनचाहा युवा यात्री ने कहा।
‘कहाँ से चढ़े?’
‘रायगढ़ से। ‘
‘तब तो तुम्हें बहुत दूर जाना है। जाओ, कहीं और सीट या बर्थ का इंतजाम कर लो।’
‘बहुत कोशिश की, पर न मिला। आप निश्चित हो कर सोये। आप लोगों को कोई कष्ट न होने दूँगा।’
‘क्या करूँ, रात में दो तीन बार टॉयलेट जाना पड़ता है। ऐसे में बार-बार तुम्हें लाँघ कर जाऊँ, यह भी तो अच्छा नहीं लगता। क्या वहाँ कोई काम-धाम करते हो?’ बातों का सिलसिला चल पड़ा। वंशीधर बाबू की बातों में जिम्मेवार अभिभावक के भाव झलकने लगे।
‘जी, मेरा सलेक्शन इंडियन आर्मी में एक जवान के रूप में हुआ है। तीन दिन पूर्व ही मुझे अचानक जॉइन करने की सूचना मिली। कोशिश करने पर भी रिजर्वेशन न मिल पाया। पहुँचना जरूरी था, चल पड़ा। किसी तरह से पहुँच ही जाउँगा।’ उस युवक की बातों में कुछ लाचारी और कुछ आत्मविश्वास के भाव झलक रहे थे।
देशहित की बातों पर अक्सर वंशीधर बाबू भावुक हो जाय करते हैं। देशभक्ति की गीत-कविता आदि अक्सर उनकी आँखों को डबडबा दिया करती हैं। अचानक उन्हें अपना छोटा भाई कन्हैया का स्मरण हो आया। बड़ा ही पारिवारिक भक्त था, वह। देश सेवा की ललक उस पर ऐसी सवार थी, जिसे उनके माता-पिता और वे स्वयं भी न रोक पाये थे।
99 के कारगिल की लड़ाई में बहादुरी पूर्वक पाकिस्तानी शत्रु-सेना से लड़ता हुआ वह भारतभूमि की गोद में सदा-सदा के लिए सोकर शहीद हो गया। जब उसका शहीदी निष्प्राण शरीर उनके गांव में पहुँचा था। तब उसके प्रति सम्मान जताने के लिए दूर-दूर से हजारों की संख्या में लोग पहुँचे थे।
उस समय उसकी उम्र भी क्या थी, मात्र 26 वर्ष। दो महीने बाद ही तो उसकी शादी होना तय किया गया था। पर किसे मालूम था कि वह अपनी अनंत विदाई बारात में अनायास हजारों को बिना आमन्त्रित किये ही जुटा लेगा। नाच-गाना और बैंड-बाजे के स्थान पर सबको गमगीन बना कर ‘कन्हैया अमर रहे’ के गगनभेदी नारों के साथ कभी न लौट कर आने वाले अनंत राह पर चल पड़ेगा।
वंशीधर बाबू बहुत दिनों बाद यह सब पुराने अखबार के पन्नों में देख कर जान पाये थे। कन्हैया के शहीद होने के दिन से उस दिन तक तो बेचारे बदहवास कभी माता की मूर्छा छुड़वाते, तो कभी पिता की। कुछ नहीं पता था कि कौन आया और कौन गया ? सरकार द्वारा उसकी वीरता को सम्मानित भी किया गया था।
यह सब कुछ उस समय अचानक वंशीधर बाबू के मस्तिष्क में कौंध गया।
‘तुम्हारा नाम क्या है ?
‘जी, बिराज, बिराज कुमार शर्मा।’
‘तो तुम देश की सेवा के लिए तैयार होने जा रहे हो। बहुत खुशी की बात है पर, अब तुम नीचे से उठो।’
‘लेकिन अंकल जी क्या हुआ? मैं आपको कोई कष्ट न होने दूँगा, आप विश्वास रखिये।’ कुछ असमंजस में कहा ‘नहीं, अब तुम नीचे फर्श से उठो’ अचानक उनकी आवाज आदेशसूचक हो गई। बेचारा युवक कुछ न समझ पाया कि अचानक इन्हें क्या हो गया? ऐसा व्यवहार क्यों ?
‘अब तुम नीचे फर्श पर नहीं सोओगे। उठो, मेरा यह बर्थ अब तुम्हारा हुआ। तुम आराम से मेरे इस बर्थ पर लेटो।’ आवाज में बड़ी ही वात्सल्यता और विनम्रता झलकने लगी। ‘लेकिन आप? लेकिन आप, कहाँ सोयेंगे?’ (2)
‘देश-सेवा की तुम्हारी निश्चयता ने मेरी नींद पूरी कर दी। आज तुम आराम करोगे, तब न कल तुम देश और हमारे लिए रात-रात भर जागोगे।’ ‘पर आराम की आवश्यकता मुझसे कहीं अधिक आपको है। मुझे इस फर्श पर कोई तकलीफ नहीं है, आप अपने बर्थ पर लेटिये।’ ‘बेटा! तुम बर्थ पर जा लेटो।’ यह आवाज थी, वंशीधर बाबू की पत्नी सुभाषिनी की। नाम के अनुकूल ही ममतामयी मृदुल वाणी। पर नाम के अनुकूल ऐसा व्यवहार बहुत कम में ही देखने को मिलता है।
‘मैं देर से तुम दोनों की बातें सुन रही हूँ बेटा! बर्थ पर जा कर लेट जाओ, ये न मानेंगे।’ ‘लेकिन आंटी जी, अंकल बड़े और बुजुर्ग हैं यह कैसे हो सकता है कि मैं बर्थ पर आराम करूँ और अंकल जी फर्श पर नहीं, मैं यहीं ठीक हूँ। अंकल जी आप आराम करिए।’
वंशीधर बाबू प्रेमपूर्वक उसके हाथ को पकड़े उसे जबरन अपने बर्थ पर बैठा दिया और फिर उसे लिटा दिया, जबकि स्वयं उसके पाँव के पास गलियारे की ओर बड़े ही इत्मिनान से बैठ गए।
बिराज को अब नींद कहाँ आ रही थी। अब तो उसके मन-मस्तिष्क में इन अपरिचित पर अजूबे दम्पति सहयात्री के प्रति कृतज्ञता का बोध आ केंद्रित हुआ था खैर, उनकी बातों को सम्मान देने के लिए वह बर्थ पर ही पड़ा रहा। कुछ समय पश्चात दोनों को ही नींद आ गई। गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकी हुई थी।
‘चाय, चाय, गरम-चाय’ की अपनी स्वाभाविक रट लगता हुआ एक चाय वाला गलियारे में आया।
‘कौन सा स्टेशन है भाई।’ वंशीधर बाबू ने अनायास पूछ लिया।
‘बिलासपुर। चाय दूँ क्या?’
‘नहीं, अभी नहीं चाहिए।’
जब उस युवक की नींद खुली तो उसने देखा कि रात्रि के हठी, परन्तु आदरणीय बुजुर्ग और उनकी पत्नी तथा अन्य एक और यात्री सामने की सीट पर बैठे हैं। वह उठना चाहा।
‘उठो मत। अभी तुम सोओ। रात में बड़ी देर से सोये हो।’
‘नहीं अंकल, मेरी नींद पूरी हो गई……. मेरी वजह से आपलोगों को कष्ट हुआ। सॉरी अंकल।’ ‘कैसी बाते करते हो?’ यह कोमलता और वात्सल्यता से युक्त श्रीमती की बोली थी। ‘अंकल कह कर अपनापा दिखाते हो, और हमें कष्ट होने की बातें कहते हो। तुम मेरे बेटे के समान हो। तुम परेशानी में रहो और हम सुख भोगे, यह कैसे हो सकता है?’ ऐसे उच्च विचार और अपनापा वालों से शायद उसकी पहली मुलाकात थी अन्यथा, लोग तो दूसरों के सीट या बर्थ ही क्या उनके अधिकार तक छीन लेने में भी कोई कसर न छोड़ते हैं।
‘जाओ बेटा, मुँह-हाथ धो लो।’ श्रीमती जी की वात्सल्य युक्त मधुर प्यार भरा आदेश था, जिसे वह इंकार न कर पाया। बिराज तो समझ ही नहीं पा रहा था कि क्या करे, क्या न करे। वह चुपचाप उठा और चला गया।
अब तक तो बिराज उनका पारिवारिक सदस्य बन चुका था। उनके खाने-पीने के सारे सामान पर अब वह भी बराबर का भागीदार बन चुका था। वह तो मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दे रहा था। चाय-पानी से लेकर भोजनादि तक ऐसा कुछ भी नहीं, जिसे जबरन उसे उपभोग न करना पड़ा हो। क्या, आज भी ऐसे सज्जन और प्रेमी हृदय लोग हैं? हैं क्यों नहीं, तभी तो सबका पेट भर रहा है। शाम के समय गाड़ी नासिक रोड स्टेशन पर पहुँची। ‘जाओ बेटे! ट्रेनिंग पूरा कर सम्मानजनक पद को प्राप्त करना।’ और जैसे अपने पुत्र को विदा कर रहे हों, अश्रुपूर्ण नेत्रों से उस दम्पति ने उसे विदा किये। जब तक गाड़ी आगे नहीं बढ़ी, तब तक बिराज भी देवदूत सदृश उन दोनों को एकटक देखते हुए परमानंद को प्राप्त कर रहा था। यही थी बिराज से वंशीधर बाबू की पहली मुलाकात। फिर तो कभी चिट्ठी, कभी मोबाइल से अक्सर बातें होती ही रहती थी। उनमें परस्पर एक आत्मीयता का रिश्ता जुड़ गया था, जो अक्सर देखने को नहीं मिलता है।
और सचमुच वंशीधर बाबू का उस दिन का यह सहयात्री ‘बिराज’ आज पूरे राष्ट्रीय सम्मानजनक पद को प्राप्त कर लौटा है, जो किसी बिरले को ही प्राप्त होते हैं, जिसकी आगवानी और अंतिम विदाई हजारों लोगों ने अपने अश्रू के साथ दी। वंशीधर बाबू उस दिन भी बिराज को नम आँखों से विदा किये थे और आज भी उसे अश्रुपूर्ण आँखों से विदाई दी। (3)
आज भी गाँव के बाहर एक बड़ा-सा मैदान है। उसके दक्षिण सिरे पर एक सुंदर-सा चबूतरा बना है और उस पर बिराज का आदमकद प्रस्तर की मूर्ति नौजवानों में देश-प्रेम की भावना को निरंतर प्रसारित कर रहा है। उस चबूतरे के चतुर्दिक पार्श्व में अंकित स्पष्ट शब्द दूर से ही झलकते हैं, -‘जब तक सूरज चाँद रहेगा, बिराज तेरा नाम रहेगा’….. ‘भारत माता की जय’