युग प्रवर्तक बाबू भारतेंदु हरिश्चन्द्र का जन्म 9 सितम्बर सन् 1850 को काशी के प्रसिद्ध ‘सेठ अमीचंद’ के वंश में हुई थी। इनके पिता बाबू गोपाल चंद भी कवि थे। भारतेन्दु जी ने मात्र पांच वर्ष की अवस्था में ही काव्य रचना कर सभी को आश्चर्य चकित कर दिया था। बाल्यावस्था में ही माता-पिता की छत्र-छाया उनके सिर से उठ जाने के कारण उन्हें उनके वात्सलय से वंचित रहना पड़ा अत: उनकी स्कूली शिक्षा में भी व्यवधान पड़ गया। इन्होंने घर पर ही अपने लगन से हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी फारसी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं का अध्ययन किया। 13 वर्ष की अल्पायु में ही उनका विवाह हो गया।
इन्हें आधुनिक हिंदी साहित्य का पितामह कहा जाता है। भारतेन्दु हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। जिस समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का अविर्भाव हुआ, देश ग़ुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। अंग्रेज़ी शासन में अंग्रेज़ी चरमोत्कर्ष पर थी। शासन तंत्र से सम्बन्धित सभी कार्य अंग्रेज़ी में ही होता था। अंग्रेज़ी हुकूमत में पद लोलुपता की भावना प्रबल थी। भारतीय लोगों में विदेशी सभ्यता के प्रति आकर्षण था। ब्रिटिश आधिपत्य में लोग अंग्रेज़ी पढ़ना, समझना और बोलना गौरव की बात समझते थे। हिन्दी के प्रति लोगों में आकर्षण कम था, क्योंकि अंग्रेजों की नीति से हमारे साहित्य पर भी बुरा असर पड़ रहा था और हमारी संस्कृति के साथ भी खिलवाड़ किया जा रहा था तो उन्होंने सर्वप्रथम समाज और देश की दशा पर विचार किया और फिर अपनी लेखनी के माध्यम से विदेशी हुकूमत का पर्दाफाश करना शुरू किया। इनकी विद्वता से प्रभावित होकर ही विद्वतजनों ने इन्हें ‘भारतेंदु’ की उपाधि प्रदान की।
इनके मित्र मण्डली में एक से बढ़ कर एक लेखक, कवि एवं विचारक थे, जिनकी बातों से ये प्रभावित थे। इनके पास विपुल धनराशि थी, जिसे इन्होंने साहित्यकारों की सहायता हेतु मुक्त हस्त से दान किया। बाबू हरिश्चन्द्र बाल्यकाल से ही परम उदार थे। इन्होंने विशाल वैभव एवं धनराशि को विविध संस्थाओं को दिया। अपनी उदार प्रवृत्ति के कारण इनकी आर्थिक दशा सोचनीय हो गई और बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न साहित्यकार की मृत्यु 6 जनवरी 1885 ई. में मात्र 35 वर्ष की अल्पायु में हो गई।