अन्नदाता तुम आना जब दिल्ली बुलाए ( मरी हुई संवेदना )

डॉ. लोक सेतिया, स्वतंत्र लेखक और चिंतक

किसानों को दिल्ली आने से रोकना सत्ता का अनुचित इस्तेमाल कर तमाम तरह से , उनको अपनी बात दिल्ली की बहरी सरकार को सुनाना कोई अनुचित कार्य नहीं है जिसके लिए आंसू गैस और सर्दी में ठंडे पानी की बौछारों से जैसे अमानवीय कदम उठाये जाने चाहिएं थे। देश भर के लोगों का पेट भरने को अनाज पैदा करने वाले अन्नदाता को कोई इस ढंग से अपमानित नहीं कर सकता है। ये तो बेशर्मी की हद है कि सत्ता पर बैठा कोई खुद को जनता का सेवक कहने वाला किसान को मिलने को निर्देश देकर कहे कि अभी जाओ वापस और तीन दिसंबर को आने को बुलावा मिला है तब दिल्ली आना। उनका अधिकार है किसानों के लिए बनाये कानूनों पर आंदोलन करना विरोध जताना। शायद दिल्ली में सत्ता के गलियारों में बसने वालों को देश की वास्तविकता का पता नहीं है कि भारत गांव खेत खलियान में बसता है महानगर के आलिशान भवनों में नहीं और देश की अर्थव्यवस्था से लेकर राजनीति के उतार चढ़ाव और इतिहास बनाने बदलने की बुनियाद वहीं पर है।

जिन ऊंचे महलों में बड़े बड़े लोग राजसी शान से रहते हैं उनका निर्माण गांव के ही किसान मज़दूर के खून पसीने से करते रहे हैं। ये महनतकश लोग जिस दिन अपना हिस्सा मांगेंगे सत्ता के शिखर पर बैठे लोगों ही नहीं तमाम धनवान और तथाकथित ख़ास वर्ग वालों के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक जाएगी।

जाँनिसार अख़्तर जी के शेर के साथ अभी बात को अल्पविराम दे रहा हूं। कल सुबह बाक़ी बहुत कुछ लिखना है।

सारी दुनिया में गरीबों का लहू बहता है
हर ज़मीं मुझको मेरे खून से तर लगती है।

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