गोपाल सिंह ‘नेपाली’ की जयंती पर विशेष…

‘देखा-देखी हम जी न सके, देखा-देखी हम मर न सके।’

श्रीराम पुकार शर्मा, कोलकाता। हिन्दी साहित्य में मानवीय संवेदनाओं की सूक्ष्म अनुभूतियों से अपनी कविताओं और गीतों को शृंगार करने वाले उदीयमान, प्रतिभावान और यशस्वी कवि-गीतकार गोपाल सिंह ‘नेपाली’ का जन्म उत्तरी बिहार के बेतिया जिले के कालीबाग दरबार के नेपाली महल में रेल बहादुर सिंह और वीणा रानी नेपाली के आँगन में ११ अगस्त १९११ को हुआ था। वैसे तो इनका मूल नाम गोपाल बहादुर सिंह था। पर साहित्य जगत में ‘गोपाल सिंह ‘नेपाली’ के नाम से ही सुविख्यात रहे हैं। इनके पितामह पड़ोसी देश ‘नेपाल’ से संबंधित थे और बेतिया राज के छापाखाने में नौकरी किया करते थे। इनके पिता रेल बहादुर सिंह फौज में नौकरी किया करते थे। अपने पितरों के मूल के मूल-भूमि ‘नेपाल’ के प्रति विशेष सम्मान को प्रदर्शित करते हुए उन्होंने ‘नेपाली’ को आजीवन अपने नाम के साथ जोड़े रखा। बाद में यह ‘नेपाली’ ही गोपाल बहादुर सिंह का साहित्यिक पर्याय संज्ञासूचक बन गया।

पिता रेल बहादुर सिंह की घुमन्त फौजी नौकरी के साथ गोपाल सिंह का बचपन भी विभिन्न स्थानों पर घुमन्त अस्थायी रूप में ही बीता, जिसका प्रभाव उनकी पढ़ाई-लिखाई पर भी पड़ा। अतः उनकी स्कूली शिक्षा ‘प्रवेशिका’ तक ही सीमित रह गई। शिक्षा के प्रति उनकी परवर्तित लालसा बेतिया राज के पुस्तकालय में बैठकर साहित्य के विशद अध्ययन-मनन से पूर्ण हुई। गोपाल को बचपन से ही लिखने का शौक था। अक्सर अपनी साधारण बात को भी बड़े ही काव्यात्मक ढंग से कहा करते थे। समयानुसार आम लोगों की भावनाओं को भी उन्होंने खूब पढ़ा और आत्मसात् किया। फिर उनकी अपेक्षाओं एवं आकांक्षाओं को अपने शब्द और आवाज प्रदान की। साधारण ग्रामीण वेश-भूषा, नाक पर पतला चश्मा, माथे पर घुंघराले काले बाल, लुनाई लिये हुए सांवला रंग और उनके चेहरे की सरलता पर कोई गंभीरता के लक्षण न दिखाई देते थे, बल्कि प्रतिपल विनोदी व्यक्तित्व के ही स्वामी रहे हैं, हमारे कवि-गीतकर गोपाल सिंह ‘नेपाली’ जी। कुछ समय बाद गोपाल सिंह का विवाह हुआ। इनकी पत्नी नेपाल के राजपुरोहित परिवार से संबंधित थीं।

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

उत्तर छायावाद के जिन कवियों ने अपनी कविताओं और गीतों में मानवीय अनुभूतियों की ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया, उनमें गोपाल सिंह ‘नेपाली’ जी प्रमुख रहे हैं। उनकी कविताओं में राष्ट्रप्रेम, प्रकृति प्रेम, रोमांस-प्रेम सबकुछ का समानुपाती दिखाई देता है, क्योंकि वे तात्कालिक साहित्यिक लीकधारी न होकर उससे अलग साहित्यिक भावधारा को अपनाकर अपनी सफलता के परचम को फहराने वाले अपराजेय साहित्यिक योद्धा रहे हैं। वे प्राय: सभी साहित्यिक विधाओं में सिद्दहस्त थे, कहीं उनकी कलम की गति मंद न पड़ी, बल्कि हर साहित्यिक विधा में उनकी कलम कुछ कमाल ही कर दी है, जिसे देखकर सहृदय साहित्य-प्रेमी को अचरज होना स्वाभाविक ही है। फलतः उन्हें “गीतों का राजकुमार” कहा जाता है। २२ वर्ष की अल्पायु में १९३३ में उनकी बासठ कविताओं का पहला काव्य-संग्रह ‘उमंग’ प्रकाशित हुआ था।

एक बार की बात है कि किसी कवि सम्मलेन में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी उपस्थित थे। उसी कवि सम्मेलन में गोपाल सिंह ‘नेपाली’ जी ने मंच से अपनी एक रचना पढ़ी –
‘सुनहरी सुबह नेपाल की, ढलती शाम बंगाल की,
कर दे फीका रंग चुनरी का, दोपहरी नैनीताल की।
क्या दरस-परस की बात यहाँ, जहाँ पत्थर में भगवान है,
यह मेरा हिन्दुस्तान है, यह मेरा हिन्दुस्तान है।’

इस रचना और उपयुक्त वाचन को सुनकर राष्ट्रकवि ‘दिनकर’ जी का मन गदगद हो गया। फिर वे अपने आप को रोक न पाए और मंच पर पहुँच कर उन्होंने गोपाल सिंह ‘नेपाली’ को सार्वजनिक बधाइयाँ दीं, जो उनके लिए कोई अलौकिक पुरस्कार से कम न थी।
साहित्य, पत्रकारिता और फ़िल्म उद्योग – इन तीनों क्षेत्रों में गोपाल सिंह ‘नेपाली’ जी की मजबूत पकड़ बनी रही थी। उनके रचनात्मक योगदान से ये तीनों क्षेत्र पर्याप्त फलीभूत हुई है। उनके गीतों में सरसता और सहजता में साथ लोक-संस्कृति से परिपूर्ण संगीत का संगम रहा है। उन्होंने महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के साथ ‘सुधा’ मासिक पत्रिका में और कालांतर में ‘रतलाम टाइम्स’, ‘पुण्य भूमि’ तथा ‘योगी’ पत्रिकाओं के संपादन में अपना विशेष सहयोग प्रदान किया था। बाद में आजीविका की तलाश में १९४४ में मुंबई के रुपहले पर्दे की ओर उन्मुख हुए और मौका पाते ही उन्होंने फिल्मों के लिए कई लोकप्रिय गीत लिखा। लेकिन आर्थिक तंगी से उन्हें अभी भी मुक्ति न मिली थी। उनकी मुलाक़ात ‘फिल्मिस्तान’ के तुलाराम जालान से हुई, जिन्होंने ‘नेपाली’ जी को अपनी फिल्म ‘मजदूर’ के लिए गीत लिखने के लिए अनुबंध किया। इस ऐतिहासिक फिल्म के कथाकार स्वयं कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द थे और उसका संवाद लेखन उपेन्द्र नाथ ‘अश्क’ ने किया था। इस फिल्म के गीत इतने लोकप्रिय हुए कि ‘बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन’ की ओर से गोपाल सिंह ‘नेपाली’ जी को सन् १९४५ का सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरस्कार प्रदान किया गया था।

गोपाल सिंह ‘नेपाली’ जी ने करीब ६० फ़िल्मों के लिए ४०० से भी अधिक गीतों की रचना की और अपने अधिकांश गीतों के लिए उन्होंने स्वयं ही धुन भी बनाए थे। फिल्म ‘नागपंचमी’ का ‘दर्शन दो घनश्याम, नाथ मोरी आखियाँ प्यासी रे’ गीत आज भी लोगों के ओठों पर बसा हुआ है। इसी तरह ‘आरती करो हरिहर की, करो नटवर की, भोले शंकर की’ अपने आप में बहुचर्चित भजनों में से एक है। कालांतर में ‘हिमालय फ़िल्म्स’ और ‘नेपाली पिक्चर्स फ़िल्म कंपनी’ की स्थापना कर ‘नज़राना’ (१९४९), ‘सनसनी’ (१९५१) और ‘ख़ुशबू’ (१९५५) जैसी कुछ फ़िल्मों का निर्माण भी किया था। यह अलग बात है कि साहित्य और सिनेमा में उनके उत्कृष्ट योगदानों के बावजूद भी जीते जी उन्हें वह सम्मान नहीं मिल सका, जिसके वे प्रबल हकदार थे। उन्होंने लिखा भी हैं –
‘अफसोस नहीं हमको जीवन में कुछ कर न सके,
देखा-देखी हम जी न सके, देखा-देखी हम मर न सके।’

इसी तरह से लोगों को अपनी कविताओं और गीतों से कुछ जगाते, कुछ बताते और कुछ समझाते हुए हमारे साहित्य जगत का उज्ज्वल सितारा गोपाल सिंह ‘नेपाली’ एक कवि सम्मेलन से कविता पाठ कर लौटते समय १७ अप्रैल, १९६३ को दिन के करीब ११ बजे भागलपुर रेलवे जंक्शन के प्लेटफार्म संख्या -२ पर अचानक ही सदा के लिए अस्त हो गया। उनके पार्थिव शरीर को लोगों के दर्शनार्थ स्थानीय ‘मारवाड़ी पाठशाला’ में करीब बीस घंटे तक रखा गया था। वहीं से इनकी ऐतिहासिक शवयात्रा निकली थी, जिसमें जनसैलाब ही उमड़ पड़ा था। भागलपुर के ही ‘बरारी घाट’ पर उन्हे पंच साहित्यकारों ने संयुक्त रूप से मुखाग्नि दी और ‘गीतों का राजकुमार’ सदा के लिए ‘पंच तत्व’ में विलीन हो गया।

गोपाल सिंह ‘नेपाली’ जी के गीत-काव्य लोक-संस्कृति के ताने-बाने से निर्मित सरलता, सहजता, सरसता और भाव-बोधता के विचित्र ‘मनका’ हैं, जिसमें पूर्णरूपेन भारतीयता के स्पष्ट दर्शन होते हैं। उनका मानना है कि हिन्दी भाषा में सम्पूर्ण राष्ट्र को बाँध कर उसे आगे ले चलने की अन्तः शक्ति निहित है। इसके लिए आवश्यक है कि हिन्दी को स्वच्छंद कर उसे आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया जाए।
‘दो वर्तमान का सत्‍य सरल, सुंदर भविष्‍य के सपने दो।
हिन्दी है भारत की बोली, तो अपने आप पनपने दो।’

गोपाल सिंह ‘नेपाली’ जी ने ‘मुर्दे में प्राण फूँकने’ की अद्भुत क्षमता से परिपूर्ण अपनी कविताओं से देश की आजादी के कार्य में देशवासियों को प्रवीण होने के लिए शंखनाद किया था। देशहित कार्य में अग्रसर तमाम स्वतंत्रता सेनानियों को नमन करते हुए उन्होंने अपने गीतों से युवाओं में देशभक्ति रस का संचार किया था।
‘जिस पथ से शहीद जाते है, वही डगरिया रंग दे रे।
अजर अमर प्राचीन देश की, नई उमरिया रंग दे रे।
मौसम है रंगरेज गुलाबी, गाँव-नगरिया रंग दे रे।’

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी गोपाल सिंह ‘नेपाली’ जी की कविता देशवासियों में अपने देश के प्रति सेवा और रक्षा के भाव जागृत करते रहे हैं। १९६२ में भारत पर चीनी आक्रमण हुआ। उस समय भी उन्होंने देश भर में जन आंदोलन का शंख फूँकने के लिए लगातार साहित्यिक दौरा किया और अपने ओजपूर्ण गीत और कविताओं से चीन के विरूद्ध भारतीयों को ‘हिमालय ने पुकार’ कहते हुए जगाया।
‘उजड़े न हिमालय तो अचल भाग्य तुम्हारा।
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।’

स्वतंत्रता के बाद देश में अनुशासनहीनता के लंबे दौर में राजनीति, शिक्षा या शासन आदि में प्रत्येक जगह भ्रष्टाचार और अनैतिकता अपनी जड़ें जमाने लगी थी। जनता की पीड़ा को दरकिनरे कर स्वार्थी नेतागण और उनके अधिकारियों को निज सुख-साधन में लिप्त देखकर सबके हितार्थ कठोर प्रशासन की वकालत करते हुए कविवर गोपाल सिंह ‘नेपाली’ जी ने लिखा –
‘ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से
चर्खा चलता है हाथों से शासन चलता है तलवार से।’

यद्यपि गोपाल सिंह ‘नेपाली’ का जन्म बिहार के बेतिया में हुआ था, लेकिन उनका बचपन उनके फौजी घुमन्त पिता के साथ देहरादून और मंसूरी के खूबसूरत हरीतिमा युक्त प्राकृतिक वादियों में भी बीता था। वहाँ की पहाड़ी झरनें, घाटियाँ, गहन जंगल आदि के मनभावन दृश्य उनके मानस पटल पर चित्रलिपि बनकर अमित छप गए, जिससे कवि और प्रकृति के बीच एक अटूट-सा रिश्ता बनता गया था, जो समय-समय पर कविताओं और गीतों के रूप में अक्सर व्यक्त होते ही रहे हैं।
‘सुबह-सुबह का सूर्य सलोना, चंदा आधी रात का
प्यारा-प्यारा नील गनन का, दीपक झंझावात का।’

गोपाल सिंह ‘नेपाली’ जी बहुत ही सरल स्वभाव के व्यक्तित्व रहे हैं । उनमें लाग-लपेटे की बात की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। उन्होंने स्वयं अपने बारे में कहा है –
‘अगणित तारों के प्रकाश में, मैं अपने पथ पर चलता था।
मैंने देखा गगन गली में चाँद सितारों को छलता था।’
और फिर ग्राम अंचल की स्वच्छंदता, सरलता और मधुरता की छाप तो ‘नेपाली’ जी के गीतों में देखिए –
‘बाबुल तुम बगिया के तरुवर, हम तरुवर की चिड़ियाँ,
दाना चुगते उड़ जाएँ हम, पिया मिलन की घड़ियाँ।’

हिन्दी साहित्य जगत में गोपाल सिंह ‘नेपाली’ के योगदान का महत्व इसी बात से लगाया जा सकता है कि इनकी मृत्यु के पश्चात देश की कई प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर अनगिनत विशेषांकों की झड़ी-सी लगा दी थी। ‘नेपाली’ जी के ऐसे अनेक साहित्यिक गीत हैं, जो आज भी सुनने वालों के मन-प्राण को अभिभूत कर देते हैं –
‘पंडित-मुल्ले मुँह तका किए मजहब दीवारों ने लूटा,
मेरी दुल्हन-सी रातों को नौ लाख सितारों ने लूटा।’

गोपाल सिंह ‘नेपाली’ जी के संबंध में छायावाद के स्तम्भ महाकवि सुमित्रानंदन ‘पंत’ ने ‘नेपाली’ जी की कविताओं का अवलोकन कर कहा था, – ‘आपकी कविता सरस्वती, स्नेह, सहदयता और सौंदर्य की सजीव प्रतिमा है।’ इसी तरह महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जी ने ‘नेपाली’ जी की रचनाओं को पढ़कर उन्हें ‘काव्याकाश का दैदीप्यमान’ सितारा कहा है। ‘नेपाली’ जी के निधन के बाद साहित्यकार धर्मवीर भारती ने एक स्थान पर लिखा था, – ‘छायावादोत्तर कविता पर किए गए शोध के ग्रंथों में यदा-कदा उनका उल्लेख है, लेकिन जिस यश और महत्व के वे प्रबल अधिकारी थे, क्या वह उन्हें मिल सका? वे खुद साहित्य की दुनिया में भटक कर इतनी दूर क्यों चले आए, जहाँ उनकी ‘नगर न जाना, डगर न जानी’ जैसी दुखद परिणति हुई।’

देश की एकता-अखंडता का शौर्य गान करने वाले गोपाल सिंह ‘नेपाली’ जी जैसा कवि गीतकार मरता कहाँ है? वह तो अपने कविताओं और गीतों में अमर रहता है। वह अपनी रचनाओं में ‘मत्यृंजय’ है। आवश्यकता तो केवल इस बात की है, कि नई पीढ़ी के साहित्यकार उनके गीतों के दर्पण में झाँककर अपने स्वच्छ कवि-धर्म का निर्वाह करें।
(गोपाल सिंह ‘नेपाली’ जयंती, ११ अगस्त, २०२३)

श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व लेखक
हावड़ा -७१११०१
ई-मेल सम्पर्क – rampukar17@gmail.com

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