गंदी दृष्टि (लघुकथा) :– अदिति कुमारी सिंह

पापा के साथ गई 10 साल की दिव्या को यह पता नहीं की लोगों की दृष्टि भी इतनी खराब हो सकती है। मुंह पर मीठा- मीठा बोलने वाले मनुष्य मन के अंदर इतनी गंदी सोच रखते हैं। लेकिन दिव्या के पापा को आज भी अभिमान है अपनी बेटी पर सोच बदलो देश खुद-ब-खुद बदल जाएगा। 10 साल की उम्र में दिव्या को कुछ ऐसा अनुभव मिला शायद वह अनुभव उसकी पूरी जिंदगी पर क्या असर करेगा शायद उसे भी पता नहीं था।
उस मेला में वह अपने पापा से बिछड़ गई और उसी जगह उसने दूसरे आदमी का हाथ थाम लिया। उसने उस आदमी की मुख की ओर अपनी दृष्टि दी ही नहीं बस वह उसके साथ चलते चली गई। जब उसने अपनी आंखें उसकी और दिया तो शायद उसे लगा यह कौन है जो मुझे ऐसे घूर रहा है जैसे कोई भूखा कुत्ता अपने शिकार की और। उसके मुंह से एक शब्द ना निकला पर पापा की बात याद थी की डरो नहीं हमेशा खुद पर विश्वास रखो
तुम किसी से कम नहीं हो तुम चाहो तो स्वयं अपनी सुरक्षा कर सकती हो उसने बड़े प्यार से कहा उस आदमी से आप तो अच्छे हो पर आपकी दृष्टि मुझे अच्छी नहीं लगी तो चलो इसे मैं ठीक कर देती हूं, उसने नीचे से मिट्टी उठाकर जो अपने हाथों में दबा कर रखी थी उसे उस आदमी के चेहरे पर फेंक कर वहां से भाग गई तथा फिर उस मेले में दौड़ कर गई एक कोने में उसके पिता अपनी बेटी का इंतजार कर रहे थे। वह जाकर अपने पापा के गले से लिपट कर कहीं पापा मैंने एक गंदी दृष्टि को बंद कर दिया आप डरो मत आज आपकी बेटी खुद को पहचान गई है।

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