डॉ. गंगा प्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’, कोलकाता। जैसे बरगद के नीचे उगने वाले पादप आगे चलकर कुपोषित होकर न केवल पीले पड़ जाते हैं, अपितु निष्प्राण भी हो जाते हैं। वैसे ही महान विभूतियों के आसपास या परिवार में जन्म लेने वाले व्यक्तित्व अपनी बड़ी गरिमा के बावजूद पनप नहीं पाते और उनके साथ न्याय नहीं हो पाता। यह साधारण बात नहीं है कि बचपन में नदी तैर कर पढ़ने जाने वाला सामान्य विद्यार्थी प्रधानमंत्री बनता है। इन असामान्य प्रतिभा के धनी व्यक्तित्वों का कोई खास नामलेवा पहले नहीं होता लेकिन ऐसी विभूतियों की मृत्यु के बाद लोगों का तांता लग जाता है। सब अपने-अपने उल्लू सीधे करते हैं। नेहरू की मृत्यु के बाद ही कांग्रेस को पता चलता है कि भारत जैसे बड़े लोकतंत्र का बड़ा नेता लाल बहादुर शास्त्री ही हो सकता है। ऐसे देश का नेतृत्व जिसमें बहुभाषी संस्कृति और बहुलतावादी विचारधारा के लोग रहते हैं, उसमें लाल बहादुर शास्त्री जैसा समन्वयशील व्यक्ति का प्रधानमंत्री बनना बहुत बड़ी बात नहीं।
उनका साधारण परिवार में जन्म लेकर भी इतने बड़े पद के उपयुक्त माना जाना यानी कांग्रेस के द्वारा उनका प्रधानमंत्री पद के लिए चयन उस समय की एक बड़ी परिघटना थी। वह इसलिए कि नेहरू जैसे बड़े व्यक्तित्व वाले व्यक्ति के परिवार से कोई व्यक्ति ना लिया, जाकर बाहर से लिया गया व्यक्ति प्रधानमंत्री बन रहा था। यह बात और है कि इस क्रांतिकारी कदम का स्वागत कांग्रेस के भीतर ही कुछ लोग नहीं कर सके और जिन परिस्थितियों में लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु ताशकंद में हुई वह आज भी जांच का विषय है। उनकी मृत्यु आज भी संदेह के घेरे में है। ऐसा क्या हुआ उनके साथ जो उनका शरीर नीला पड़ गया था। ऐसा क्या हुआ उनके साथ कि उनके लिए कोई जांच समिति नहीं बनी। ऐसा क्या हुआ उस शास्त्री जी के साथ कि लाल बहादुर शास्त्री को आनन-फानन में भारत लाकर अंतिम संस्कार कर दिया गया। उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट की बहुत सारी बातें है जो लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु की परिघटना को संदेह के घेरे लाती है।
लाल बहादुर शास्त्री का व्यक्तित्व बहुत ही सादा, सरल और सहज था।ईमानदारी की प्रतिमूर्ति थे शास्त्री जी। एक बार वे अपने बच्चों को मेला ले गए थे। उसे समय उनके पास एक रुपया भी नहीं था तो उन्होंने अपनी बहन से पांच रुपए उधार लिए ताकि अगर सुनील शास्त्री और अनिल शास्त्री में से कोई बेटा उनसे कुछ सामान लेने के लिए दबाव बनाए तो वे उधार लिए हुए पांच रुपए में से खर्च कर सकेंगे। लेकिन पूरा मेला घूमने के बाद भी न अनिल को कुछ खरीद कर दिया और न सुनील को। दोनों बच्चे उदास और निराश भाव से उनके साथ घर वापस आ गए। जब उन्होंने पांच रुपए अपनी बहन को वापस किए तब उन बच्चों की प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी कि बुआ को पांच आप दे सकते हैं और हमको कुछ लेकर नहीं दे सकते। इस पर शास्त्री जी ने कहा बेटा इन्हीं से उधार लिए थे। जब खर्च ही नहीं हुए तो अपने पास रखकर के कर्ज क्यों बढ़ाता। उनके जीवन की और भी बहुत सारी घटनाएं हैं, जो हमें बताती हैं कि जीवन के जो मूल्य हैं, वे इनमें गन्ने के भीतर रस की भांति समाए हैं।
मूल्य के जो पक्षधर हैं, वे कभी समझौता नहीं करते। आर्थिक मूल्य से लेकर सांस्कृतिक मूल्यों तक से इन्होंने अपने को एक इंच भी इधर से उधर नहीं किया। जीवन मूल्यों के अनुपालन में तो ये बापू से भी अधिक सख्त थे। एक बार इन्होंने अपने बेटे सुनील शास्त्री को मिट्टी का तेल लेने के लिए राशन की दुकान पर भेजा। राशन की दुकान वाले ने देखा कि प्रधानमंत्री का बेटा लाइन में खड़ा है तो उसने तुरंत उनको आगे से तेल दे दिया। सुनील जी जब लौट के घर गए तो उनके पिता ने पूछा इतनी जल्दी कैसे आ गए तो उन्होंने सारा वृत्तांत बताया। इस बार शास्त्री जी ने कहा तुम उल्टे पांव वापस जाओ और यह तेल उसे वापस कर दो और अपनी बारी के लिए खड़े हो जाओ। जब तुम्हारी बारी आए तब तेल लेकर आना। यह थे शास्त्री जी और यह था उनका जीवन मूल्य। शास्त्री के जीवन मूल्यों से हमारे समाज को बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। जनता से लेकर हमारे मंत्रियों, विधायकों और प्रशासकों तक के लिए एक आदर्श थे शास्त्री जी।
सन् 1965 की विजय के बावजूद दुनिया की गंदी राजनीति ने भारत पर समझौते का दबाव बनाया। जीती हुई भूमि पाक को वापस करनी पड़ी। उनकी मृत्यु के पीछे सदमे का तर्क दिया जाता है। लेकिन जिस जीवट से उन्होंने पाकिस्तान को भीगी बिल्ली बना के छोड़ा था उससे तो कतई नहीं लगता कि वे हृदयाघात के लायक कमज़ोर दिल वाले इंसान थे। बापू के बाद विकृत मानसिकता और पद लोलुपता के मगरमच्छ ने हमारे इस कोहिनूर को भी असमय हजम कर लिया। दो अक्तूबर को बापू के जन्मदिन के चलते इनको लोग अक्सर भूल जाते हैं। जो याद भी करते हैं वे दो तीन वाक्यों में ही अपने वक्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। इस दृष्टि से भारत के दूसरे प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री बरगद के नीचे का पादप हैं, जिन्हें बापू जैसे बहुत बड़े बरगद के नीचे होने के कारण प्राय: उपेक्षित कर दिया जाता है।