।।पीपल की छांव में।।
अशोक वर्मा “हमदर्द”
पीपल की छांव में
दुपहरी में शीतलता लिये,
माथे पर गगरी लेकर
जब आती थी लखिया
और मुस्कुराती थी,
तो दिल बाग-बाग हो जाता था,
कारण की उसकी मुस्कुराहट में
अभाव का,
नाम मात्र भी,
जगह नही रहता
सब्र रहता था
उसके दिल में
कम खाकर भी,
नही रहती थी
अति महत्वकांक्षा,
कुछ अच्छा खाने एवं पहनने का
मिट्टी के घर में भी,
लखिया को,
नींद आती थी चैन से
जो महलों में,
रहने वालों को
नसीब नही होती,
कभी-कभी, लखिया
अपनी क्षुधा की आग,
बुझाने को,
अपनी पोटली खोलती,
और सत्तू, नमक, हरी मिर्च
के मिश्रण से,
अपनी क्षुधा की आग मिटाती
और साथ बैठे लोगों से भी,
आग्रह करती,
आप भी थोड़ा ले लो भैया,
अब वो प्यार नही दिखता,
लोगों में,
लोग आज अकेला ही
खाना पसंद करते हैं,
समाज क्या?
अपने मां, बाप से भी,
अलग रह कर।
अब वो लखिया भी,
नहीं दिखती
क्यों की, न तो वो,
कुंए तालाब रह गये है,
नहीं छांव के लिये,
पीपल वृक्ष
अब तो पर्यावरण के नाम पर,
गमलों में,
लगाये जाते है
कुछ वृक्ष
जो छाया नही देते,
और
लखिया नहीं,
दिखती कहीं भी।