भिखारी ठाकुर जयंती विशेष : भिखारी ठाकुर और उनका ‘बेटी-बेचवा’ नाटक

श्रीराम पुकार शर्मा हावड़ा। आज भी भोजपुरी भाषा और भोजपुरी संस्कृति संबंधित जब ही कोई बात होती है, तो गँवई वेश-भूषा धारक एक दुबला-पतला, नाक पर बड़े फ्रेम का गोल चश्मा चढ़ाए अपने मासूम चेहरे वाले ‘भिखारी ठाकुर’ हमारे सम्मुख अनायास ही उपस्थित हो जाया करते हैं अर्थात, उस देहाती अभिमान रहित भिखारी ठाकुर के बिना भोजपुरी भाषा और भोजपुरी संस्कृति न केवल अधूरा, वरन बेजान-सी प्रतीत होती है। भिखारी ठाकुर का समयकाल अनगिनत सामाजिक कु-प्रथाओं और कु-वृतियों से युक्त भोजपुरी और बिहारी समाज था।

वह उससे अनभिज्ञ न थे। बल्कि उन्होंने उसे बहुत ही करीब से और बहुत ही गंभीरता से देखा-परखा था। उन्होंने भी अन्य समाज सुधारकों की भाँति ही समाज को सुधारने का बीड़ा उठाया, परंतु लठमार पद्धति से नहीं, बल्कि कोमल दृष्टव्य और श्रवणव्य रंगमंच से। उन्होंने अपने नाटकों और नृत्यों के माध्यम से समाज को सहला-सहलाकर न सिर्फ कठोर कुठाराघात ही किया, बल्कि लोगों के मन-मस्तिष्क को आंदोलित कर उन्हें उससे सचेत करते हुए बहुत हद तक उबारने का भी कार्य भी किया है।

इसीलिए साधारण-सा दिखने वाले भिखारी ठाकुर को कृतज्ञतावश विद्वजनों ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी समर्थ लोक कलाकार, रंगकर्मी, लोक-गीत के ‘अनगढ़ साधक’ और समग्र रूप में ‘भोजपुरी के शेक्सपियर’ के रूप में सम्मानित किया है। लोक संस्कृति के अनगढ़ साधक और ‘भोजपुरी के शेक्सपियर’ भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसम्बर 1887 को बिहार के छपरा जिले के कुतुबपुर (दियारा) के कोढ़ावापटी, रामपुर गाँव के निवासी दलसिंगार ठाकुर और शिवकली देवी के विपन्न आँगन में हुआ था। पारिवारिक विपन्नता के अनुरूप ही विपन्न बाप ने बालक का नाम ‘भिखारी’ रखा।

नाम के अनुरूप ही भिखारी ठाकुर की पारिवारिक स्थितियाँ भी थी, जिसमें चल सम्पति के नाम पर बापूतिक कैची-कंघी, नोह-कटनी तथा अचल सम्पति के रूप में बरसात में पानी चूते और बाकी समय आकाश के तारें झाँकते फूस के टूटे छप्पर वाली झोपड़ी और अत्यल्प परिमाण में खेती की जमीन मात्र ही थी। पढ़ाई में भिखारी को जरा भी मन न लगता था।

पूरे साल भर में पूरा ‘ककहारा’ भी तो न सिख पाया था। लेकिन ग्रामीण गीतों-गानों पर भिखारी के कोमल हाथ-पैर बचपन से ही अवश्य ही थिरकने लगे थे। ऐसे में पारिवारिक जिम्मेवारी स्वरूप उसको होश संभालते ही गरीब पिता ने उसके हाथों में पुश्तैनी औजार, यथा – कैची-कंघी, नोह-कटनी आदि को पकड़ा दिया।

कुतुबपुर बा गाँव, ह भिखारी ठाकुर नाँव।
बाबू भईया सब केहू के परत बानी पाँव॥
जात के नाऊ गेयान ह थोरा। लाज राखहूँ नन्द किशोरा॥

भिखारी ठाकुर के हाथों कैची-कंघी भले ही लोगों के हजामत बनाने लगे, परन्तु प्राप्ति के नाम पर उन्हें ‘ढेला’ भी नहीं मिलता, पर ग्रामीण परिवेशनुकूल गालियाँ पर्याप्त मात्रा में अवश्य ही मिल जाया करती थीं। अतः कुछ बड़े होने पर भिखारी पास के गाँव के लोगों की देखा-देखी जीविकोपार्जन के लिए गाँव की गलियों और पगडंडियों को छोड़ जा पहुँचे बंगाल के खड़गपुर में। यहीं पर ‘रामलीला’ में उनको अपने जीवन संबंधित उपयुक्त राह दिखाई दी।

फिर तो उन्होंने अपने पुश्तैनी कैची-कंघी-छूरा-नोह कटनी को अपने जीवन से अलविदा किया और अपने गाँव में ही लौट कर 1917 में अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर एक ‘नाटक मण्डली’ बनायी और ग्रामीण अंचल में पर्व-त्योहार पर नौटंकी और रामलीला आदि खेलने लगे।

भिखारी ठाकुर संत कबीर के समान ही ‘पढे हुए कम, पर गढ़े हुए’ अधिक थे। उनकी पैनी ‘गढ़े’ नजर से तत्कालीन भोजपुरी और बिहारी सामाजिक विसंगतियाँ ओझिल न सकीं। फिर तो उन्होंने समाज में व्याप्त बेरोजगारी, अशिक्षा, दहेज-प्रथा, बाल-विवाह, बेमेल विवाह, जातिगत विभेदता, गरीबी, शोषण, अत्याचार, पारिवारिक विघटन आदि पर समय-समय पर अपनी सधी हुई कलम को दौड़ने लगा।

फिर तो अपनी मातृभाषा भोजपुरी में ही अपनी आँखों देखी सामाजिक विद्रूपताओं पर मन की अभिव्यक्ति को कई नाटकों में अभिव्यक्त किया। उनका बार-बार मंचन भी किया। जिनमें बिदेसिया, भाई-विरोध, बेटी-बेचवा, गबरघिचोर, विधवा-बिलाप, पुत्र-बध, बिरहा-बहार, कलयुग-प्रेम, नकल भाड़ अ नेटुआ आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।

‘बिदेसिया’ नाटक के उपरांत ‘बेटी-वियोग’ जो ‘बेटी-बेचवा’ नाम से भी प्रसिद्ध हुआ है, भिखारी ठाकुर का बहुत ही चर्चित नाटक रहा है। यह नाटक सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं, जिसमें समाज में गरीबी और महिला सशक्तिकरण के अंधेरे पक्ष को बखूबी से दर्शाता हैं। पैसे के अभाव में गरीब माँ-बाप अपनी सुकुमार बेटी को अमीर के पास या तो बेच देते थे या फिर जबरन वृद्धों के साथ बाँध देते और उससे सदा के लिए अपना मुँह फेर लिया करते थे।

फिर उनकी दर्द भरी क्रंदन को सब कोई अनसुना कर दिया करता था। ‘बेटी-बेचवा’ नाटक का कथानक ‘उपतो’ नामक किशोरी के जीवन के इर्द-गिर्द घुमता रहता है। परिवार की दयनीय आर्थिक स्थिति के कारण पिता चटक और माँ लोभा के लिए अपनी किशोरी बेटी उपतो की शादी करना मुश्किल लगा। ऐसे में दोनों ने उपतो को किसी अमीर परिवार के घर बेचने का फैसला कर लिया।

उपतो के पिता चटक ने ‘बकलोलपुर’ नामक गाँव के एक बहुत ही अमीर, पर वृद्ध और अविवाहित ‘झंटुल’ नामक व्यक्ति से अपनी किशोर बेटी उपतो की शादी तय कर दिया और उसके बदले में उससे ढेर पैसे ले लिये। जब बारात उपतो के द्वार पर पहुँची, तो दूल्हे को देखकर गाँववाले सभी हैरान रह जाते हैं। दूल्हे के रूप में एक बूढ़ा आदमी, जिसके मुँह में दाँत और शरीर पर माँस-पेशियाँ तक नहीं हैं। गाँव की महिलायें व्यंग्यात्मक गीत गाती हैं –

‘चलनी के चालल दुलहा सूप के फटकारल हे,
कलछुल के दागल, बकलोलपुर के भागल हे।
आम लेखा पाकल दुलहा गाँव के निकालल हे,
अइसन बकलोल बर चटक देवा का भावल हे।’

उपतो की माँ लोभा अपनी बेटी को बेचना तो चाहती थी, लेकिन किसी बूढ़े दूल्हे के हाथ नहीं। किसी तरह उसने शादी हो जाने दी और उपतो झंटुल के घर चली गई। शादी के बाद चटक अपनी बेटी उपतो से मिलने जाता है। बेटी अपने पिता से पूछती है कि उसने ऐसी क्या गलती की कि उसे ये सब झेलना पड़ रहा है। लालची चटक के पास अपनी बेटी के प्रश्न का कोई उत्तर न था। कुछ दिनों के बाद उपतो अपने माता-पिता के पास अपने मायके आई।

उसके पीछे ही उसका वृद्ध पति झंटुल भी पहुँचता है। पर उपतो उसके साथ न जाना चाहती है। पंचायत बैठती है। पंचायत ने यह निर्णय दिया कि चूंकि उपतो की शादी झंटुल के साथ हो चुकी है अब वह उसकी पत्नी है, इसलिए अब उसे इस जन्म में उसी के साथ ही निभाना पड़ेगा। उपातो की माँ लोभा अपनी बेटी की इस हालत के लिए उसके पिता चटक को जिम्मेदार ठहराती हैं, उसको धिक्कारती है।

दहेज और उपयुक्त साधन के अभाव में तत्कालीन समाज में लोग बेटी के जन्म को अपशकुन मानते थे। लोग उस जन्मी बेटी के पिता के प्रति सहानुभूति दिखा-दिखा कर उसे अभागा सिद्ध करने जैसे उपक्रम किया करते थे। कारण पितृसत्ता समाज में बालिकाओं या महिलाओं के लिए कोई सम्मानित जगह न थी। उनके जीवन में कोई स्वतंत्रता भी न थी। वह तो भाग्य के भरोसे ही जीती और मरती थी। वह किसी चल या अचल सम्पति की सामाजिक या न्यायिक मालकिन न थी।

कुंवारी कन्या के रूप में वह पिता के आधीन रहती, पत्नी बनकर वह पति के आधीन रहती और माँ के रूप में वह अपने पुत्र के आधीन में ही रहती थी। तत्कालीन समाज में लड़कियों और घर की महिलाओं को के लिए बंद चारदीवार को ही पर्याप्त माना जाता था। इस प्रकार महिलायें स्वयं जग ‘जननी’ होते हुए भी वह सर्वत्र ही गुलाम, परावलंबी और सभी सम्पति से दूर थी। उन बंद चारदीवारों से आती महिलाओं की घुटन भरी सिसकियों को भिखारी ठाकुर ने अपने कानों से सुना था और उनकी दयनीय स्थिति को गंभीरता से देखा भी था।

ऐसी विकृत सामाजिक-प्रथा और ममताहीन पितृसत्ता के विरोध में अनगिनत सवाल कालजयी रचनाकार भिखारी ठाकुर ने अपने ‘बेटी-बेचवा’ नाटक के माध्यम से उठाया, जिसका समाज पर व्यापक प्रभाव भी पड़ा था। ‘बेटी-बेचवा’ नाटक प्रदर्शन के उपरांत उन्होंने अपने दर्शकों को रोते हुए देखा था। सन् 1962 में कोयला अंचल धनबाद के लायकदीप में उन्होंने अपने नाटक ‘बेटी-बेचवा’ का मंचन किया था।

अगले दिन ही वहीं के एक मंदिर में भगवान शिव जी को साक्षी मानकर सैकड़ों लोगों ने रोते हुए संकल्प लिया कि न तो वे अपनी बेटी को बेचेंगे ही, न ही किसी अधेड़ के साथ उनका अनमेल ब्याह ही करेंगे। यह बात दूर-दूर तक पहुँची और एक सामाजिक आंदोलन का शक्ल धारण कर ली। इस प्रकार भिखारी ठाकुर सच्चे अर्थ में एक लोक सेवक और समाज सुधारक थे।

यह बात अलग है कि विविध सामाजिक ज्वलंत विषयों पर नाट्य रचना गढ़ने और उसे अभिनीत करने के क्षेत्र में गढ़े हुए भिखारी ठाकुर को अपने नाटकों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए कई महिला कलाकारों की आवश्यकता होती थी। लेकिन उस सामाजिक दौर में महिलाओं को उनके बंद कमरे और उनके घूँघटों से निकालकर लोगों के समुख किसी स्टेज पर लाना मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव ही था।

अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने पुरूषों को ही महिलाओं की तरह वेशभूषा पहनाकर लोगों के सम्मुख स्टेज पर पहुंचाया और उनसे नारी अनुकूल अभिनय करवाया, जो ‘लौंडा-नाच’ शैली के रूप में प्रसिद्ध हुआ। भोजपुरी और बिहारी दर्शकों ने उनके इस परिकल्पित विशेष शैली को सहर्ष स्वीकार किया। परंतु अब कमसिन लड़की-महिला नर्तकियों-कलाकारों की मनचाही सर्वसुलभता के कारण भिखारी ठाकुर द्वारा प्रचलित ‘लौंडा नाच’ शैली की पहचान मिटती ही जा रही है।

आज भी भोजपुरी लोक-संस्कृति और लोक-संवेदना में भिखारी ठाकुर इस तरह से रच-बस गए हैं कि किसी भी तरह के विकसित संचार मीडिया या बाजारवाद उन्हें भोजपुरी समाज से अलग नहीं कर सका है और शायद भविष्य में अलग कर भी नहीं पाएगा। भिखारी ठाकुर अपनी सामाजिक कालजयी रचनाओं के द्वारा ही स्वयं को ‘भविष्यद्रष्टा साहित्यकार’ होने का प्रमाण दे देते हैं। भोजपुरी साहित्य के मर्मज्ञ और ‘सरस्वती’ पत्रिका के सहायक संपादक श्री महेश्वराचार्य ने भिखारी ठाकुर के संबंध में कहा है, – ‘भिखारी की शोभा रंगमंच पर होती थी।

वह रंगमंच के बादशाह थे। स्वांग के क्षेत्र में उतर कर वह किसी भी विषय का जीता जागता स्वरूप रंगमंच पर खड़ा कर देते थे।’ देहाती कथानक, लोकहित, अभिनय, प्रदर्शन आदि सर्वगुण सम्पन्न प्रतिभावान के प्रस्तोता और जन्म-जन्मान्तर नौटंकी करने की प्रबल इच्छा रखने वाले सबको हँसा-हँसा कर लोटपोट करने वाले लोक कलाकार भिखारी ठाकुर 10 जुलाई 1971 को चौरासी वर्ष की आयु अपनी आखरी साँस ली।

(भिखारी ठाकुर जयंती, 18 दिसम्बर, 2023)

श्रीराम पुकार शर्मा

श्रीराम पुकार शर्मा
ई-मेल सम्पर्क – rampukar17@gmail.com

ताज़ा समाचार और रोचक जानकारियों के लिए आप हमारे कोलकाता हिन्दी न्यूज चैनल पेज को सब्स्क्राइब कर सकते हैं। एक्स (ट्विटर) पर @hindi_kolkata नाम से सर्च कर, फॉलो करें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

one × one =