श्री राम पुकार शर्मा, हावड़ा। प्राचीन काल से ही हम सनातनी हिन्दू अनुयायियों के लिए प्रकृति का हर एक कण और हर स्वरूप ही पूज्यनिय रहे हैं, क्योंकि हमारे जीवन को साधने में उन समस्त प्राकृतिक स्वरूपों का बराबर आनुपातिक सहयोग रहा है। अतः उनके प्रति हम अपनी कृतज्ञता को समयानुसार उनके पूजन के माध्यम से प्रकट करते रहे हैं। फलतः हमारे लिए मिट्टी से लेकर व्योम होते हुए अंतरिक्ष के विभिन्न पिंड तथा सूक्ष्म जीव से लेकर स्थूल प्राणी तक सभी आराध्य स्वरूप हैं। भले ही हम अपने देवी-देवताओं को प्रत्यक्ष देख पाने में सक्षम नहीं हो पाते हैं, परंतु हम समस्त प्राकृतिक रूपों में देवी-देवता के स्वरूप को स्थापित कर उन्हें सर्वदा पूज्यनिय बनाए हुए हैं।
हमारे अनगिनत देवी-देवताओं में एकमात्र ‘सूर्यदेव’ ही मूर्त स्वरूप में हमें प्रतिदिन दिखाई देते हैं, जो सौर-सृष्टि के समस्त चराचरों के जीवन का एकमात्र मूलाधार हैं। सूर्य परिवार अर्थात ‘सूर्यदेव’, उनकी दोनों शक्ति-स्वरूपा पत्नी ‘प्रत्यूषा’ और ‘उषा’ तथा उनकी भार्या ‘छठी मईया’ के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का स्वच्छता सहित सादर उपासना का ही महापर्व ‘छठ पूजा’ है। ‘छठ’, ‘षष्ठी’ शब्द का ही अपभ्रंश स्वरूप है। मूलत: ‘षष्ठी’ तिथि को सूर्यदेव को समर्पित होने वाले इस महापर्व को ही ‘छठ’ कहा जाता है।
सूर्य की घातक पराबैगनी किरणें चंद्र-सतह से परावर्तित होकर पृथ्वी के वायुमंडल के विभिन्न स्तरों को भेद कर प्रवेश करती हुई पुनः परावर्तित होकर पृथ्वी पर सूर्यास्त तथा सूर्योदय बेला में आवश्यकता से कुछ अधिक सघन होकर पहुँचती है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार यह घटना विशेषकर कार्तिक तथा चैत्र माह के शुक्लपक्ष की ‘षष्ठी’ तिथि के आस-पास होती है। इन दोनों घातक स्थितियों में समस्त चराचरों की रक्षा की कामना हेतु ही वर्ष भर में दो बार ‘षष्ठी पूजा’ या ‘छठ पूजा’ या ‘सूर्य षष्ठी पूजा’ की मनाने की हमारी प्राचीन परंपरा रही है।
चैत्र माह में आयोजित ‘छठ’ को ‘चैती छठ’ कहा जाता है और फिर कार्तिक माह में आयोजित ‘छठ’ को ‘कार्तिक छठ’ कहा जाता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार ‘छठ मईया’ को ब्रह्मा की ‘मानस पुत्री’ कहा गया है। एक अन्य मान्यता के अनुसार ‘छठ मईया’ को महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी अदिति की पुत्री और सूर्यदेव की भार्या माना गया है। इस प्रकार ‘छठ’ महापर्व भगवान ‘सूर्यदेव’, उनकी पत्नी ‘उषा’ और ‘प्रत्यूषा’, उनकी भार्या ‘छठी मईया’ के साथ ही प्रकृति के समस्त स्वरूपों के प्रति ही विशेष रूप से भाव समर्पित आराधना है।
‘छठी माता’ और ‘भगवान सूर्य’ के संयुक्त स्वरूप की पूजन ‘छठ पर्व’ के रूप में वैदिक काल से ही परंपरागत रूप से अनवरत आज तक चलते आ रहा है। महापर्व ‘छठ’ पूर्णतः प्रकृति-अनुकूल, परस्पर मानवीय सहयोग और निज स्वाभिमान को त्याग कर पूर्ण समर्पण का त्यौहार है। इसमें छठ व्रती (जिन्हें ‘परवैतिन’ भी कहा जाता है) और प्रकृति स्वरूपों के बीच कोई मूर्ति या कोई पुरोहित की मध्यक्षता का कोई स्थान नहीं होता है। छठ व्रती (परवैतिन) ही स्वयं पुजारी और स्वयं पुरोहित हुआ करते हैं।
इस पर्व के माध्यम से छठव्रती समस्त चराचरों के जीवन की रक्षा हेतु सबके जीवन का आधार साक्षात मूर्त सूर्यदेव सहित प्रकृति के अन्य जीवन रक्षक स्वरूपों की उपासना करते हैं और उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए पारिवारिक और सामाजिक सुख, समृद्धि, सौभाग्य आदि की कामना करते हैं। महापर्व ‘छठ’ का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी, पवित्रता और लोकपक्ष है। भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व में वाह्याडाम्बरों का कोई अस्तित्व ही नहीं रहता है, न ही किसी से कोई प्रतिस्पर्धा ही रहती है।
सब ‘परवैतिन’ अपने घरेलू साधारण वेश-भूषा में एक ही भावरस के प्रेम-बंधन में सर्वत्र ही ‘हे छठी मईया, सुन ली अरजिया हमार’ में बंधे दिखाई पड़ते हैं। कोई जातिगत या सामाजिक विभेदता नहीं, सब केवल मात्र ‘परवैतिन’ और कोई दूसरा परिचय नहीं। साधारण बाँस से निर्मित साधारण सूप, दउरा (डलिया) में गन्ने का रस, गुड़, चावल और गेहूँ से निर्मित प्रसाद (ठेकुआ), चावल के आटे से बना ‘कसार’ और कर्णप्रिय सामूहिक सुमधुर लोकगीतों का ही विशेष महत्व होता है।
ये सभी परस्पर मिलकर लोक-जीवन को भरपूर अपनी मिठास प्रदान करते हैं। इस पर्व हेतु विभिन्न उपकरणों, सामानों, फल-फूलों, कपड़े, सलिला जलाशय आदि का चयन जैसे प्रारम्भिक कार्य से लेकर इसकी पूर्णता, अर्थात प्रसाद वितरण और ग्रहण तक सर्वत्र ही स्वच्छता और पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। ‘छठ’ चार दिनों का विशेष संयमयुक्त महापर्व है। इस महापर्व संबंधित दैनिक विशेष प्रक्रिया के अंतर्गत पहला दिन, अर्थात शुक्लपक्ष चतुर्थी को ‘नहाय-खाय’ से प्रारंभ होता है ।
इस दिन घर-द्वार की सफाई कर उसे पवित्र स्वरूप दिया जाता है। छठव्रती (परवैतिन) गंगा नदी या नजदीक की नदियों अथवा पवित्र जलाशय में जाकर स्नान करते हैं। लौटते समय वे सभी अपने साथ ‘गंगाजल’ लेकर आते हैं, जिसका उपयोग वे मिट्टी से बने चूल्हे में आम की लकड़ी से मिट्टी या कांसे के वर्तन में लौकी की सब्जी, मुंग-चना दाल, चावल आदि के भोजन बनाने में करते हैं। छठ व्रती (परवैतिन) इस दिन सिर्फ एक बार ही भोजन करते हैं। सबसे पहले छठव्रती, उसके बाद ही परिवार के अन्य सदस्य भी प्रसाद स्वरूप उसे सादर ग्रहण करते हैं।
महापर्व ‘छठ’ के दूसरे दिन, अर्थात शुक्लपक्ष पंचमी को ‘खरना’ या ‘लोहंडा’ कहा जाता है। इस दिन छठव्रती (परवैतिन) पूरे दिन का निर्जला उपवास रख कर शाम को चावल गुड़ और गन्ने के रस से बने ‘खीर’ तथा गेहूँ के आटे की बनी रोटियाँ बनाते हैं। घर के एकांत में उस ‘खीर’ तथा रोटी को सबसे पहले सूर्यदेव को नैवैद्य ‘अग्रासन’ के रूप प्रदान कर फिर स्वयं ग्रहण करते हैं। तत्पश्चात घर के सदस्य और आगतजन ‘खीर-रोटी’ को प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते हैं।
कुछ प्रांतों में चना-दाल और कुछ पूर्णतः सात्विक तरकारी का भी प्रयोग होता किया जाता है। इसके बाद से ही अगले लगभग ३६ घंटों के लिए छठव्रती लगातार निर्जला उपवास रखते हैं। महापर्व ‘छठ’ के तीसरे दिन, अर्थात शुक्लपक्ष षष्ठी को ‘प्रत्यूषा’ (संध्या अस्तगामी सूर्य) की उपासना स्वरूप ‘संध्या अर्ध्य’ का दिन होता है। इस दिन पूरी पवित्रता का पालन करते हुए छठी व्रती (परवैतिन) गेहूँ के आटे, गुड आदि से प्रसिद्ध प्रसाद ‘ठेकुआ’ तथा ‘कचवनिया’ या ‘कसार’ (चावल के लड्डू) बनाते हैं।
इस कार्य में तथा पूजा की तैयारी में घर के अन्य सदस्यगण भी पवित्रता का पूर्णतः ध्यान रखते हुए साथ देते हैं। फिर पूजन सामग्री से ‘दउरा’ (डलिया) को सजा कर घर का पुरुष सादर अपने माथे पर धारण किए पवित्र सलिला या जलाशय के ‘छठ घाट’ पर ले जाता है । उनके साथ ही छठव्रती (परवैतिन) और महिलाएँ ‘काँच ही बाँस के बहँगिया, बहँगी लचकत जाए’ जैसे छठ के परंपरिक गीत’ गाते हुए जाते हैं।
सूर्यास्त से कुछ पूर्व तक छठ व्रती (परवैतिन) कमर भर पानी में खड़े राह कर पूजन सामग्री से सजे ‘दउरा’ को अपने हाथों पर धारण किए ‘प्रत्यूषा-सूर्य’ का ध्यान करते हैं और फिर अस्तगामी सूर्यदेव की ‘प्रत्यूषा-किरणों’ को अर्घ्य देते हैं। तत्पश्चात ‘छठ के गीत’ गाते हुए अपने सारे सामान के साथ घर वापस आ जाते है। ‘दउरा’ के सभी पूजन-सामग्री को बदल दिया जाता है, अर्थात ‘दउरा’ को पुनः सारे नए सामानों से सजाय जाता है, आगामी कल के प्रातः कालीन ‘उषा-सूर्य’ की उपासना के लिए।
महापर्व ‘छठ’ के चौथे दिन, अर्थात शुक्लपक्ष सप्तमी की ब्रह्म मुहूर्त भोर बेला में ही पुनः नए पूजन सामग्रियों से सजे ‘दउरा’ को माथे पर धारण किए लोग ‘छठ के गीत’ गाते हुए छठव्रतियों के साथ ‘छठ घाट’ पर पहुँचते हैं। चतुर्दिक ‘सुरुज देव’ और ‘छठी मईया’ के सुमधुर गीतों से सम्पूर्ण वातावरण गुंजित होती रहती है। इस समय भी छठव्रती (परवैतिन) पुनः कमर भर पानी में उतर कर नए पूजन-सामग्री से सजे ‘दउरा’ को अपने हाथों पर धारण किए ‘उषा-सूर्य’ का ध्यान करते हैं और फिर उदित सूर्यदेव के ‘उषा-किरणों’ को अर्घ्य देते हैं।
घाट पर उपस्थित सौभागिन (ब्याहिता) महिलाएँ एक दूसरों को पवित्र नारंगी सिंदूर से ‘जोड़ा माँग’ (नाक से शीश तक लंबी लकीर युक्त सिंदूर लगाना) भरती हैं, जो उनके पति की लंबी दीर्घायु का संकेत स्वरूप होता है। बड़ों का आशीर्वाद लेकर और छोटों को आशीर्वाद देते हुए स्वयं ‘छठ’ का अमृत तुल्य प्रसाद ग्रहण कर अन्य सभी को प्रसाद प्रदान कर ‘छठ महापर्व’ की पूर्णता को प्रदान करते हैं। भारत में सूर्योपासना की परंपरा का इतिहास बहुत पुराण अहै, संभवतः ऋगवेद काल से चला आ रहा है । फिर विष्णुपुराण, भगवतपुराण, ब्रह्मावैवर्तपुराण आदि से होता हुआ मध्य काल में आते-आते ‘छठ सूर्योपासना’ के रूप में पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित हो गया, जो आज तक अनवरत चलते आ रहा है।
भविष्य में तो यह विश्व स्तर पर और भी व्यापक स्वरूप को ही धारण करेगा। कहा जाता है कि लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की थी। सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था। इसी तरह महाभारत काल में सूर्य के परम भक्त सूर्यपुत्र कर्ण प्रतिदिन घण्टों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्यदेव को अर्घ्य देते थे।
पांडवों की पत्नी महारानी द्रौपदी ने भी अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लम्बी उम्र के लिए नियमित सूर्यदेव की उपासना किया करती थीं। विधि-विधान से महापर्व ‘छठ’ की आराधना करने से ‘परवैतिन’ तथा उससे संबंधित परिजन को संतान सुख, परिजन को बेहतर स्वास्थ, मनवांछित फल की प्राप्ति और सूर्य सदृश तेज-बल प्राप्त होता है। ‘षष्ठी’ देवी की कृपा से बच्चों पर आने वाले संकटों का नाश हो जाता है।
भारत में सूर्यदेव को पूर्ण समर्पित कई मन्दिर हैं, पर छठ पूजा के लिए बिहार प्रान्त के कुछ प्रसिद्ध सूर्य मंदिर – बड़ार्क (बड़गांव, नालंदा), देवार्क (देव, औरंगाबाद), उलार्क (उलार, पालीगंज, पटना), पुण्यार्क (पंडारक, बाढ़), ओंगार्क (अंगोरी), बेलार्क (बेलाउर, भोजपुर), सूर्य मंदिर (गया) झारखंड प्रान्त में बुंडू, (राँची) आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। वैसे भी छठ पूजा के लिए मन्दिर की अपेक्षा किसी सलिला या जलाशय की ही प्रधानता रहती है।
इस वर्ष २०२३ के महापर्व ‘छठ’ की प्रमुख तिथियाँ -
- छठ पूजा का पहला दिन नहाय-खाय 17 नवंबर, शुक्रवार
- छठ पूजा का दूसरा दिन खरना (लोहंडा) 18 नवंबर, शनिवार
- छठ पूजा का तीसरा दिन छठ पूजा, संध्या अर्घ्य 19 नवंबर, रविवार
- छठ पूजा का चौथा दिन उगते सूर्य को अर्घ्य, पारण 20 नवंबर, सोमवार
महापर्व ‘छठ पूजा’ के पावन अवसर पर हम सभी भी सौर देवता ‘सूर्यदेव’ सहित ‘छठी माईया’ को सादर प्रणाम करते हुए पृथ्वी पर समस्त चराचरों की प्रचुरता प्रदान करने और उनकी सतत रक्षा करने के लिए अपनी कृतज्ञता व्यक्त करें। साथ ही साथ पृथ्वी पर मानवीय सदिच्छाओं को पूर्ण करने के लिए उनसे सादर अनुरोध करें।
‘ॐ सूर्याय नमः। ॐ ह्रीं षष्ठी देव्यै नमः।’
श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक एवं लेखक
हावड़ा – (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com