मानो तो मैं गंगा मां हूं…

“देवि सुरेश्वरि भगवति गङ्गे त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गे।
शङ्करमौलिविहारिणि विमले मम मतिरास्तां तव पदकमले॥
भागीरथि सुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमे ख्यातः।
नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम्॥”

अर्थात – ‘हे देवि गंगा! तुम देवगण की ईश्वरी हो। हे भगवति! तुम त्रिभुवन को तारने वाली, विमल और तरल तरंगमयी तथा शंकर के मस्तक पर विहार करने वाली हो। हे माता! तुम्हारे चरण कमलों में मेरी मति लगी रहे। हे भागीरथि! तुम समस्त प्राणियों को सुख देती हो, हे माता! वेद और शास्त्र में तुम्हारे जल का माहात्म्य वर्णित है। मैं तुम्हारी महिमा कुछ भी नहीं जानता हूँ। हे दयामयि! मुझ जैसे अज्ञानी की रक्षा करो।’

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। मैं सर्वपाप नाशिनी समस्त चराचर की ममता व प्रवाहमयी माता गंगा हूँ। मैं ही सनातनी भारतीयता-स्मिता की पहचान हूँ। मैं केवल एक राष्ट्र-नदी ही नहीं, अपितु मानवीय चेतन को अनंत काल से प्रवाहित करती रही हूँ। मैं युग-युग से इस देव प्रिय ‘भारत-भूमि’ को अपने पवित्र जल से अविरल सींचती रही हूँ। इस प्रकार मैं जीवन-तत्व हूँ, जीवन-प्रदायिनी हूँ। अतः मैं सबकी माता हूँ। पौराणिक शास्त्रकारगण मुझे ‘त्रिपथगामी’ मानते हैं, क्योंकि मेरी गति आकाश, पाताल, और पृथ्वी पर एक समान है और मंदाकिनी, भोगावती तथा भागीरथी की ‘त्रिसंज्ञा’ प्राप्त करती हूँ। इसी कारण ऋग्वेद, रामायण, महाभारत सहित अनेक पुराण शास्त्रों में मुझे पुण्य-सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष-प्रदायिनी, सुर-सरि, सरित-श्रेष्ठ एवं देव-नदी भी कहा गया है।

मैंने अपने तट पर अयोध्या के प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा त्रिशंकु के सत्यवादी पुत्र हरिश्चंद्र को सत्य की रक्षा हेतु काशी के एक श्मशान घाट पर चंडाल बन कर शव जलाते हुए देखा है। उन्हें अपने मृत पुत्र रोहिताश्व के शव के अंतिम संस्कार हेतु अपनी प्राणप्रिया तारामती के अंग-वसन का अर्धांश को फाड़ने के लिए उद्धत उनके निष्ठुर, पर कर्मरत लाचार हाथों को देखा है। श्रवण कुमार जैसे मातृ-पितृ भक्त पुत्र को भी देखा है। अपने तट पर श्रीराम-लक्ष्मण जैसे आदर्श त्यागी पुत्रों को के आदर्श और त्याग को देखा है, जिन्होंने अपने माता-पिता की इच्छा को शिरोधार्य कर राजकीय सुखों का परित्याग कर वन-वन डोलते फिरे और ज्ञात-अज्ञात ऋषि-मुनियों के रक्षार्थ असुरों को संहार करते फिरे। फिर छल-प्रपंचों के ताने-बाने से बुना हुआ ‘महाभारत’ के कथ्य और उसके कठोर परिणाम को ‘कुरुक्षेत्र के मैदान’ में में भी देखा है, जिसमें मैंने अपने प्रिय पुत्र देवव्रत (भीष्म) को शर-शैय्या पर मुक्ति की कामना में मरणासन्न देखा है।

आज भी मैं स्पष्ट देख रही हूँ कि मेरी भारतवंशी संतान मुझे और मुझ जैसी ही मेरी अन्य प्रवाहिनी-बहनों को प्रदूषित कर स्वयं विभिन्न रोगों से आबद्ध होकर मेरे भीष्म की भाँति ही मरणासन्न मृत्यु की शैय्या पर पड़े अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रही हैं। सच बताऊँ, कि मैं कौन हूँ? मेरा जन्म कैसे हूआ? मैं धरती पर कब और क्यों आई हूँ? इन सभी प्रश्नों के सठिक उत्तर से मैं स्वयं अनभिज्ञ हूँ। मैं प्राचीन भारतवर्ष के त्रिकालदर्शी महान ऋषि-मुनियों को सादर नमन करती हूँ, जिन्होंने मेरी रामकथा पौराणिक पुस्तकों में लिपिबद्ध किया है। उन्हीं से मैं भी अपने बारे में कुछ जान पाई हूँ। उसे ही मैं आप सभी को बताती हूँ। मैं स्वर्ग की पवित्र नदी गंगा हूँ। मेरा उल्लेख ‘ऋग्‍वेद’ से लेकर वर्तमान भारतीय विविध भाषीय साहित्‍य की विविध विधाओं तक में मिलता है। मैं भारत जैसे महान देश की मुख्य प्राणधारा होते हुए भारत की अस्मिता का परिचायक हूँ। मैं पौराणिक काल से ही भारत-भूमि की कलि-कलुषता को निरंतर धोती और अंगीकार करती हुई अथाह समुद्र में जा मिलती हूँ।

सर्वोत्तम और अविनाशी ‘सतलोक’ से संबंधित होने के कारण मेरी जलराशि अति पवित्र है। मेरे जल में कीड़े उत्पन्न होने की संभावना न के बराबर है। अतः मैं पौराणिक काल से ही देव, दनुज, मनुज, प्राणी आदि सबके प्रिय और पूज्यनीय रही हूँ। मेरी जलराशि के एक बूँद में भी जीव को मोक्ष प्रदान करने की दिव्य शक्ति समाहित है। जिस कारण मैं केवल भारत में ही नहीं, बल्कि देश-देशान्तर के जनमानस के हृदय में और उनकी आध्यात्मिक अभिव्यक्ति में सादर बसी हुई हूँ। किसी भी प्रवाहिनी के जल को धार्मिक कर्मकांडों में मेरे नाम से ही अभिभूत कर उसकी स्तुति की जाती है। इसीलिए मैं मानव के जन्म और उसके उपरांत की सभी धार्मिक कर्मकांडों में सादर व्यवहृत होती हुई उसकी मृत्यु के उपरांत के अंतिम कर्मकांडों का प्रमुख हिस्सा बनकर उसे परलोकगामी बनाती हूँ।

मेरे मातृत्व स्वभाव और पाप हरण प्रवृति के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने हेतु प्राचीन काल से ही मानव समाज मेरे किनारों पर एक से बढ़कर एक कई धार्मिक तथा सांस्कृतिक जनसमावेश जनित वृहद अनुष्ठानों का आयोजन करते आए हैं। जिनमें वृहद ‘कुम्भ का मेला’ सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त मेरे तट पर ही विभिन्न प्रमुख देवालय स्थित हैं। पुराणों में मुझे ‘देवी गंगा’ के रूप में बताया गया हैं। मुझे देवनदी, सुरसरि, त्रिपथगा, भागीरथी, जाह्यनवी, शिवाय, मंदाकिनी, पापहंता, पतितोद्धारिणी, विष्णुपदाब्जसंभूता, महामोक्षप्रदायिनी, पार्वतैया, ब्राहमकमंडलुकृतलया, गिरिराजसुता आदि जैसे कोई 108 नामों से पुकारा जाता है। मेरी हर संज्ञा मेरी विशेषता को ही अभिव्यक्त करती है।

जैसा कि सर्व विदित है कि इस धरती पर मानवीय सभ्यताओं का विकास सदैव मुझ जैसी नदियों के किनारे ही होता आया है। यही कारण है कि अधिकांश बड़े-बड़े शहर मुझ जैसी जलधाराओं के ही किनारे बसे हुए हैं। मेरे किनारे धार्मिक, सांस्कृतिक, व्यापारिक, शैक्षणिक, औद्योगिक आदि अनगिनत नगर विकसित हुए हैं, जिनमें से ऋषिकेश, हरिद्वार, कानपुर, प्रयागराज, विंध्याचल, वाराणसी, गाज़ीपुर, बक्सर, बलिया, छपरा, पटना, हाजीपुर, मुंगेर, सुलतानगंज, भागलपुर, राजमहल, फरक्का, नवदीप धाम, कोलकाता, गंगासागर, राजशाही, ढाका आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनमें से ऋषिकेश, हरिद्वार, प्रयागराज, वाराणसी, पटना, सुलतानगंज स्थित मेरे घाट बहुत ही प्रसिद्ध हैं। मेरे घाट प्राचीन काल से ही विशिष्ट महापुरुषों, लेखकों, संगीतज्ञों, गीतकारों, छायाकारों, मुक्तिधाम (श्मशान घाट) आदि के लिए आकर्षण स्थल रहे हैं। काशी में मेरे किनारे के मणिकर्णिका घाट और दश्वाशमेध घाट विश्व प्रसिद्ध हैं।

पर ‘हे भारतवंशी, मंद बुद्धि मानव! अब तुम सभी मेरे दुख और चिंताजनित व्यथा-कथा को भी सुनो।’

हे भारतवंशी! क्या तुम्हें ‘मंद बुद्धि’ का सम्बोधन अरुचिकर लगा? हृदय में कहीं ठेंस पहुँची? कोई बात नहीं। मेरा उद्देश्य भी तुम्हारे हृदय में ठेंस पहुँचाना ही रहा है। चूंकि मैं सर्व धार्मिक भाव तथा सर्व आस्थाओं से जुड़ी हुई हूँ। मेरा जल सबके लिए विशेष आदरणीय और पूज्यनीय है। इस धरती के समस्त चराचर मेरी संतान हैं। उनमें मैंने कोई अंतर भाव न रखा। वे सभी मेरे जल में आकर अपने पाप को धोने का प्रयास करते हैं। शायद इसी कारण अन्य नदियों की अपेक्षा दोगुनी गति से मेरा जल प्रदूषित हो रहा है। मुझमें अधजले या पूर्ण शवों को बहाना, अस्थियों का बड़ी संख्या में विसर्जन करना, मिट्टी तथा रासायनिक से निर्मित मूर्तियों का मुझमें विसर्जन करना, कल-कारखानों तथा नगरों के गंदे जल और वर्जय पदार्थों को मुझमें मिलना, विशेष अवसरों पर मेरे किनारे बड़े-बड़े मेले व जनसमावेश का आयोजन करना, बड़ी संख्या में लोगों के मल-मूत्र अवसाद मुझमें डाल देना, पर्व-त्योहार के नाम पर मुझमें बड़ी संख्या में लोगों का स्नान करना आदि जैसी क्रिया-कलापों ने मुझे अति प्रदूषित कर दिया है। अब तो मैं विश्व की पाँचवी सबसे प्रदूषित जलधाराओं में शामिल हो गई हूँ । कभी मेरे जल से लोग आचमन किया करते थे, देवों का अभिषेक किया करते थे, मेरे जल के बिना कोई भी धार्मिक अनुष्ठान सफल नहीं हो पता था, पर आज मेरे प्रदूषित जल को पशु-पक्षी तक पीना नहीं चाहते हैं।

मैं तो समझ ही नहीं पा रही हूँ कि सनातनी भारतवासी जो सभी सजीव और निर्जीव यहाँ तक कि पत्थरों को भी देवी-देवता के रूप में पूजते रहे हैं, सम्मान देते हैं। मुझे भी “माता” कहकर पुकारते और पूजते हैं, वे कैसे मेरे जल और मेरे आँचल को प्रदूषित कर रहे हैं? क्या यही उनकी मेरे प्रति आस्था और भक्ति है? फिर मुझे ‘माता’ ही क्यों कहते हैं? धार्मिकता से पूर्ण देवों की इस पावन भूमि की संतानों से मुझे ऐसी उम्मीद कदापि न थी। आप सभी श्रेष्ठ देव-संतान हो। इसी पावन भूमि के पुत्र श्रवण कुमार, राम, भरत, लक्ष्मण, देवव्रत आदि हुए थे, जिन्होंने माता-पिता की सेवा और आज्ञाकारिता का इस जगत में अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत कर गए हैं। जिनसे प्रेरित होकर आप सभी भी मातृ-पितृ सेवक बने। मैं तो तुम सबमें अपने देवव्रत भीष्म के मातृ-प्रेम, आज्ञाकारीता, बलशाली, त्याग, सेवाकर्म आदि गुणों की अपेक्षा रखती हूँ। पर आज की भारतवंशियों को अपनी माता तथा माता तुल्य अन्य सभी के प्रति उपेक्षा भाव को देख कर मैं हतप्रद हूँ। एक माता की सेवा और उसके बोझ को उठाने में आज तुम असमर्थ हो गए हो। फिर तुम अपने आप को सनातनी संतान कैसे कह सकते हो? हे भरतवंशी! तुम सभी अपने अतीत को जानों और प्रकृति के सभी रूपों के प्रति आदर-सम्मान प्रदान करो। इन्हें पूर्णतः स्वच्छ रखो। ये तुम्हें कभी अस्वस्थ न रखेंगी। इसी में तुम्हारा कल्याण निहित है। तभी तुम सभी सनातनी पुत्र कहलाने का गौरव प्राप्त करोगे।

मेरे प्रदूषित स्वरूप और दारुण कष्टों के प्रति साधु-संतों, चिंतकों, दार्शनिकों, पर्यावरणविदों की चिंता को देखते हुए भारत की सरकार सजग हुई है और मुझे तथा मुझ जैसे कई प्रवाहिनियों को प्रदूषण से मुक्त करवाने के क्षेत्र में व्यापक कार्य कर रही है। सरकार के द्वारा समयानुसार ‘गंगा विकास प्राधिकरण’, ‘गंगा एक्शन प्लान’, ‘नेशनल रिवर कन्जर्वेशन एक्ट’, ‘नमामि गंगे परियोजना’, ‘स्वच्छ गंगा अभियान’ आदि के तहत मुझे और मेरे जैसी कई धाराओं को साफ-सफाई करने की ओर बराबर ध्यान दिया जा रहा है। इनमें यह भी सुनिश्चित किया जा रहा है कि मुझमें और मेरे जैसे प्रवाहिनियों में कोई भी औद्योगिक कचरे को न प्रवाहित किया जाए। उम्मीद रखती हूँ कि भविष्य में मैं और मेरी जलराशि अपने पूर्व प्रदूषणरहित औषधीय गुणयुक्त स्वरूप को प्राप्त कर पाऊँगी।

पर क्या करूँ, मैं सबकी ‘माँ’ हूँ, न। कैसे अपनी संतानों को कष्टों और रोग पीड़ित देख सकती हूँ। मेरी संतान भले ही मुझे असह्य कष्ट देवें। फिर भी उनके सौ नहीं, बल्कि लाखों अपराधों को मैं क्षमा करने की शक्ति रखती हूँ।
तुम सभी स्वस्थ रहो। तुम्हारी सर्वत्र जय हो।

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

श्रीराम पुकार शर्मा,
हावड़ा – 711101 
(पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com  

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