कोलकाता। देश की आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन चलाने के लिए जब भारी धनराशि की जरूरत पड़ी तब अमर क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खां, राम प्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लाहिड़ी के साथ केशव चक्रवर्ती समेत दस क्रांतिकारियों ने नौ अगस्त 1925 को चर्चित काकोरी कांड को अंजाम दिया था। इस दौरान लखनऊ के पास स्थित स्टेशन के करीब ब्रिटिश रेल को लूटने में दस क्रांतिकारियों ने ऐसा धावा बोला कि ट्रेन में मौजूद दो सशस्त्र गार्ड खिड़की और दरवाजे बंद कर तब तक बैठे रहे जब तक ट्रेन अगले स्टेशन पर सुरक्षित नहीं पहुंच गई।
14 अंग्रेज यात्रियों के पास बंदूकें थीं लेकिन क्रांतिकारियों ने कह दिया था कि उन्हें यात्रियों से कोई समस्या नहीं है। जिसके बाद सारे यात्री डरे-सहमे इन्हें देखते रहे। ट्रेन को लूटने के लिए इनके पास पिस्तौल के अलावा चार जर्मन माउजर भी थी जिसके बट में कुंदा लगा होने की वजह से यह स्वचालित राइफल की तरह दिखती थी। केवल दस मिनट में क्रांतिकारियों ने पूरी ट्रेन को लूट ली।
यह डकैती कितनी प्रभावी थी इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अंग्रेजों ने काकोरी थाने में प्राथमिकी दर्ज की थी जिसकी मूल प्रति उर्दू में लिखी गई थी। बाद में इसका हिंदी अनुवाद किया गया। इसमें पता चलता है कि अंग्रेजों ने अभियुक्तों की संख्या 20 से 25 लिखी और लूट की रकम 4601 रुपये 15 आने और छह पाई दर्ज की। केवल इतनी राशि की लूट से अंग्रेज सरकार इतनी तिलमिला गई थी कि क्रांतिकारियों को पकड़ने और उन्हें सजा देने के लिए दस लाख रुपये खर्च किए थे। उस दौर में दस लाख रुपये की कीमत आज करोड़ों के बराबर है।
इस लूट कांड में शामिल चंद्रशेखर आजाद और रामप्रसाद बिस्मिल के अलावा राजेंद्र लाहिड़ी, मन्मतनाथ गुप्ता और अन्य क्रांतिकारियों की तो चर्चा खूब होती है लेकिन केशव चक्रवर्ती इतिहास में गुमनाम रह गए। इस टीम में एक और बंगाली क्रांतिकारी थे जिनका नाम सचिंद्रनाथ बक्शी था। केशव मूल रूप से कोलकाता के रहने वाले थे और कोलकाता मेडिकल कॉलेज के छात्र जीवन से ही आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे। वह अनुशीलन समिति के सदस्य बन गए थे।
तब बंगाल के बड़े क्रांतिकारी हुआ करते थे श्यामसुंदर चक्रवर्ती जिनके बेहद खास थे केशव चक्रवर्ती। बाद में वह हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) के सदस्य बन गए तथा बिस्मिल और अशफाक उल्ला के साथ मिलकर काकोरी कांड को अंजाम दिया था। 9 अगस्त 1925 को काकोरी लूट कांड के बाद अंग्रेजों ने इन सभी क्रांतिकारियों को फैजाबाद की जेल में 19 दिसंबर 1927 को फांसी पर चढ़ा दिया था।
इतिहासकार सुधीर विद्यार्थी इस काकोरी कांड के क्रांतिकारियों को नमन करने के साथ ही इसमें खासतौर पर अशफाकउल्ला खां का जिक्र करते हुए कहते हैं कि वह युग मुख्यतः अशफाक उल्ला खां का युग था। उन्होंने इस पर किताब भी लिखी है जिसका शीर्षक है अशफ़ाक उल्ला और उनका युग।
बरेली से हिन्दुस्थान समाचार से फोन पर बातचीत में सुधीर ने बताया कि इस क्रांति को मुख्य रूप से चंद्रशेखर आजाद और रामप्रसाद बिस्मिल से जोड़ा जाता है लेकिन अगर गहन रिसर्च किया जाए तो यह दरअसल अशफाक उल्ला खां का युग था। खुद रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में कई चिट्ठियां दर्ज की है जो उन्होंने अशफाक उल्ला खां के नाम लिखी थी। इसमें वह अशफ़ाक उल्ला को प्रिय अशफाक उल्ला लिखते हैं और आर्य समाज मंदिर में आने जाने से लेकर वतन के प्रति समर्पण पर जो हो काव्यमय पत्र लिखे हैं वह क्रांतिकारियों को हमेशा प्रेरित करने वाला रहा था।
सुधीर कहते हैं, एक मुस्लिम और हिंदू क्रांतिकारी का एक साथ वतन के लिए फांसी के फंदे पर झूलने का दूसरा कोई उदाहरण नहीं है। वहां कहीं धर्म आड़े नहीं आया और ना ही मजहब की कोई प्रेरणा थी। केवल वतन और वतन के लिए मर मिटने की ललक ने अशफाक उल्ला खां को खास बनाया। निश्चित तौर पर यह हिंदू-मुस्लिम एकता की बात नहीं बल्कि क्रांतिकारी विचारधारा की एकता की बात थी।
सुधीर आगे कहते हैं, अंग्रेजी में कहावत है चैरिटी बिगिंस एट होम। यानी बदलाव की शुरुआत अपने घर से होनी चाहिए। आजादी की लड़ाई में या किसी भी क्रांति में बाहरी बदलाव की बातें बहुत की जाती हैं लेकिन अशफाक उल्ला खां ऐसे पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने अपनी वालिदा के नाम कई पत्र लिखे हैं, जिसमें वतन की आजादी की बात की है। मां को लिखी उनकी चिट्ठियों में कहीं भी परिवार के स्वार्थों की बात नहीं है ना ही मजहबी बातें हैं।
केवल और केवल मां भारती को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त करने की बातें लिखी गई हैं। जवाबी खत ने भी हमेशा उनके जज्बातों को बढ़ाया। उनकी इसी वतन परस्ती से केशव चक्रवर्ती से लेकर बाकी क्रांतिकारी बेहद प्रभावित थे। बाद में क्रांतिकारी भगत सिंह और अन्य साथियों ने जिस समाजवाद और सांप्रदायिकता से परे एकजुटता की बात की थी वह अशफाक उल्ला खां से ही प्रेरित थीं।
महज 25 साल में अशफाक उल्ला खां को फांसी पर चढ़ाया गया और केशव चक्रवर्ती की भी आयु लगभग उसी के आसपास थी। इसके बाद पूरे देश में क्रांति की ज्वाला भड़क उठी थी। वतन पर मर मिटने वालों के जोश और जुनून के सामने अंग्रेजी हुकूमत ऐसी पस्त हुई कि उन्हें भारत छोड़ कर भागना पड़ा।