वाराणसी। विष्णु पुराण के तृतीय अंश के 13 वें अध्याय के, चौथे,5वें और 6वें श्लोक में और्व ऋषि ने महाराज सगर को पितरों की प्रसन्नता के लिए नान्दी श्राद्ध का विधान बताते हुए कहा कि-
नान्दीमुख:पितृगणस्तेन श्राद्धेन पार्थिव।
प्रीयते तत्तु कर्तव्यं पुरुषैस्सर्ववृद्धिषु।।4।।
नान्दीमुख पितृगण होते हैं। पितृ गणों में नान्दी नाम के पितर मुख्य होते हैं। इसीलिए इस श्राद्ध को नान्दीमुख श्राद्ध कहते हैं। उनके श्राद्ध करने से पितृगण प्रसन्न होते हैं। पितृ गणों की प्रसन्नता से, वंशजों की लौकिक उन्नति होती है। पारलौकिक सुख की भी प्राप्ति होती है।
सत्पुत्र, सत्पुत्री की प्राप्ति होती है। कुल कलंक से रहित, लोक प्रतिष्ठित जीवन व्यतीत होता है।
प्रीयते तत्तु कर्तव्यं पुरुषैस्सर्ववृद्धिषु।
गृहस्थ स्त्री पुरुषों को नान्दीमुख श्राद्ध करने से पितृगण प्रसन्न होते हैं। पितरों की प्रसन्नता से सभी प्रकार की ऋद्धि सिद्धि की प्राप्ति होती है। इसीलिए प्रत्येक गृहस्थ को ये नान्दीमुख श्राद्ध अवश्य ही करना चाहिए।
अब देखिए कि- नान्दीमुख श्राद्ध कब कब करना चाहिए?
कन्यापुत्रविवाहेषु प्रवेशेषु च वेश्मन:।
नामकर्मणि बालानां चूडाकर्मादिके तथा।।5।।
(1) कन्यापुत्रविवाहेषु।
गृहस्थ के पुत्र पुत्री का विवाह होता है तो सभी पुत्रों के विवाह में तथा सभी पुत्रियों के विवाह में नान्दीमुख श्राद्ध अवश्य ही करना चाहिए। जब कोई गृहस्थ अपनी पुत्री का विवाह करते हैं तो अपनी पुत्री को अन्य गोत्र में प्रविष्ट कराते हैं। जिस घर में पुत्री का जन्म होता है तो पितृ गणों की प्रसन्नता से वह अपने माता पिता के यहां निरोग और सुखी रहती है। अन्य गोत्र में प्रवेश करते ही पुत्री के पितृगण, पति के पितृ गणों को इसी प्रकार समर्पित करते हैं जैसे कन्या पिता समर्पित करते हैं। पितृ गणों के आशीष से पति के गृह में प्रवेश करनेवाली कन्या की रक्षा पिता के पितृगण भी करते हैं। इसीलिए प्रत्येक कन्या के विवाह में नान्दीमुख श्राद्ध करना चाहिए।
इसी प्रकार जब कोई गृहस्थ अपने पुत्र का विवाह करते हैं तो अन्य गोत्र से आई हुई कन्या को पितृगण स्वीकार कर लेते हैं तो उस पुत्रवधु की रक्षा भी पितृगण करते हैं। नान्दीश्राद करने से विवाह के मूहूर्त का दोष भी निवृत्त हो जाता है।
(2) प्रवेशेषु च वेश्मन:। (गृहप्रवेश)
जब कोई गृहस्थ किसी नवीन गृह का निर्माण करते हैं तो भूमि दोष भी रहता है। भूमि दोषों की निवृत्ति के लिए ही नान्दीमुख श्राद्ध करना चाहिए।
(3) नामकर्मणि बालानाम् (बालक बालिका के नामकरण के समय)
घर में जब किसी बालक बालिका का जन्म होता है तो बाल ग्रहों का भी प्रकोप होता है। षष्ठी देवी आदि की अप्रसन्नता के कारण बालक बालिका भी बारम्बार रोगग्रस्त होते रहते हैं। बालक बालिका के जन्म से दसवें दिन नामकरण संस्कार कराना चाहिए।
विद्वान ब्राह्मण को बुलाकर, नान्दीमुख श्राद्ध करवाकर ही नामकरण संस्कार कराना चाहिए।
(4) चूड़कर्मादिके तथा। (प्रथममुण्डन के समय)
सभी गृहस्थों को बालक बालिका का गर्भ से प्राप्त बालों को प्रथम बार कटवाने को चूडाकर्म कहते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र सभी को चूडाकर्म प्रथम वर्ष में अथवा तृतीय वर्ष में करवाना चाहिए।
चूडाकर्म में भी पितरों की प्रसन्नता के लिए नान्दीमुख श्राद्ध करना चाहिए।
सीमन्तोन्नयने चैव पुत्रादिमुखदर्शने।
नान्दीमुखं पितृगणं पूजयेत् प्रयतो गृही।।6।।
(5) सीमन्तोन्नयने (गर्भवती स्त्री का सीमन्त संस्कार)
गर्भवती स्त्री का गर्भ जब पांचवें या छठवें महीने का हो जाता है तो सीमन्त उन्नयन संस्कार किया जाता है। इस संस्कार के करने से गर्भदोषों का नाश होता है तथा प्रसव भी सरलता से हो जाता है।
विद्वान शास्त्रज्ञ ब्राह्मणों को बुलाकर जब ये संस्कार करावे तो नान्दीमुख श्राद्ध भी अवश्य करवाना चाहिए।
(6) पुत्रादिमुखदर्शने।
बालक बालिका के जन्म के पश्चात शुद्धि होने पर, जब पिता अपने पुत्र पुत्री का प्रथम बार मुख दर्शन करे तो, इसके पूर्व में नान्दीमुख श्राद्ध करवाना चाहिए।
किसी ग्रह के कारण पिता को यदि पुत्र दुखदायी होता है तो उस दोष की निवृत्ति होती है। इसीलिए नान्दीमुख श्राद्ध अवश्य ही करना चाहिए।
नान्दीमुखं पितृगणं पूजयेत् प्रयतो गृही।
गृही अर्थात प्रत्येक गृहस्थ को नान्दीमुख श्राद्ध करवा कर, पितृ गणों का पूजन अवश्य ही करना चाहिए। प्रयत्न पूर्वक करना चाहिए।
गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त जितने भी संस्कारों का विधान किया गया है वे सभी विधान, मनुष्य मात्र के ऋद्धि सिद्धि, प्रतिष्ठा और सुख सम्पत्ति के लिए ही होते हैं। इसीलिए विद्वान ब्राह्मण को बुलाकर धन का लोभ त्याग कर, आलस्य प्रमाद का त्याग करके, संस्कारों को यथाशक्ति अवश्य ही करना चाहिए। यही तो गृहस्थ जीवन को आनन्दमय बनाने के लिए शास्त्रों में विधान किया गया है।
ज्योर्तिविद रत्न वास्तु दैवज्ञ
पंडित मनोज कृष्ण शास्त्री
मो. 99938 74848
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