‘भरत चरित करि नेमु, तुलसी जो सादर सुनहिं।
सीय राम पद पेमु, अवसि होई भव रस बिरति।।’
श्रीरामचारित मानसकार भक्त शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं, – ‘जो कोई भी श्रीभरत जी के पावन चरित्र को नियम से आदरपूर्वक सुनेगा, उसका अवश्य ही श्रीसीतारामजी के पावन चरणों में प्रेम-भक्ति जागृत होगा और वह सांसारिक विषयादि भावना जनित रस से वैराग्य को प्राप्त होगा।’
श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। कई बार मैंने अपनी अल्प-बुद्धिमता के अनुसार प्रातः स्मरणीय गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ का अध्ययन-मनन किया है, कई बार दूरदर्शन पर प्रसारित ‘रामायण’ तथा ‘रामकथा’ से संबंधित कई धारावहिकों को भी देखा है। परंतु हर बार मेरा मन ‘अयोध्याकाण्ड’ के ‘श्रीराम-भरत मिलाप’ प्रसंग में आकर रम जाता है। देव सदृश ज्ञानी मुनिवर वशिष्ठजी के आदेश पर अपने अस्वस्थ नाना अश्वपति जी से मिलने के लिए कैकेय प्रदेश गए कैकयी नंदन भरत और सुमित्रा नंदन शत्रुघ्न को अतिशीघ्र ही अयोध्या बुलाया गया। राह भर में कई अपशगून होते रहे। सियार आदि बोलते मिलें। ये सभी सांकेतिक क्रियाएँ दशरथ-नंदनों के मन में किसी अनहोनी घटना की शंका जगा रही थीं। फिर अयोध्या की निस्तब्ध गलियाँ और वासियों की अपने प्रति सशंकित निगाहें दोनों राजकुमारों को और अधिक बेचैन कर रही थीं। पूछने पर सभी उनकी ओर से अपना मुँह फेर ले रहे थे। आज के पूर्व उन्होंने कभी उनमें अपने प्रति ऐसी वितृष्णा, उपेक्षा और मौन-मूकता न देखी थी। मन में अंतर्द्वंद्व की तथा हृदय की धड़कन प्रतिपल तीव्र हो रही थी। उनके मन में सैकड़ों प्रश्न एक-एक कर तेजी से जागृत हो रहे थे, पर उत्तर के बिना वे सभी वाष्प सदृश हवा में कहीं विलीन होते जा रहे थे। विविध प्रश्नों का तेज बवंडर उन दोनों राज-पुत्रों के विचलित मन को अपने साथ किसी अंतहीनता में उड़ाये लिये जा रहा था।
‘खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला॥
श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा॥’
उस सुनहले राजकीय रथ के सुसज्जित पुष्ट घोड़े अतिशीघ्र ही अयोध्या के राजप्रासाद के सिंहद्वार पर पहुँचकर स्वतः ही थम गए। उनके साथ ही उस रथ के शीर्ष पर लहराता सूर्य चिन्हित केसरिया गर्वीला पताका भी शांत होकर स्थिर हो गया। अपनी नगरी में सर्वत्र ही व्याप्त गंभीर काली निशा समान घोर सन्नाटा उन दोनों रघुकुल-संतति के अन्तः में उत्पन्न व्यग्रता को उनके चेहरे पर चिंता की गंभीर रेखाएँ चिन्हित कर रही थी। दोनों राज कुमार राजप्रसाद तो पहुँचे गए, परंतु उनके स्वागत में आज द्वारपाल व राजप्रसाद सेवकगण पूर्व की भाँति जरा-सा भी हर्षित न हुए, बल्कि शोकाकुल अपने सिर को झुकाए मौनमूक खड़े ही रहे। कैकेयी नंदन भरत कारण जानना भी चाहे, पर सब के सब उत्तर विहीन मौन ही रहे थे। सामने राजप्रासाद की लंबी अलंकृत गलियारा सूना-सूना श्रीविहीन दिखी। बिना पल गँवाए पूर्व की भाँति ही दोनों राजपुत्र ‘भैया रामजी! भैया रामजी!’ पुकारते हुए द्रुतगति से सूने राजप्रासाद में प्रवेश किए।
सामने ही आरती की थाल सजाए गर्विली माता कैकयी मिली। दंडवत-प्रणाम के उपरांत ही भरत ने राजमहल में फैली उदासी के रहस्यों को जानना चाहा। अनुज शत्रुघ्न तो आगे बढ़ गए। रानी कैकयी बड़ी चतुराई से अपने अभिनय पूर्ण नेत्रों से कुछेक अश्रू-कण गिराती हुई अपनी विगत करनी का गर्वपूर्वक बखान करती हुई बोली, – ‘वत्स! मंथरा दासी की सुंदर सलाह पर मैंने अयोध्या के राजा बनने के अनुकूल तुम्हारे मार्ग को बाधाहीन प्रशस्त कर दिया है। राम को चौदह वर्षों के लिए वनवास भेजवा दिया है। पर क्या कहूँ? इसी बीच विधाता ने कुछ अप्रिय खेल खेलकर काम को थोड़ा बिगाड़ दिया है। पुत्र-शोक में काल के वश में होकर महाराज देवलोक गमन कर गए।’
अपनी माता कैकेयी की कुटिल बातों, पिता तुल्य भ्राता श्रीराम का वन गमन और उनके परिणाम स्वरूप अपने पिता महाराज दशरथ की मृत्यु की बात सुनते ही भरत की मानों हृदयगति ही थम गईं। कंठ अवरुद्ध हो गया। जिह्वा पत्थर सदृश कठोर हो गया। पैर सैकड़ों मन भारी हो गए। कंधे पर से उत्तरी गिर कर भूमि पर पसर गई। उनकी आँखें आश्चर्य में फटी की फटी रह गईं और उनके आगे काली अंधियारी-सी छा गई। आँखें हृदय की प्रबल व्यथा को पिघलाकर अश्रूधार में उसकी दग्धता को क्षीण करने की कोशिश करती, पर सफल न हो पा रही थीं। भरत ‘हे तात! हे तात!’ के कारुणिक चीत्कार करते हुए भूमि पर लोट गए।
सुनत भरतु भए बिबस बिषादा। जनु सहमेउ करि केहरि नादा॥
तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी॥’
भरत का हृदय विदीर्ण हो गया। आत्मग्लानि की अग्नि अन्तः में प्रज्ज्वलित हो गईं। उनके कारण ही पिता तुल्य भ्राता श्रीराम वन गमन किए और पिता गोलोक सिधारे। माता की करनी ने उन्हें कहीं का न छोड़ा । उस अग्नि की लपट से उन्होंने अपनी माता कैकेयी को भी झुलसा दिया। उसे धिक्कारते हुए उन्होंने कहा, – ‘तू मेरे सुख की कल्पना में निज हाथों मेरा सर्वस्व स्वाहा कर दी है। तू माता के रूप में कुमाता है। विधाता ने क्यों मुझे श्री राम भैया से विरोध रखने वाले तेरे निष्ठुर हृदय से उत्पन्न किया? मेरे समान पापी इस संसार में दूजा कोई और न होगा। पिताजी की आत्मा स्वर्ग में हैं। मुझ पर पिता तुल्य प्रेम लुटाने वाले श्री राम भैया वन में हैं। मैं अभागा अयोध्या के राजप्रासाद में कठिन दाह, दुःख और दोषों का भागी बना हूँ। मुझे धिक्कार है! जो पाप माता-पिता और पुत्र की हत्या करने से होते हैं। जो गोशाला और ब्राह्मणों के नगर जलाने से होते हैं। उसी पाप का आज मैं भागी बन गया हूँ।’
‘पितु सुरपुर बन रघुबर केतू। मैं केवल सब अनरथ हेतू॥
जे अघ मातु पिता सुत मारें। गाइ गोठ महिसुर पुर जारें॥’
परंतु माता कौसल्या जी भरत के उस निश्छल हृदय से पूर्ण परिचित थी, जिसमें सदा श्रीराम ही बसते हैं। चन्द्रमा चाहे भले ही विष चुआने लगे, पाला भले ही आग बरसाने लगे, पर भरत के हृदय में सदा श्रीराम ही बसते हैं। भरत तो अपने भ्राता श्रीराम को अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है। इसके लिए माता कौसल्या जी को किसी प्रमाण या फिर कोई परीक्षा की आवश्यकता न थी। माता कौसल्या जी से यह जानकर भरत जी का मन कुछ हल्का हुआ।
‘राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे॥’
वाह रे, काल की क्रूर योजना! इस दारुण विपत्ति काल में भरत जी की स्थिति किसी अबोध बालक-सी हो गई, जिसकी अपनी कुछ भी बोधता ही न हो। किसी चेतना विहीन यंत्र के समान भरत जी गुरुश्रेष्ठ मुनि वशिष्ठ जी के आदेश को सिरोधार्य कर अपने स्वर्गीय पिता की अंत्येष्टि-कर्म हेतु प्रवृत हुए। पवित्र सरयू नदी के किनारे गुरु वशिष्ठ द्वारा चयनित ‘बिल्वहरि घाट’ पर पवित्र चंदन के साथ ही सुगंधित द्रव्यों से सुंदर चीता बनाई गई, जिस पर महाराज दशरथ के पार्थिव शरीर को व्यवस्थित कर पवित्र अग्नि को समर्पित कर दिया गया। चिताग्नि की पवित्र लपटों और उसके सुगंधित धूँएँ की सीढ़ियों के सहारे उनकी आत्मा गोलोक गमन की। फिर वेद, स्मृति और पुराण के अनुकूल भरत जी ने अपने पिता का दशगात्र विधान भी सम्पन्न किया।
‘एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही। बिधिवत न्हाइ तिलांजुलि दीन्ही॥
सोधि सुमृति सब बेद पुराना। कीन्ह भरत दसगात बिधाना॥’
उचित अवसर देखकर श्रेष्ठ मुनि वशिष्ठ जी ने सभी मंत्रियों, दरबारियों और महाजनों को राज दरबार में आमंत्रित किया। महाराज दशरथ को उन्होंने बड़भागी बताते हुए शोकाकुल भरत को नीति और धर्म सम्मत बहु उपदेश दिया और पित्राज्ञा पालन करने का परामर्श दिया, – ‘वत्स दशरथनंदन भरत! महाराज को रघुकुल की परंपरा के अनुरूप वचन प्रिय थे, प्राण प्रिय कदापि न थे। महाराज ने तुम्हें राजपद प्रदान किया है। तुम्हारे जैसे पुत्र का धर्म है कि अपने दिवंगत पिता के वचन की सत्यता को प्रतिष्ठित करे, जिन्होंने वचन-पालन के लिए ही अपने प्रिय ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को त्याग दिया तथा राम-विरह में अपने प्राण को त्याग दिया।’
‘रायँ राजपदु तुम्ह कहुँ दीन्हा। पिता बचनु फुर चाहिअ कीन्हा॥
तजे रामु जेहिं बचनहि लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी॥’
समय में विचित्र शक्ति समायोजित रहती है। वह दिवंगत स्वजन के कारण हृदय में उत्पन्न बड़े से बड़े आघात को क्रमशः क्षीण कर उसे विस्मृत कर व्यक्ति विशेष को उसके स्वाभाविक जीवन की ओर प्रवृत कर देता है। यही यथार्थ सत्य भी है। क्रमशः बीतते समय के साथ ही कैकेयी नंदन भरत जी के बुद्धि-विवेक में भी प्रगति हुई। पितृ और भ्राता वियोग में संतप्त भरत जी उस सभा में उपस्थित सभी श्रेष्ठजनों को सादर पूर्वक अपना निर्णय सुनाया, – ‘श्रद्धेय गुरुवर और अयोध्या नगर के विशिष्ठजन! मै राजगद्दी पर नहीं बैठूँगा, कभी नही! इस राजगद्दी पर आप सब के प्रिय मेरे भ्राता श्रीराम जी को ही बैठने का अधिकार है। इस पर बैठना तो दूर, बैठने की बात भी सोचना भी मेरे लिए महापाप है। आप सभी मुझे अयोध्या के इस राज सिंहासन पर आसीन होने पर मेरा कल्याण समझते हैं, जो रंचमात्र भी सत्य नहीं है। मेरा कल्याण, तो सीतापति श्री रामजी की सेवा में है, जिसे मेरी माता की कुटिलता ने मुझसे छीनकर मुझे विपन्न कर दिया है। अतः आप सभी मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं अपने आराध्यदेव श्रीराम जी के पास ही जाऊँ। उनकी सेवा करने में ही मेरा हित है।
‘हित हमार सियपति सेवकाईं। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाईं॥
जाउँ राम पहिं आयसु देहू। एकाहिं आँक मोर हित एहू॥’
तत्पश्चात आगत गुरुजनों, ज्ञानिजनों, सभासदों तथा महाजनों से उपयुक्त विचार-विमर्श कर भरत जी अपने भ्राता श्रीराम जी को वापस अयोध्या लाने के लिए चित्रकूट के लिए प्रस्थान करते हैं। श्रीराम द्वारा वनगमन मार्ग को ही अपनाते हैं। उनके देव तुल्य भ्राता श्रीराम जी के कोमल पग जहाँ-जहाँ पड़े थे, वहाँ-वहाँ पहले भरत जी के चरण पड़े और पीछे अन्य जनों के। उन्होंने वहीं-वहीं विश्राम किया, जहाँ उनके मन मंदिर के देव ने विश्राम किया था। ऐसे ही व्यथित भरत जी तमसा तट पर रामचौरा, निषादराज गुह का शृंगवेरपुर, कुराई, प्रयाग संगम आदि स्थलों के पावन राम-चरण-धूलि को अपने शीश से लगाते हुए गंगा नदी को पार कर चित्रकूट पहुँचे गए।
भ्राता श्रीराम की पावन कुटिया में प्रवेश करते ही भरत जी अपने हर्ष-शोक, दु:ख-दाह आदि सब कुछ भूल गए और ‘हे नाथ! मेरी रक्षा कीजिए। हे गुसाई ! मेरी रक्षा कीजिए’ की रट लगाते हुए धरणी पर गिर पड़े। यह सुनते ही श्रीराम जी भरत प्रेम से व्यग्र हो उठे। फिर उनका वस्त्र कहीं गिरा, तरकस कहीं, धनुष कहीं गिरा और बाण कहीं। वे बेसुध दौड़कर अनुज भरत को उठाकर अपने हृदय से लगा लिये। दोनों के तन-बदन अश्रू-जल से आप्लावित हो गए। उस पावन महामिलन के साक्षी बने, वहाँ पर उपस्थित सभी जड़-चेतन। उनके प्रेमातुर बहते अश्रू-धार को देख वहाँ पर उपस्थित समस्त चराचर विह्वल हो जाते हैं। वे सभी अपनी निजता को भूलने पर विवश हो जाते हैं।
‘भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान॥’
चित्रकूट की शांत और गंभीर सभा में व्यथित हृदय भरत जी ने अपने आराध्य श्रीराम को अपने प्रति उनके पूर्व प्रदर्शित अथाह प्रेम को स्मरण दिलाते हुए कहते हैं, – हे प्रभु! आप पिता, माता, मित्र, गुरु, स्वामी, पूज्य, परम हितैषी, अन्तर्यामी और शरणागत की रक्षा करने वाले हैं। हे देव! आप मेरी एक विनती सुन लीजिए। राजतिलक की सब सामग्री सजाकर लाई गई है। इसे आप स्वीकार कीजिए और अयोध्या लौटकर सबको सनाथ कीजिए।’ फिर बहुविधि से प्रेम दिखाकर उन्होंने श्रीराम जी को अयोध्या लौट चलने के लिए आग्रह किया। तब श्रीराम जी ने भरत जी को संबोधित कर भरी सभा में कहा, – ‘हे भरत! तुम्हारा नाम स्मरण करने से ही समस्त पापों और अमंगल का नाश हो जाता है। इस जग में सुंदर यश और परलोक में सुख की प्राप्ति होता है।’
जबकि चित्रकूट में आगत गुरुजन, परिजन, ज्ञानिजन, श्रेष्ठजन आदि ने श्रीराम को पारिवारिक, सामाजिक, आध्यात्मिक और राष्ट्रहित की दृष्टि में सुतर्क देते हुए अयोध्या वापस लौट चलने के लिए आग्रह किया। पर ‘रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाई पर वचन न जाई’ की अनवरत सुदृढ़ परंपरा का निर्वाहन करते हुए अपने दिवंगत पिता महाराज दशरथ द्वारा प्रदत ‘वचन’ की रक्षा हेतु श्रीराम ने उन सब प्रेमियों के आग्रह को सादर अस्वीकार कर दिया। उन्होंने भरत और अयोध्यावासियों के प्राणों की रक्षार्थ कृपा कर दो सबल पहरेदार स्वरूप अपनी खड़ाऊँ भरत जी को प्रदान की।
‘प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं। सादर भरत सीस धरि लीन्हीं॥’
मुनि, तपस्वी, वनदेवता आदि सबको बार-बार प्रणाम करके अपने भ्राता रघुकुल की मर्यादा-रक्षक श्रेष्ठ श्रीराम जी के आदेश का पालन करते हुए उनके प्रति अपनी प्रीत को दर्शाते हुए रामानुज भरत जी ने उनके पैरों के खढ़ाऊ को अपने शीश पर सादर धारण कर अयोध्या के बाहर और अपने समाधिस्थ पिता महाराज दशरथ के करीब ‘नंदीग्राम’ लौटे आए। वहीं पर एक साधारण कुटिया का निर्माण कर उसमें सिंहासन समतुल्य एक आसान निर्मित किया और उसपर श्री राम जी के खड़ाऊँ को सादर स्थापित कर स्वयं को उनका प्रतिनिधि स्वरूप मानकर 14 वर्षों तक उस कुटिया की भूमि पर बैठ और शयन करते हुए साकेत साम्राज्य के प्रजा हितकारी सुदृढ़ राज-शासन का संचालन करते रहें।
श्रीराम जी के प्रति प्रेम-पराकाष्ठा के पुनीत दर्शन सर्वाधिक भरत-चरित्र और भरत के कार्य के माध्यम से प्राप्त होते हैं। यह होता है भ्रातृत्व-प्रेम! जिसमें सर्वत्र ही अनुपम त्याग की झाँकी ही दिखाई देती है। स्वार्थ का नामोनिशान तक नहीं। आजकल कहाँ चला गया, वह भ्रातृत्व प्रेम? भारतीय सनातन संस्कृति में तो बड़ा भाई पिता समान ही होता है। उनकी आज्ञा का सभी अनुज पालन करते हैं तथा सभी उनका सम्मान करते हैं। पैसों या भौतिकता के पीछे कोई भाई, अपने भाई का हत्यारा बने, यह संस्कृति तो हमारी है ही नहीं।
हमारा यह भौतिक शरीर ही स्वर्ग, नरक, मोक्ष, ज्ञान, वैराग्य व भक्ति प्राप्ति के साधन की गुरुत्व सीढ़ी है। व्यक्ति इस शरीर रूपी सीढ़ी को जिस कर्मगत आधार से लगा देता है, वह वहीं पहुँच जाता है। परंतु उस सीढ़ी पर ऊर्ध्वमुखी गमन के लिए कर्म रूपी पुरुषार्थ की ही आवश्यकता होती है। पुरुषार्थ के बिना फल या फिर सफलता की प्राप्ति असंभव है। भरत जी स्वयं को श्रीराम का एक सेवक मानकर ही उनके राज्य का संचालन अपने बुद्धि-बल-विवेक युक्त पुरुषार्थ के बल पर करते हैं। चतुर्दिक सुख-शांति और उत्कर्ष का राज व्याप्त रहता है। कारण स्पष्ट है, भरत जी अपने पुरुषार्थ स्वरूप कर्म की सफलता के मूल में कदापि अपनी विशेषता को न देख, केवल अपने आराध्य श्रीराम जी की ही कृपा मानते हैं। उनका यही निःस्वार्थ कर्म रूपी पुरुषार्थ उन्हें श्रीराम जी के लिए लक्ष्मण से भी अधिक प्रिय बना देता है। यही उन्हें अमरत्व को प्रदान करता है।
वर्तमान समय में भरत-चरित्र की बहुत अधिक प्रयोजनीयता है। जिस स्वार्थ के कारण आज जहाँ एक भाई दूसरे भाई से दुश्मन सरिके व्यवहार करता है। वहीं भरत चरित्र में त्याग, संयम, धैर्य और भ्रातृत्व-प्रेम उन्हें श्रीराम के स्वरूप को प्रदान करता है। भरत का पावन चरित्र सिद्ध करता है कि मनुष्य जीवन में भाई व ईश्वर के प्रति यदि प्रेम और त्याग नहीं है, तो मनुष्य होकर भी वह जानवर सदृश ही है।
रामकथा में भरत जी ही एक ऐसे पात्र हैं, जिनमें स्वार्थ व परमार्थ दोनों को समान दर्जा प्राप्त हुआ है। स्वार्थ है भी, तो वह अपने भ्राता श्रीराम के सुख की चिंता से संबंधित है। परमार्थ है भी, तो वह भी श्रीराम से ही सम्बन्धित है। भरत जी का एक-एक प्रसंग धर्म का सार तत्व है। क्योंकि भरत का सिद्धांत निज सुख की प्राप्ति नहीं, बल्कि राम-प्रेम अर्थात जगत-प्रेम की प्राप्ति मात्र है। इसलिए भरत जी का चरित्र हम, आप और सबके लिए सदैव अनुकरणीय है तथा सदैव अनुकरणीय रहेगा भी।
श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व स्वतंत्र लेखक
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com
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