“बंटवारा” : (कहानी) :– श्रीराम पुकार शर्मा

पैतृक सम्पति सम्बन्धित अपनी संतानों में बंटवारे सम्बन्धित समस्या को केंद्र कर लिखी गई मेरी कहानी “बंटवारा” आप विद्वजनों के सम्मुख प्रस्तुत है। अपनी प्रतिक्रियाओं से मुझे अवश्य अवगत करवाएँ। सादर स्वागत है।

‘दयाराम बाबू, आज की आहूत यह पंचायत आपके दोनों पुत्रों की प्रार्थना पर बुलाई गई है I आपके दोनों पुत्रों ने निवेदन किया है कि पारिवारिक विद्वेषिता के कारण उनका अब एक संग रह पाना सम्भव नहीं हो पा रहा है I इस सन्दर्भ में आपके दोनों पुत्रों ने आपसे भी कई बार निवेदन किया है, पर आपने इस विषय को गम्भीरता से नहीं लिया है I वे दोनों ही आपसी विचार-विमर्श के द्वारा अपनी पैत्रिक सम्पति को पंचायत के सहयोग से परस्पर बंटवारा करना चाहते हैं I आज की यह पंचायत अपने सदस्यों के आपसी विचार-विमर्श के उपरांत इस निष्कर्ष पर पहुँची है कि परिस्थिति की अनुकूलता को देखते हुए अब आपकी सम्पति को आपके दोनों बेटों के बीच दो हिस्सों में बराबर-बराबर बाँट दी जाए I क्या पंचायत के इस निर्णय से आप संतुष्ट है? इस सन्दर्भ में आप अपने विचार को पंचायत के समक्ष रख सकते हैं I

पंचायत उस पर भी गैर करेगीI’ – पंचायत के ऊँच आसन पर विराजमान सरपंच ने अपने सम्मुख बैठे दयाराम बाबू के प्रति अपनी दृष्टि केन्द्रित करते हुए कहा और अपनी नाक पर से अपने चश्में को उतार कर उसे अपने गमछे के एक छोर से साफ़ करने लगे I
दयाराम बाबू अबतक सरपंच को एकटक देखते हुए उनकी बातों या सम्भावित निर्णय को बड़े ही ध्यानपूर्वक सुन रहे थेI अब अपनी लाठी का सहारा लिए धीरे से उठेI अपने गमछे से अपने चहरे को पोंछे और हाथ जोड़े बहुत ही आदर भाव से सरपंच महोदय से बोले, – ‘लेकिन माननीय सरपंच महोदय जी! पंचायत के इस निर्णय में मुझे कुछ त्रुटी लगती है I अतः उन त्रुटियों के सुधार बिना ही पंचायत इस निर्णय से मैं पूर्ण संतुष्ट नहीं हूँ I अतः फ़िलहाल मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता I सरपंच महोदय मैंने रात-दिन कठोर परिश्रम करके एक-एक पाई जोड़-जोड़ कर अपनी इस पैत्रिक सम्पति को सुदृढ़ किया है I इसमें मेरे दोनों आलसी बेटों की रंचमात्र भी योगदान नहीं है I

फिर उनका मेरी सम्पति पर हक़ कैसा? फिर पंचायत के इस निर्णय में मेरी स्थिति स्पष्ट नहीं है, अर्थात मेरा अग्रीम जीवन का देखभाल और सेवा सत्कार कौन करेगा?’ दयाराम बाबू अपने गाँव के ही पास के एक छोटे से शहर में एक सरकारी दफ्तर में एक साधारण मुलाजिम थे I वेतन भी बहुत कुछ ज्यादा न था, तो बहुत कम भी न था I पैत्रिक सम्पति स्वरूप उन्हें गाँव में ही कोई छः बीघे के खेत प्राप्त हुए थे I बाद में तीन बीघा अपनी कमाई से और जोड़ लिए थे I पारिवारिक सदस्यों की वृद्धि के साथ ही उन्होंने अपने पैत्रिक मकान को ही और विकसित कर लिए थे I स्वयं ग्रामीण और शहरी संस्कृति के समिश्रण युक्त जीवन व्यतीत करते हुए उन्होंने अपने बच्चों को काबिल बनाने का भरसक प्रयास किया I पर उनके दोनों पुत्रों को पिता द्वारा प्रदत काबिलियत की शिक्षा बिलकुल न भाया I आवारा गर्दी में ही उनके समय बीतने लगे I लोगों के परामर्श पर उनकी ब्याह-शादी भी कर दी, शायद पारिवारिक बोझ उन्हें सही रास्ते की ओर खिंच लावे I पर वह सब स्वप्न मात्र ही रह गए I पक्के घड़े पर पानी का कोई असर न पड़ा I एक बेटी थी, योग्य घर-वर तलाश कर उन्होंने उसकी शादी-ब्याह कर उसे व्यवस्थित कर दिया I पर दोनों बेटों की मटरगस्ती और बेजरूरत के खर्च से वे लगातार परेशान ही रहे I

देखते-देखते उनके दोनों बेटे एक-एक बच्चे के बाप भी बन गये, फिर भी उनकी दिनचर्या में कोई ख़ास परिवर्तन न हुआ I बहुओं और पोतों के मुँह देख कर तथा सामाजिकता के कारण उन सबके बोझ को वे लगातार अपने बूढ़े कंधों पर ढो रहे थे I पाँच वर्ष पूर्व वे सरकारी सेवा से निवृत हुए थे और उसी वर्ष उन्हें विधुरता के ह्रदय-घात भी सहना पड़ा था I पेंशन की तथा खेती से प्राप्त रकम से सबकी जीवन-रक्षक बागडोर अच्छी तरह से निभ रहा था I क्या करें, वे भी तो सांसारिक व्यक्ति थे I पारिवारिक माया से वे भी अपने मन को मुक्त न कर पाए थे I शायद उनके इस कमजोरी को उनके निकम्में दोनों पुत्रों ने जान लिया थाI उसी कमजोरी के रस को पान कर वे पुष्पित हो रहे थेI बहुओं के सामने पुत्रों को बराबर डाँटना-फटकारना या फिर लताड़ना उन्हें उचित न लगता था I लाचारी में वे भी अपने आप को उस परिस्थिति में समायोजित कर लिए थे I

घर के अंदरूनी कार्यों का जिम्मा दोनों बहुओं पर ही थीं I घरेलू कार्यों को केंद्र कर दोनों बहुओं में भी अक्सर आपसी मुँह-फुलौवल होते ही रहता था I दोनों बहुएँ अलग-अलग बसने के लिए अपने-अपने पतियों पर अक्सर दबाव बनाया करती थी, परन्तु अलग घर और संभावित पारिवारिक खर्चे की बातों को स्मरण कर उनके पतिदेवगण चुप्पी ही साध लिया करते थे I ऐसी बात न थी कि वृद्ध दयाराम बाबू को इसकी भनक न थी I उनकी अनुभवी आँखों और दिमाग सब कुछ समझ कर भी सामाजिकता वश मौन ही साधे रखते थेI उन्हें तो इज्जत से दो वक्त के भोजन की आवश्यकता थी I फिर दोनों तो एक ही स्वभाव के थे I किसका पक्ष लेवें, किसका विरोध करें I मौन व्रत ही उनके लिए अच्छा उपाय था I

एक-दो बार बेटों ने भी अपनी पत्नियों के अनुकूल पारिवारिक काल्पनिक शांति के लिए पैत्रिक हक़ के अनुसार घर व सम्पति की बंटवारे की बातें अपने पिता से की I परन्तु पिता दयाराम बाबू उनके इस मायाजाल में न फँसें I बल्कि बाप होने की प्रबलता से कठोरतापूर्वक उनकी माँगों को दरकिनारे करते हुए स्पष्ट शब्दों में कह दिया, – ‘जिसको अलग रहना है, वह स्वयं अपनी अलग व्यवस्था करे I मुझसे किसी प्रकार की कोई भी सहायता की कोई आस न रखे I’
दयाराम बाबू का यह कथन तो बहुत ही सीमित और संक्षिप्त था I पर इसका आशय बहुत बड़ा और गम्भीर था I और उससे भी बड़ा यह खर्चीला भी था I उन्होंने सही जगह पर कठोर चोट की थी I इस चोट का उनके पुत्रों के पास कोई इलाज भी न था I दोनों अपने-अपने मुँह लेकर बैठ गए थे I पर जब वे समझ गए कि बिना भाग-बंटवारे का अब एक साथ रहना दुष्कर है, तब उन दोनों ने भाग-बंटवारे को लेकर पिता के समक्ष फिर एक बार जोरदार कोशिश की I पर हर बार की तरह इस बार भी दयाराम बाबू पहले की भांति ही पर्वत बने रहे I तब लाचारी में दोनों पुत्रों ने ग्राम पंचायत का दरवाजा खटखटाया था I आज की पंचायत का मुख्य विषय भी दोनों पुत्रों की याचिका पर सुनवाई करके उनके वांछित अधिकार को उनके कठोर पिता से दिलवाना था I

“श्रीमान सरपंच जी, आज की पंचायत के इस निर्णय के अनुसार मेरे पूर्वजों तथा मेरे द्वारा संचित सारी सम्पति को मेरे इन दोनों निकम्मों पुत्रों के मध्य बराबर-बराबर बाँट दी जाएगी, तब तो मैं कहीं का न रहूँगा I मेरा भरण-पोषण और देख भाल कौन करेगा? मेरी स्थिति तो न घर का, न घाट का हो जायेगा न? मेरे जीते जी मेरा स्वामित्व नष्ट हो जायेगा और मैं अपने इन निकम्मों पुत्रों के आधीन होकर इनकी दया-दृष्टि का पात्र बन जाउँगा I फिर तो मैं दाने-दाने के मोहताज हो जाउँगा I पंचायत का यह कैसा न्याय है?” – दयाराम बाबू ने सरपंच सहित अन्य पंचों की ओर मुखातिब होकर से बड़ी ही विनम्रता से पूछा I
“दयाराम बाबू यही तो लोकाचार और परम्परा है I आपकी सारी सम्पति तो आखिर इन्हीं के हैं, न I तो इन्हें सौंप कर आप अपने बाकी का समय भगवत-भक्ति में बिताइए I आपके भरण-पोषण और देखभाल की जिम्मेवारी आपके इन दोनों लड़कों पर बराबर की होंगी I छः माह आप अपने बड़े लड़के और अगले छः माह अपने छोटे लड़के के पास रहेंगे I यही क्रम आपके आजीवन चलता रहेगा I” – सरपंच ने सगर्व और सहर्ष सुझाया I

“श्रीमान सरपंच जी! तब तो आप मुझे अपने बेटों के आधीन और गुलामी की ओर प्रेरित कर रहे हैं I खैर, तो आज की यह पंचायत मुझे यह भी बता देवे कि पंचायत द्वारा निर्धारित यह फैसला कब से लागू माना जायेगा ?”
“यदि पंचायत का यह निर्णय आपको स्वीकार है, तो यह आगामी कल से ही प्रभावी माना जायेगा I” – सरपंच ने कहा और अन्य पंचों की ओर देखने लगे, ताकि वे भी हाँमी भरें I
“श्रीमान सरपंच जी! अब तक की परिस्थिति और दी गई जानकारी के अनुसार पंचायत द्वारा लिये गए के निर्णय पर मैं कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगा रहा हूँ, पर इस निर्णय को वास्तविक तथा कानूनी रूप देने के पहले मैं अपनी भी कुछ बातें पंचायत के समक्ष रखने की इजाजत चाहता हूँ I कृपया मेरी बातों को सुनकर उस पर मनन कर ही पंचायत अपने निर्णय को सुनावें I”
“इजाजत है I सामाजिक और परम्परागत पारिवारिक जीवन की शैली यही है I पैत्रिक सम्पति पर पिता के उपरांत उनकी संतानों का ही अधिकार होता आया है I फिर भी चुकी बंटवारे की जाने वाली सारी सम्पति आपकी है I अतः इस विषय में अभी आपकी इच्छा ही सर्वोपरी है I इस सन्दर्भ में यदि आपकी कोई और योजना हो तो उससे पंचायत को अवगत करवाएँ I पंचायत उस पर भी विचार करेगी I”- सरपंच ने अपने सहयोगियों की ओर देखते हुए कहा I
“पंचायत के सम्मानित पंच तथा सदस्यगण! आपके निर्णय से बंटवारा किया जाएगा मेरे पुरखों तथा मेरी संचित सम्पति, जिसे मैंने रात-दिन कठिन परिश्रम कर, हर आपदा को झेल कर सहेजा और सृजित किया है I और यह सम्पति उन्हें प्रदान की जाएगी, जिन्होंने इसके सृजन में रंचमात्र भी अपना योगदान नहीं दिया है I मैं अपनी देखा-भाल के लिए अभी स्वयं पूर्ण सक्षम हूँ I रही बात मेरी सम्पति के बंटवारे की, तो वह मैं अपने जीवितावस्था में नहीं करना चाहूँगा I मेरी मृत्यु के उपरांत ही मेरे दोनों पुत्र अपनी पैत्रिक सम्पति के बराबर के हक़दार बन सकते हैं I लेकिन मैं पंचायत को विश्वास दिलाता हूँ कि मैं आजीवन इनका और इनके परिजन के भरण-पोषण का दायित्व स्वयं निर्वाहन करता ही करूँगा I खाने-पहनने की इन्हें कोई तकलीफ न होगी, पर एक विशेष शर्त के साथ I मैं एक समय में अपने किसी एक पुत्र को ही उसके परिजन सहित अपने पास रखूँगा, दोनों को एक साथ कदापि नहीं I अर्थात, मेरे दोनों पुत्रों में से कोई एक अपने परिजन सहित छः माह के लिए मेरे पास रहेगा, फिर अगले छः माह के लिए दूसरा अपने परिजन सहित मेरे पास रहेगा I बाकी के छः माह के लिए वे स्वयं तय करेंगे कि वे कहाँ रहेंगे और कैसे रहेंगे? इसके दरमियान मैं अपनी मृत्यु के पूर्व इन्हें अपनी सम्पति से एक फूटी कौड़ी भी न दूँगा I और पंचायत से मेरी विनती है कि मेरे इस निर्णय को भी आगामी कल से प्रभावी ही माना जाए I” – कहते-कहते कुछ तेज हो गए दयाराम बाबू और फिर पंचायत के विचार-विमर्श तथा निर्णय की प्रतीक्षा में निश्चिन्त होकर आराम से बैठ गए I

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