भोपाल की पुरानी कवयित्रियों में मनोरमा पंत का नाम महत्वपूर्ण है। साहित्य के कई दौर को निकट से देखने-जानने के अलावा लेखिका के तौर पर इनकी रचनाओं में समाज के साधारण वर्ग के लोगों के प्रति गहरी संवेदना है! प्रस्तुत है इनसे राजीव कुमार झा की बातचीत!
प्रश्न : सदियों से हिन्दी कविता समाज और संस्कृति को क्या संदेश देती है।
उत्तर : वेदों से लेकर आधुनिक काल से पहले लिखी गई कविता की पृष्ठ भूमि और उसके प्रेरणास्रोत अधिकतर राष्ट्रीय ही रहे हैं। इन कविताओ में समाज के नैतिक मूल्यों के प्रति अगाध निष्ठा और संस्कृति को यथा संभव अक्षुण्ण बनाने का आग्रह परिलक्षित होता है।
प्रश्न : कविता लेखन की ओर झुकाव कब और कैसे हुआ?
उत्तर : विवाह के पश्चात मैंने एक साहित्यिक रूचि से ओतप्रोत संयुक्त परिवार में कदम रखा। मेरे ऊपर गहरा प्रभाव पडा मेरी सास हरिप्रिया पंत का। वह एक विदुषी महिला थी, जिनको पढने का शौक था। घर के नीचे लायब्रेरी थी, बस दोनों सास बहू निरन्तर पुस्तके पढती और चर्चा करती। उस समय मैं केन्द्रीय विद्यालय महू में शिक्षिका थी। बाद में भोपाल तबादला हो जाने से जेठ कैलाशनाथ पंत का सानिध्य प्राप्त हुआ, जो भोपाल हिन्दी भवन के मंत्री संचालक है। वहीं शिवमंगल सिंह सुमन ने मेरी एक कविता सुनी और कविता लिखने को प्रोत्साहित किया। बस सिलसिला चल पडा।
प्रश्न : आप कविता कैसे लिखती हैं, वर्तमान जीवन के अलावा इसे प्रभावित करने वाली अन्य बातों के बारे में आप क्या सोचती है।
उत्तर : मेरी कविता के विषय आसपास का परिवेश रहता है। कहा जाता है कि मनुष्य एक चलती फिरती किताब है, मेरी कविता की विषयवस्तु मेरे आसपास रहने वाले ही जन साधारण रहते हैं। आजकल सामाजिक परिवेश बहुत तेजी से बदल रहा है। नैतिक सामाजिक मूल्य घट रहे हैं, मान्यताएँ बदल रही है साथ ही इन्टरनेट ने हमारे जीवन में गहरी पैठ जमा ली है। दूसरे देशों में घटे घटनाक्रम आज की कविता को प्रभावित कर रहे हैं, अतः कविता का मूल स्वरूप पूरी तरह से बदल गया है।
प्रश्न : नारी जीवन की चेतना की अभिव्यक्ति और कविता में संस्कृति स्वर का समावेश इस विषय पर अपने विचार प्रकट करे।
उत्तर : जैसा कि मैंने आपको बतलाया पिछले दस पन्द्रह वर्षो में समाज में तेजी से परिवर्तन हुआ है। नारी जीवन में तीव्र गति से स्वयं के प्रति चेतना आई है, जागरूकता आई। आज नारी बंधन नहीं चाहती, उसके विद्रोही स्वर कविता में आग बनकर फूट पडते है, कविता कहती है।
सुनो, वो रश्मियों जो धरती अम्बर लाल करती है।
निकल जाओ अंधेरे से, कि देखों वे आवाज देती है।
एक बानगी और देखिए मधु कपूर की कविता में –
मेरी नसों का तनाव बढता जा रहा है,
नसे अभी फटी नहीं हैं,
पर फटने की कगार पर हैं।
किसी भी समय तुम्हारा पुराना चेहरा निकल सकता है,
तुम्हारे नये उगे ताजे चेहरे की जगह।
आज की स्त्री अब पुरूष पर ऐतबार नहीं करती। मेरी एक कविता है –
तुम्हारे प्रेम में आकंठडूबी थी मैं,
कभी किसी बात पर रूठी न थी मैं।
तुमने मेरे पंख काट सहेज दिये थे,
बिना पंखों के भी खुश थी मैं।
तुमने कहा पहले गगन तुम छू लोगे,
पहले अपने सपने पूरे कर लोगे।
मैंने सोचा तुम्हारे सपने मेरे हैं,
पर तुम तो धोखेबाज निकले।
मेरे पंखों को नोंच फेक गये,
पर मैं हारी नहीं, नये पंख उगा लिये
और नये गगन को खोज लिया,
अब मैं सूरज को भी छू सकती हूँ।
यह रहा नारी का विद्रोही स्वर, जो पुरूष सत्ता को चुनौती दे रहा है। दूसरी ओर संस्कृति के स्वर भी कविताओ में दिखाई पड़ते हैं, जो संतुलन में विश्वास रखकर पुरूष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने को तत्पर है।
पारिवारिक परिवेश : मेरे माता पिता अनपढ परन्तु सुरुचिपूर्ण व्यक्तित्व के स्वामी थे। माँ ने अपने आप पढना सीखा। हम दस भाई बहनों को उच्च शिक्षा दी। आगे जाकर सभी बहने शासकीय विद्यालयों में शिक्षिका बनी।
अनपढ होने के बावजूद वे एक अच्छी चित्रकार थी, जो विरासत में हम सब को मिली।
प्रश्न : प्रिय कवियों और लेखको के बारे में बताइये?
उत्तर : मेरे पसंदीदा कवयित्री हैं अमृता प्रीतम, जिनके विद्रोही तेवर वाली कविताएँ मुझे पसंद है। छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा और कवियों में सुमित्रानंदन पंत मुझे अच्छे लगते हैं। मुझे अटल बिहारी वाजपेई की कविताए भी पसंद हैं जैसे – पुनः चमकेगा दिनकर, कौरव कौन पाडंव कौन, न चुप हूँ न गाता हूँ आदि।
लघुकथा के बारे में मेरे विचार : मेरा एक लघुकथा संग्रह प्रकाशनाधीन है। आरिणी समूह के साँझा लघुकथा संग्रह का सह संपादन मेरे द्वारा किया गया है। भोपाल लघुकथा लेखन का गढ बन चुका है। यहाँ लघुकथा शोध संस्थान कान्ता राय के निर्देशन में चल रहा है। फेसबुक पर इसके बहुतेरे समूह हैं। साहित्य के क्षेत्र में लघुकथा तेजी से लोकप्रिय हो रही है, जिसमें कम शब्दों कम समय में कहानी और लघु कथा का मजा मिल जाता है।लघुकथा की मारक शक्ति नए-नए लोकप्रिय बना दिया।
साहित्य की अभिव्यक्ति के बढते दायरे के संबंध में विचार : साहित्य का बढता दायरा निरन्तर विस्तृत होने से लेखन में नई चुनौतियाँ लेकर आया है। लॉकडाउन में युवा वर्ग लेखन में गहन रूचि लेने लगा है। अब लेखन किसी परिधि में कसा नहीं है। अब वर्जित समझे जाने वाले विषय पर भी खुलकर लिखा जाने लगा है। धार्मिक आख्यानों की व्याख्या युवा वर्ग अपने हिसाब से कर रहा है। पवन पुत्र, वायुपुत्रों की उडान जैसी युवाओ की पुस्तक पढे, उनका नजरिया अचंभित कर जायेगा। नासिरा शर्मा जैसी प्रतिष्ठित लेखिका लिखती हैं “स्त्री होने के बावजूद मैंने मर्द के जरिए समाज की विसंगतियों को देखा।” यह लिखने की कला दिमागों को नहीं बाँटती कि मर्द का दिमाग या औरत का दिमाग, अलग-अलग भावनाएँ हो सकती है। साहित्य के बढते दायरे में अब स्त्री पुरूष दोनों के लेखन का समान महत्व है।
समाज और संस्कृति के उत्थान में नारियों की नई भूमिका : अब स्त्रियाँ आशाजनक कुप्रथा, कुरीतियों तथा मान्यताओं के विरूद्ध खुलकर लिख रही हैं, इससे समाज में एक उजाला दिख पड़ रहा है। ऐसे लेखन को पढकर की स्त्रियों ने अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के विरूद्ध आवाज उठाकर सुरक्षित जीवन पाया है। धार्मिक मान्यताओं का वैज्ञानिक आधार जानकर ही उसे अपनाकर अपनी संस्कृति पुष्ट कर रही हैं।
भोपाल का साहित्यक परिवेश राजधानी होने का फायदा भोपाल को मिला है, जहाँ हिन्दी भवन, भारत भवन जैसे साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थान हैं, जहाँ वर्ष भर साहित्यिक गतिविधियाँ संचालित होती रहती है। इसके अतिरिक्त लेखक संघ लेखिका संघ, दुष्यंत संग्रहालय, स्प्रे संग्रहालय भी प्रसिद्ध संस्थान हैं।
अन्य विधाएँ – मैं व्यंग्य हाईबन, हायकू लिखना पसंद करती हूँ और फुर्सत में ऑयल पेन्टिंग करती हूँ।