अशोक वर्मा “हमदर्द” की कविता : दलित

।।दलित।।

लोग मुझे दलित कहते हैं
इसलिए की मैं, क्षुधातुर होकर
भटकते हुए जाता हूं
क्षेत्राधीश के पास,
शायद, वहां क्षुधा की आग
बुझानें को मिल जाय
एक मुट्ठी अनाज,
और मेरे शरीर से
मिट सके
क्षीण होने का कलंक
मैं भी चाहता हूं की
लोग मुझे क्षीप्रकारी किसान कहे,
और मैं धन्य हो जाऊं
मुक्ति मिले, दलित अछूत अधम क्षुद्र शुद्र
जैसे शब्दों से,
कारण की क्षेत्र भूमि में
जाकर उगाता हूं अनाज
और लोगों के भूख को
शांत करने का करता हूं
सार्थक प्रयास,
तभी तो बनते है
भूपति के घर
क्षीतिधर अनाज के
और इसके बाद भी
मिलते है मेरे हिस्से में कुछ मुट्ठी भर अनाज
और खुश हो जाते है मेरे बच्चे देखकर
उस अनाज के पोटली को
जैसे लगता हो वो
अनाज नहीं,
उनके खेलने का
खिलौना हो,
उन अबोध को
खिलौने से भी प्यारा लगता है
वो मुट्ठी भर अनाज,
जो मनोरंजन तो नही देते
मगर देते है
कुछ क्षण के लिए
गहरी नींद
और शांत करते है क्षुधा की आग,
लोग मुझे दलित कहते है।
नेता मेरे साथ
दलगत राजनीति करते है,
और छले जाते है हम दलित
कारण की
राजनीति की तुला पर
हम हमेशा
तुलाकुट किए जाते है
कारण की
हमारी मोल ऐसे ही लगती है
क्षारित समाज में,
अब एक आशा की किरण जगी है
जब से दलितों का भी चरण
पखारे जाने लगे है
देश के प्रधानमंत्री के द्वारा
अंबेडकर के पथ पर चल कर,
और दलितों के मर्यादा का भी
ख्याल रखा जायेगा
क्योंकि भारत भूमि पर
अब मोदी की सरकार है,
जहां बुराइयों के क्षालन का कार्य
होने लगा है,
और समाज में स्वच्छता का कार्य
पहले हम दलित ही करते थे
अब धनाधीश भी,
हाथ में झाड़ू लिए करने लगे है
स्वच्छता मिशन के नाम पर
यह दलितों के मर्यादा का ख्याल है
और बाबा साहेब अंबेडकर का
पूरा-पूरा सम्मान है,
क्योंकि भारत में अब
मोदी की सरकार है।

अशोक वर्मा “हमदर्द”, लेखक

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