बंगाल : महाकवि कृतिबास ओझा रचित कृतिबास रामायण

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। बंगाल की शस्य-श्यामला व महामानव प्रसूति पावन भूमि, न केवल भारतीय सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक और राजनैतिक नवजागरण की व्युत्पति-भूमि रही है, बल्कि यहाँ की समर्थ भूमि अपनी विशिष्ट असाधारण सभ्यता और अनूठी संस्कृति से विश्व मानव का ध्यान सर्वदा ही अपनी ओर आकर्षित करती रही है। इसके साथ ही यह विद्वत विभूति-प्रसूति भूमि ने समय-समय पर अनगिनत दिव्य-संतानों को जन्म देकर उनके अद्वितीय कार्यों से स्वदेश सहित विश्व-मानवता को भी समयानुसार उपयुक्त मार्ग-दर्शन किया है। उन्हीं समर्थ महापुरुषों में से एक दिव्य महापुरुष हुए हैं पंद्रहवीं शताब्दी के महाकवि ‘कृतिबास ओझा’, जिनके अन्तःकरण से प्रस्फुटित बँगला भाषा के अमर महाकाव्य “रामायण” के छंदों-बद्ध श्रीराम-भक्ति की आध्यात्मिक किरणों से सम्पूर्ण बंग-भूमि ही ‘श्रीराममय प्रकाश’ से आलोकित हो गया है। इसकी आभा से आज देश-विदेशों में बसे करोड़ों बँगला भाषा-भाषी सनातनी लोगों के हृदय में वैष्णव-भक्ति की जो अनुगूँज सुनाई पड़ती है, इसके लिए सभी बँगला भाषा-भाषी सनातनी लोग महाकवि कृतिबास के आजीवन ऋणी ही रहेंगे।

महान वटवृक्ष, जिसके नीचे बैठकर कृतिबास रामायण की रचना किए थे

महाकवि कृतिबास ओझा द्वारा रचित बँगला भाषा की “रामायण” जिसे कृतिकार के प्रति विशेष आदर व स्वामित्व सूचक संज्ञा “कृतिबासी रामायण” और चुकी यह बँगला के ‘पयार’ काव्य छंद में ‘पाँचाली’ के रूप में रचित वर्णनात्मक काव्य, जो राग-रागिनी युक्त नृत्य और संगीत के साथ गायन होने के कारण ‘श्रीराम पाँचाली’ के नाम से भी जग विख्यात है।

“कृतिबासी रामायण” के साथ ‘फुलिया’ नामक ग्राम का वही संबंध है, जो मुख्यतः शरीर और आत्मा का। इसी ‘फुलिया’ ने ‘श्रीराम पाँचाली’ के स्रष्टा महाकवि कृतिबास ओझा को अपने अंचल में जन्म दिया और उनका पालन-पोषण किया था और फिर उन्हें अपनी कोमल गोद में बैठाकर ‘श्रीराम पाँचाली’ या “रामायण” का स्रष्टा बनाकर जगत-प्रसिद्ध किया। हालाकि महाकवि कृतिबास और यह ‘फुलिया’ दोनों ही एक-दूसरे के पर्याय बने हुए जगत प्रसिद्ध हैं।

कृतिबास स्मृति नमन तोरण, फुलिया

‘फुलिया’ वर्तमान में पश्चिम बंगाल के नदिया जिलान्तर्गत ताँत के कपड़ों से संबंधित विशेष व्यापारिक केंद्र शांतिपुर के निकट स्थित एक प्रमुख आध्यात्मिक और ताँत-साड़ी संबंधित कुटीर-शिल्प औद्योगिक नगरी ग्राम है। यह सियालदाह-शांतिपुर रेलमार्ग पर कोलकलता या सियालदह से 89 किलोमीटर की दूरी पर तथा दक्षिण बंगाल के सागरीय सैकत अंचल में स्थित बकखाली से उत्तर बंगाल के दालखोला (पूर्णिया) को जोड़ने वाली ‘राष्ट्रीय राजमार्ग 12’ पर स्थित है। इसके दक्षिण-पश्चिम में ही पावन गंगा (हुगली) नदी अविरल प्रवाहित होती रहती है। निम्न गांगेय प्रदेश होने के कारण यह अंचल सालों भर हरीतिमा युक्त शस्य-श्यामल ही बना रहता है।

इसी ‘फुलिया’ के पश्चिम में एक उप-ग्राम ‘बयेड़ा’ है। परंतु इस समूचे ग्रामीण अंचल को ही ‘फुलिया’ के नाम से ही जाना जाता है। यहाँ के लोगों का मानना है कि सैकड़ों वर्ष पूर्व इस ग्राम के निवासियों का मुख्य पेशा फूलों की खेती करना रहा था। फलतः मुख्य पेशा के अनुरूप इस ग्राम को ‘फुलिया’ नाम से ही संबोधित किया जाने लगा था, जो आज तक इस ग्राम की व्यक्तिवाचक संज्ञा बनी हुई है । इसी ग्राम में परम विद्वान बनमाली ओझा तथा उनकी विदुषी पत्नी मालिनी देवी के सुशिक्षित और आध्यात्मिक आँगन में माघमास, रविवार, श्रीपंचमी के दिन, संभवतः अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार 3रा जनवरी 1440 ईस्वी को महाकवि कृतिबास ओझा का जन्म हुआ था। महाकवि ने स्वयं अपने और अपने परिजन के संदर्भ में एक स्थान पर लिखा है-
‘आदित्यावार श्रीपंचमी पूर्ण माघमास। तिथि मोधे जन्म लइलाम कृत्तिबास।।
मालिनी नामेते माता बाबा बनमाली। छः भाई ऊपजिल संसारे गुणशाली।।’

आध्यात्मिक और साहित्यिक विद्वजनों के अनुसार महाकवि कृतिबास पंद्रहवीं सदी के ज्योतिष, धर्म और नीतिशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान तथा रामनाम में गहरी आस्था व विश्वास रखने वाले बंगला भाषा के प्रथम महाकवि के रूप में स्वीकृत हैं। उन्होंने आदिकवि महर्षि बाल्मीकि की संस्कृत में रचित ‘रामायण’ का बंगला में अत्यंत ही सरल अनुवाद तथा कुछ अपनी अनुभूतियों को समाहित कर बँगला भाषा में “रामायण” या ‘श्रीराम पाँचाली’ नामक महाकाव्य की रचना की, जिसे कृतिकार के सम्मान में ‘कृत्तिबासी रामायण’ ही कहा जाता है। इसमें श्रीरामकथा के साथ ही मध्य युगीन बंगाल समाज और उसकी संस्कृति का भी विशद वर्णन हुआ है।

कृतिबास मंदिर और कृतिबास कूप, फुलिया

आज विस्तृत बँगला-भाषीय प्रदेश के अबाल-वृद्ध के हृदय में जो श्रीराम-भक्ति की पवित्र भागीरथी प्रवाहित हो रही है, वह कृत्तिबास की ही अक्षय ऋणी है। यह पावन महाकाव्य बंगाल और उसके आसपास के क्षेत्रों में वैष्णव-भक्ति के विकास कार्य को समयानुसार विशेष गति प्रदान किया है। अपनी अद्भुत सरलीकरण के कारण ही आज सम्पूर्ण बँगला भाषी सनातनी अमीर के महलों से लेकर गरीब की झोपड़ियों तक में ‘श्रीराम पाँचाली’ अर्थात ‘कृतिबासी रामायण’ की कथा बड़ी भक्ति-भाव से नित्य ही प्रभात की नई किरणों और पक्षियों के कलरव के साथ गूँजती रहती है। अधिकांश भारतीय भाषाओं में अनूदित ‘रामायण’ के लिए ‘श्रीराम पाँचाली’ या ‘कृतिबास रामायण’ प्रेरणा-स्रोत रही है।

‘फुलिया-बयेयड़ा’ ग्राम में ही सड़क के पार्श्व में ही सुविस्तृत प्रांगण में महाकवि कृतिबास की स्मृति में ‘कृतिबास स्मृति विद्यालय’ (उच्च माध्यमिक) निर्मित है। इसी विद्यालय की पश्चिमी प्राचीर को पार करते ही मुख्य सड़क से एक अन्य पतली सड़क पूर्व की ओर जाती है। सामने ही एक स्थायी सिंहद्वार सबके स्वागत में खड़ा दिखाई देता है। उस पर बँगला में लिखा हुआ ‘कृतिबास स्मृति तोरण’ आगंतुकों को महाकवि कृतिबास के जन्म-स्थान में स्वागत करता है। उस सिंहद्वार से प्रवेश कर कुछ आगे बढ़कर ‘कृतिबास स्मृति विद्यालय’ के सुविस्तृत प्रांगण में प्रवेश किया जा सकता है। प्रवेश करते ही कृतिबास कूप, कृतिबास मंदिर, कृतिबास स्मृति तोरण, विशाल वटवृक्ष, जिसके छत्र-छाया में ‘श्रीराम पाँचाली’ की रचना हुई और सुदीर्घ कृतिबास स्मृति विद्यालय परिलक्षित होते हैं। हालाकि विद्यालय के प्रमुख द्वार से भी यहाँ तक पहुँचा जा सकता है।

यहाँ पर महाकवि कृतिबास की स्मृति में संगमरमर का एक ‘चतुष्कोण नमन तोरण स्तम्भ’ निर्मित है, जिस पर महाकवि का आविर्भाव काल ‘माघमास, रविववर, श्रीपंचमी, 1440 ई. अंकित है। बहुत साहित्यिक शोध-कार्य के उपरांत इसी स्थान को महाकवि का जन्म-स्थान मानते हुए इस विशाल प्रांगण में 27 चैत्र, 1322 बंगाब्द (22 अप्रैल, 1916 ईस्वी) को प्रथम बार ‘कृतिबास स्मृति उत्सव’ का आयोजन किया गया था। उसी विशेष अवसर पर इस ‘कृतिबास स्मृति तोरण स्तम्भ’ की स्थापना ‘कलकत्ता उच्च न्यायालय’ के तत्कालीन न्यायाधीश और भारतीयता के प्रबल आग्रही सर आशुतोष मुखर्जी के कर कमलों से की गई थी।

कृत्तिबास ओझा अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता बनमाली ओझा और पितामह मुरारी ओझा से प्राप्त कर अपनी तरुणाई में ही गंगा (पद्मा) नदी को पार कर तत्कालीन गौड़ के सुविख्यात पंडित रायमुकुट आचार्य चुडामणि वृहस्पति मिश्र के गुरु-गृह में गए। बाद में परम विद्वान आचार्य दिवाकर की सानिध्यता में भी परवर्तित विशेष विद्या अर्जन किए। फिर राज-कवि बनने की चाहत में महाराजा गौड़ेश्वर के दरबार में उपस्थित हुए थे। उन्होंने महाराजा गौड़ेश्वर को संस्कृत में कई अद्भुत श्लोक सुनाए, जिससे प्रभावित होकर महाराजा गौड़ेश्वर ने उन्हें अपना राजकवि का स्थान प्रदान कर सम्मानित किया। कालांतर में महाराजा की इच्छा के अनुकूल संस्कृत के आदि कवि महर्षि बाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ के आधार पर जन साधारण की समझ के अनुकूल बंगाल की सभ्यता-संस्कृति और रीति-रिवाजों के अनुकूल बंगला भाषा में बंगला के ‘पयार छंद’ में ‘श्रीराम पाँचाली’ नामक महाकाव्य की रचना की, जिसे कृतिकार के प्रति विशेष आदर-सम्मान सूचक ‘कृत्तिबासी रामायण’ भी कहा जाता है।

पार्श्व में ही सैकड़ों वर्ष पुराना हरीतिमा युक्त एक विशाल वटवृक्ष है। इसी विशाल वटवृक्ष की शीतल छाँव में बैठकर महाकवि कृतिबास ने ‘श्रीराम पाँचाली’ को लिखा था। यह पूज्यनिय वटवृक्ष महाकवि के जन्म से साहित्यिक और आध्यात्मिक क्रिया-कलापों को अत्यंत ही करीब से देखा है और मौन-मूक साक्षी भी रहा है। यदि यह वटवृक्ष महाकवि के बारे में कुछ कह पाता या फिर इसके मौन इशारों को हम मनुष्य समझ पाते, तो महाकवि की जीवन-चर्या तथा लेखन सामग्रियों संबंधित अनगिनत अज्ञात रहस्यों से पर्दे स्वतः ही खुल जाते, पर अभी तक ऐसा कुछ अभीष्ट न रहा है। यह आदरणीय वटवृक्ष अपनी सघनता के कारण श्रीराम कथा में वर्णित ‘पंचवटी’ के ‘वटवृक्ष’ या फिर लंकापति रावण के अशोक वाटिका के ‘अशोक वृक्ष’ के सदृश जान पड़ता है।

उसी के पार्श्व में निर्मित एक छोटा-सा मंदिर है, जिसमें मध्य में महाकवि कृतिबास ओझा और उनके पार्श्व में उनके ‘श्रीराम पाँचली’ के मुख्य चरित्र राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान जी की अति मनोभावन मूर्तियाँ स्थापित हैं। वही पर कृतिबास-कूप भी है। कहा जाता है कि इस कूप का निर्माण स्वयं महाकवि ने अपने परिजन के हितार्थ किया था। बहुत पहले तक, अर्थात नल से सार्वजनिक जल-वितरण व्यवस्था के पूर्व तक इस ग्राम के अधिकांश वासी इसी कूप के जल उपयोग किया करते थे। परंतु अब यह परित्यक्त पड़ा हुआ महाकवि कृतिबास की यादों के साथ ही जुड़ा हुआ एक आदरणीय स्मृति अंश है।

इसके सामने ही विद्यालय का सुविस्तृत हरा-भरा प्रांगण है। विद्यालय के दिनों में दोपहर के जलपान के समय और छुट्टी के समय यह विशाल प्रांगण एक समान ही वेश-भूषा में हजारों छात्र-छात्राओं से सुशोभित हो जाता है। सभी छात्र-छात्राएँ महाकवि की भावनात्मक सानिध्यता में नित्य विद्या अध्ययन करते हैं।

विद्यालय की परिसीमा पार करते ही ‘कृतिबास मेमोरियल लाइब्रेरी कम म्यूजियम भवन’ है। इसका प्रांगण भी ‘कृतिबासी आध्यात्मिक सौन्दर्य’ को प्राप्त कर हरीतिमा युक्त विविध पौधों और उसके विविध रंग-बिरंगे पुष्पों से हमेशा सुसज्जित ही रहता है। इस ‘कृतिबास मेमोरियल लाइब्रेरी कम म्यूजियम भवन’ में महाकवि कृतिबास द्वारा रचित उनके “रामायण” या ‘श्रीराम पाँचाली’ से संबंधित 501 पांडुलिपियों की लेमिलेशन (पारदर्शक आवृत) पृष्ट संग्रहीत हैं। जबकि महाकवि द्वारा लिखित “रामायण” या ‘श्रीराम पाँचाली’ के मूल पांडुलिपि पृष्ट फ्रांस के नैशनल म्यूजियम में सुरक्षित है।

भारत सरकार द्वारा प्रदत्त महाकवि की हस्तलिखित पांडुलिपि का माइक्रो फ़िल्म्स और विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचित रामायण पर आधारित महाकाव्यों के बँगला अनूदित स्वरूप के साथ ही बँगला साहित्य के इतिहास संबंधित अनेक पुस्तकें भी यहाँ संग्रहीत हैं । इसकी चतुर्दिक दीवारों पर 36 बड़े फलकों फलक पर श्रीरामकथा से संबंधित मनोभावन और आध्यात्मिक चित्र अंकित हैं, जो महाकवि कृतिबास द्वारा रचित श्रीरामकथा का निरंतर बखान करते हैं। ये सभी बड़े चित्र फलक चित्रकार मृदुल बंधोपाध्याय द्वारा अंकित किए गए हैं। इस प्रकार यह ‘कृतिबास मेमोरियल लाइब्रेरी कम म्यूजियम भवन’ श्रीराम कथा और बँगला साहित्य के विद्यार्थियों के लिए एक विशेष अध्ययन-केंद्र है ।

‘कृतिबास स्मृति विद्यालय’ के विस्तृत प्रांगण को पार कर उसी सड़क मार्ग पर कुछ आगे ‘श्री श्री हरिदास स्मृति रक्षा समिति’ द्वारा निर्मित ‘श्रीराधा-कृष्ण मंदिर’ सहित अन्य मंदिरों का समूह स्थापित है। कहा जाता है कि श्री हरिदास ठाकुर रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी की भाँति ही श्रीचैतन्य महाप्रभु के शिष्य थे, जिनका जन्म एक ब्राह्मण कुल में हुआ था, परंतु छः माह की अवस्था में ही इनके माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण इनका लालन-पालन एक मुस्लिम परिवार में हुआ था। बड़ा होने पर वे नाम-जप का व्रत लिया और एकांत सेवन करने लगे। वहाँ के मुस्लिम नवाब ने एक यवन को हिंदू धर्मानुसार आचरण करते सुनकर क्रोधित हो गया और बेंत से मारते-मारते उनका प्राण ले लेने का दंड दिया। परंतु समाधिस्थ होने के कारण उन पर उन अत्याचारों का कोई प्रभाव न पड़ता देख, नवाब ने उन्हें घायल तथा मरणासन्न अवस्था में ही गंगा नदी में फेंकवा दिया था। कहा जाता है कि श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने साक्षात् अपने भक्त हरिदास का उद्धार किया और फुलिया ग्राम में पहुँचाया।

इसी फुलिया ग्राम में एक गुफा में ही वे सर्प-बिच्छू के साथ निर्भय रहकर प्रार्थना-तप और समाधि करने में लगे रहते थे। उसी तप-भूमि पर वर्तमान में ‘श्रीराधा कृष्ण मंदिर’ का निर्माण हुआ है, जिसमें श्रीकृष्ण जी राधा जी के साथ और श्रीबलराम जी अपनी भार्या रेवती सहित विराजमान हैं। साथ में ही अन्य की देव-देवियों की की मूर्तियाँ स्थापित हैं। इसके अतिरिक्त इस मंदिर प्रांगण में पंचतत्व मंदिर, नाम यज्ञ-मंच, मायादेवी मंदिर आदि भी निर्मित हैं। यहीं पर अपने डूबते हुए प्रिय भक्त श्रीहरिदास को गंगाजल से उद्धार करते हुए श्रीचैतन्य महाप्रभु जी का बड़ा ही आकर्षक और परमार्थ संकेतित मूर्ति भी स्थापित है। इसी मंदिर प्रांगण में महाकवि कृतिबास ओझा की अस्थियाँ युक्त समाधि स्थापित हैं।

‘श्री श्री हरिदास स्मृति रक्षा समिति’ द्वारा विभिन्न देवी-देवताओं के मंदिरों से युक्त सपूर्ण ‘मंदिर प्रांगण’ ही आध्यात्मिक भाव से परिपूर्ण दिखाई देता है। यहाँ पर सर्वदा नाम-कीर्तन, धर्म-चर्चा, धर्म-पाठ, धर्म-विचार-विमर्श आदि हुआ करते हैं, जिसमें दूर दराज से अनेक भक्त-श्रोतागण पधारते हैं। इसके कुछ ही दूरी पर ‘श्रीराधिका मोहन बानप्रस्थ आश्रम मन्दिर’ भी स्थापित है ।

ऐसे विशेष आध्यात्मिक विविध प्रांगणों से दक्षिण दिशा की ओर लगभग आधे किलोमीटर की दूरी पर ही पतित पावनी माँ गंगा (हुगली नदी) अविरल प्रवाहित होती है। यही पर एक प्रसिद्ध घाट है, जो महाकवि कृतिबास और उनके पूर्वजों की स्मृति में निर्मित ‘कृतिबास घाट’ है। इसे लोग बहुत ही पवित्र घाट मानते हैं। स्थानीय ग्रामीणों के स्नान हेतु तथा गंगा नदी के उस पार आवागमन हेतु यह विशेष प्रयोजनीय और व्यवहारिक घाट है। विभिन्न पर्व-त्योहारों के अवसर पर दूर-दराज से बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुष इस घाट में स्नान करने और अपने साथ गंगाजल ले जाने के लिए आते हैं।

इस प्रकार देखा जाए तो ‘फुलिया’ वर्तमान में वैष्णवी-भक्ति और आस्था का एक विशेष केंद्र है। इस ‘फुलिया’ के ‘कृतिबास स्मृति विद्यालय के सुविस्तृत प्रांगण में प्रतिवर्ष पंचमी तिथि, माघमास महाकवि कृतिबास जयंती के पावन अवसर पर बहुत ही धूमधाम से ‘कृतिबास स्मृति उत्सव’ का आयोजन किया जाता है, जिसमें विभिन्न विख्यात शिल्पी-कलाकारों द्वारा ‘श्रीराम पाँचाली’ के आधार पर लोकगीत गायन और उसके साथ ही रामकथा पर आधारित नाटक आदि किए जाते हैं। वैष्णव संबंधित विभिन्न धर्माचार्यों का आगमन और धर्म-चर्चा भी होती है। विशेष भंडारा का भी आयोजन होता है। दूर-दराज से हजारों की संख्या में भक्त लोग उस उत्सव में भाग लेने दर्शनार्थी व श्रोता के रूप में आते हैं।

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

आध्यात्मिकता के अतिरिक्त ‘फुलिया’ एक कुटीर उद्योग और व्यापारिक उपनगर के रूप में भी अपने आप को विकसित किया है। यहाँ के अधिकांश घरों में ‘ताँत साड़ी निर्माण’ संबंधित कुटीर-शिल्प विकसित हैं। हर गली में ताँत कांतने के मशीनों की ‘धरस्त-धरस्त-धरस्त’ की लयात्मक ध्वनि सबेरे से लेकर देर रात तक गूँजित रहती है। यहाँ के लोग भी बहुत ही आध्यात्मिक, मृदुल-भाषा, शांतप्रिय और कठोर परिश्रम करने वाले हैं। अधिकांश ग्रामवासी अपने कार्य में संलग्न रहते हुए अनावश्यक बक-झक से दूर ही रहते हैं। फलतः वे परिष्कार घर-द्वार, वेश-भूषा व आधुनिक जीवन-यापन संबंधित लगभग सभी साधनों से सम्पन्न दिखाई पड़ते हैं।

श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व लेखक,
हावड़ा- 711101
(पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com

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