आजादी विशेष || बंगाल के मनोरंजन ने किया था अंग्रेजी फौज के दांत खट्टे, महज 25 साल में चढ़ गए थे फांसी पर

कोलकाता। भारत की आजादी के उत्सव का महीना चल रहा है। 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता यूं ही नहीं मिली बल्कि लाखों क्रांतिकारियों ने अपने जीवन का सर्वोच्च बलिदान कर भारती के चरणों में समर्पित किया था। तब जाकर गुलामी की बेड़ियां टूटी थीं और आज बुलंद भारत के तौर पर आजादी का महापर्व मना रहे हैं। ऐसे कई क्रांतिकारियों को तो भारत बड़े सम्मान से याद करता है पर मां भारती पर सब कुछ समर्पित करने वाले अधिकतर ऐसे योद्धा थे जिन्हें इतिहास में जगह ही नहीं मिली। ऐसे ही एक क्रांतिकारी थे बंगाल के लाल मनोरंजन सेन गुप्ता।

शेरे बंगाल कहे जाने वाले महान क्रांतिकारी बाघा जतिन के साथ मिलकर इन्होंने राजनीतिक डकैतियां और अंग्रेजी फौज पर हमले की कई योजनाओं में भाग लेकर उनके दांत खट्टे कर दिए थे। इनकी बहादुर का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि ओडिशा के जंगलों में अंग्रेजों की पूरी फौज से अपने महज पांच साथियों की मदद से भिड़ गए थे और कई घंटे तक उनके छक्के छुड़ाते रहे। इसमें उनके क्रांतिकारी साथी चित्त प्रिय रायचौधरी भी शामिल थे।

बाद में पुलिस फायरिंग में गंभीर रूप से घायल होकर लहूलुहान हालत में पकड़े गए थे। अंग्रेज मनोरंजन से इतने खौफ में थे कि गंभीर रूप से घायल और बीमार अवस्था में ही उन्हें महज 25 साल की उम्र में 22 नवंबर 1915 को ओडिशा के बालेश्वर मंडल कारागार में फांसी पर चढ़ा दी। गदर पार्टी के क्रांतिकारियों के बारे में लिखी अपनी किताब में इतिहासकार नागेंद्र सिन्हा लिखते हैं कि मनोरंजन सेन गुप्ता का जन्म तत्कालीन अविभक्त बंगाल के फरीदपुर जिला अंतर्गत खैरबंगा गांव में सन 1890 में हुआ था। फिलहाल यह इलाका बांग्लादेश का हिस्सा है।

यह ऐसा समय था जब क्रांतिकारी बाघा जतिन के नेतृत्व में पूरे बंगाल में अंग्रेजो के खिलाफ गदर का ऐलान कर दिया गया था। जगह-जगह अंग्रेजो के खिलाफ राजनीतिक डकैतियां, लूटपाट और अत्याधुनिक विदेशी अस्त्र-शस्त्र से हमले हो रहे थे। लाला हरदयाल और अन्य प्रवासी भारतीयों की मदद से गदर की सफलता के लिए अपार धन राशि और अस्त्र-शस्त्र भारत लाया जा रहा था। मनोरंजन सेनगुप्ता के पिता का नाम हलधर सेनगुप्ता था जो अंग्रेजों के घोर विरोधी थे।

इसलिए बचपन से ही मनोरंजन क्रांतिकारियों के संपर्क में आ गए थे और पहली बार दिसंबर 1913 में अंग्रेजों के एक विश्वासपात्र बंगाली जमींदार के घर राजनीतिक डकैती के बाद वह पकड़े गए थे। 19 दिसंबर 1913 से 20 अप्रैल 1914 तक अपने अन्य साथियों के साथ उन्हें जेल की यातना सहनी पड़ी। तब उनकी उम्र महज 23 साल थी। डकैती को फरीदपुर षड्यंत्र केस के नाम से जाना जाता है। जेल से रिहा होने के बाद मनोरंजन सीधे तौर पर क्रांतिकारी बाघा जतिन के संपर्क में आ गए।

ऑफिस के बाद उन्हीं के नेतृत्व में जगह-जगह राजनीतिक डकैतियों में शामिल होते रहे। इसे समय कोलकाता में सीआईडी और पुलिस के दो इंस्पेक्टर हुआ करते थे सुरेश चंद्र मुखर्जी और नीरज चंद्र हलदार। ये क्रांतिकारियों को लगातार पकड़वा रहे थे और उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दिलवा रहे थे। इसके बाद बाघाजतिन ने दोनों को मौत के घाट उतारने का आदेश दिया और चित्तप्रिय राय चौधरी तथा मनोरंजन सेन गुप्ता को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई। एक तरफ चित्तप्रिय राय चौधरी ने नीरज चंद्र हलदार को गोलियों से छलनी कर दिया।

तो दूसरी तरफ सुरेश चंद्र मुखर्जी को मनोरंजन सेनगुप्ता ने मौत के घाट उतारा। तब प्रथम विश्वयुद्ध चल रहा था और अंग्रेजी फौज दुनिया भर में जर्मनी और सहयोगी देशों का मुकाबला कर रही थी। ऐसे समय में प्रवासी क्रांतिकारी भारतीयों ने अंग्रेजों के तख्तापलट के लिए भारी अस्त्र-शस्त्र और धनराशि विदेशों से भेजना शुरू कर दिया। अंग्रेजों के दुश्मन देश जर्मनी ने भारत की मदद शुरू कर दी थी।

क्रांतिकारियों के सौजन्य से हथियारों से भरा एक जहाज जर्मनी से ओडिशा के बालेश्वर समुद्र तट पर आने वाला था। इसे रिसीव करने और हथियारों को सुरक्षित तौर पर क्रांतिकारी तक पहुंचाने की जिम्मेदारी बाघा जतिन को सौंपी गई। उन्होंने मनोरंजन सेन गुप्ता, चित्तप्रिय राय चौधरी समेत पांच क्रांतिकारियों को लेकर ओडिशा के जंगलों में जा पहुंचे। यहां मयूरभंज के जंगलों में क्रांतिकारियों ने डेरा डाल रखा था।

यहां मनोरंजन की गोली से गलती से एक साधु मारा गया जिसके बाद ग्रामीणों ने डाकू समझकर पुलिस को खबर दे दी। इससे बाद अंग्रेजी फौज ने क्रांतिकारियों को म्यूरभंज के जंगलों में घेर लिया और उसको नौ सितंबर 1915 को प्रातः 11:00 बजे पुलिस से मुठभेड़ हुई है और गोली लगने से चित्तप्रिय रायचौधरी वही बलिदान हो गए। जबकि मनोरंजन सेनगुप्ता गोलियों से घायल होकर लहूलुहान हो गए थे।

उन्हें उसी अवस्था में गिरफ्तार कर उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और एक महीने के अंदर जब वह बुरी तरह से घायल और बीमार थे तब 16 अक्टूबर सन 1915 को उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। बालेश्वर जेल में 22 नवंबर 1915 को घायल अवस्था में ही उन्हें फांसी पर लटका दिया गया।

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