अशोक वर्मा “हमदर्द” की कहानी : आज भी शर्मिंदा हूं

अशोक वर्मा “हमदर्द”, कोलकाता। विजया दशमी का दिन था, इस शुभ अवसर पर पिताजी मिठाई से भरा एक डिब्बा लेकर आये थे। हम भाई-बहन नये कपड़ों के बीच मिठाई का आनंद ले रहे थे, अचानक मेरी नजर मिठाई के खाली डिब्बे पर पड़ी। मेरे मन में एक शरारत सूझी, मैंने अपनें छोटे भाइयों के साथ मिल कर एक प्लान किया, हम लोगों ने मिल कर मिट्टी की कुछ मिठाइयां तैयार की और उसी मिठाई के डिब्बे में सफल तरीके से पैकिंग की और सड़क के बीच रख कर छुप कर हम सब देखने लगे। डिब्बे को देख कर ये लग रहा था कि ये मिठाई का डिब्बा अंजाने में किसी का गिर गया होगा। अचानक मैंने देखा की एक रिक्शा चालक ने डिब्बे को अपनें हाथ में उठाया चारों तरफ देखा फिर अपनें रिक्शे की सीट के नीचे रख लिया और चलता बना।

अशोक वर्मा “हमदर्द”, लेखक

हम लोग अपनें इस शरारत पर खुश हो रहे थे, दिन ढल गया था। दशहरे के दिन बड़ों का पैर छू कर आशीर्वाद लेने का दिन था। अतः हम कुछ मित्रों के साथ घर-घर जाकर पैर छू कर आशीर्वाद ले रहे थे। अचानक मेरी मुलाकात अजय से हुई जो मेरे विद्यालय का मेधावी छात्र था। अचानक मेरे मुंह से निकला…..अजय चलो आज हम तुम्हारे घर चलेंगे, वैसे भी हमनें तुम्हारा घर नही देखा है। घर जाने वाली बात सुन कर अजय कतराने लगा, कारण की वो नही चाह रहा था कि हम सब उसके घर जाएं।मगर हम सब की जिद के कारण वो हमें अपने घर ले गया शहर की एक झोपड़ पट्टी में। मुझे समझते देर न लगी कि इसी वजह से अजय हम लोगों को अपनें घर नही ले जाना चाहता था।

एक छोटा खपरैलनुमा उसका घर था, हम लोगों ने अंदर प्रवेश किया, जहां एक साथ पांच सात लोगों के बैठने की जगह भी नहीं थी। हम लोग जैसे तैसे वहां बैठे। इधर अजय हम लोगों के स्वागत के लिए परेशान हो गया। घर में स्वागत के लिए कोई चीज नहीं थी। अजय की मन:स्थिति को हम समझ रहे थे, इस कारण हम बार-बार अजय को कह रहे थे कि तुम परेशान मत हो, हम लोगों के पास बैठो। इतने में अजय के पिताजी ने हाथ में मिठाई का डब्बा लेकर अंदर प्रवेश किया। मिठाई का डब्बा देख कर अजय काफी खुश हुआ। मगर मेरे होश उड़ गये कारण कि हम लोगों के द्वारा सड़क पर रखे गये डिब्बे को अजय के पिताजी ने ही उठाया था। अजय ने अपनें पिताजी के हाथ से डिब्बा लेकर हम लोगों के सामने रख दिया और प्लेट लेने चला गया। इधर हम लोग अपनें आपको ठगा सा महसूस कर रहे थे।

अजय प्लेट को रख कर मिठाई के डब्बे को खोल रहा था, डिब्बा खोलते हीं अजय की खुशी एक मिनट में गायब हो गई। वो कभी हम लोगो की तरफ तो कभी मिठाई के डिब्बे की तरफ देख रहा था कि ऐसा कैसे हुआ। पिताजी ये क्या लाये है? अजय की आंखों में आसूं छलक रहे थे, इधर उसके पिताजी की आंखों में भी दर्द दिख रहा था। अजय हम लोगों के सामने काफी शर्मिंदगी महसूस कर रहा था, मगर उसमे उसका क्या दोष था। अजय के पिताजी आखों में आसूं लिए बोल रहे थे, बेटे असमय में मिठाई क्या खानें की हर चीज मिट्टी हो जाती है। आज सारा दिन घूमने के बाद एक भी सवारी नही मिली, आते वक्त रास्ते में पड़े इस डिब्बे को हमने समझा की किसी का ये डिब्बा गिर गया होगा। मैंने ये समझ कर उठा लिया कि दशहरे के मौके पर भगवान ने हम लोगों का मुंह मीठा करनें के लिए भेजा है। मगर मुझे क्या पता था कि वो भी हम लोगों के साथ मजाक कर रहे है और वो रो पड़े। इधर हम अपनें किए पर काफी शर्मिंदा थे लग रहा था के मैं धरती में समा रहा हूं, मगर उन्हें क्या पता कि किसी का मजाक किसी को काफी तकलीफ़ पहुंचा सकता है।

क़रीब पंद्रह साल बाद फिर मेरी मुलाकात अजय से हुई। वह पहचान में नही आ रहा था। शरीर पर महंगे कपड़े, हाथ में लैपटॉप का बैग लिए हुए काफी स्मार्ट लग रहा था। आज वो मुझे अपनें घर चलने के लिए दबाव दे रहा था। उसके काफी कहनें के बाद मैं राजी हो गया। वो मुझे गाड़ी पार्किंग की तरफ ले गया और अपनी गाड़ी निकाली, मुझे बिठाया और चल पड़ा।गाड़ी की रफ़्तार बता रही थी कि अजय बहुत दिनों से ड्राइविंग कर रहा था। अचानक गाड़ी एक आलीशान बंगले के सामने रुकी, अजय बहुत खुश था। उसने मुझसे कहा आज किसी चीज की कमी नही होगी, एक वो दिन था जब हमनें तुझे घर आने पर भी कुछ भी नही खिलाया पिलाया था। मैं हमेशा यही सोचता कि कब तुमसे मुलाकात होगी। तुमने भी कभी मेरी सुध नहीं ली, आज तुम नही जा सकते, आज तो मेरे यहां ही रहना होगा।

मैंने जब अजय के पिताजी के बारे में पूछा, तो अजय बोला, वो यहीं रहते है चलो मिलाते है। अजय मुझे ऊपर की मंजिल पर ले गया, जहां उसके पिताजी पंजाबी पायजामें में हाथ में रिमोट लिए टी.वी.देख रहे थे। आज उनकी गर्दन में पड़ी सोने की चेन उनकी आर्थिक स्थिति को बयां कर रही थी। वो बोले……. बैठो बेटा….. बहुत दिन बाद आना हुआ। उन्हें भी वो दिन याद था, कहने लगे बेटा…सब अजय का किया हुआ है। अजय ने तो तुझे बताया ही होगा, वो सी.ए. बन गया है। बस उसकी एक सुंदर सी दुलहनिया आ जाये तो, मगर ये विदेश जाने को तैयार है। इसकी कंपनी इसे विदेश भेजने वाली है। परंतु ये हम लोगों को छोड़ कर नही जाना चाहता, देखो बेटा! शिक्षा से ही इंसान ऊपर उठ सकता है नहीं तो व्यापार में भी पैसे कहां से आयेंगे? शरीर की मेहनत से तो लोग अपनें मेहमान का स्वागत भी नही कर सकते। अजय ढेर सारी मिठाइयां लेकर आ गया था। अजय के पिताजी बोले, बेटा! सेवक कहां है?

अजय बोला, पिताजी आज हमें ही अपनें मित्र का स्वागत करनें दीजिए, मैंने मिठाई उठाई और सोचने लगा, दादा जी कहते थे “विद्या सर्वे धनं प्रधानम” जो आज दिख रहा था। अजय के पिताजी बोले, बेटा अजय!तुम अपनें दोस्त को पंद्रह अगस्त को जरूर बुलाओ, कुछ दिन बाद स्वतंत्रता दिवस आने वाला है। अजय अपनें पुराने घर में (झोपड़पट्टी) हर त्यौहार पर जाना नही भूलता था। आज स्वतंत्रता दिवस था, झोपड़पट्टी के पास खाली मैदान में कुर्सी लगी हुई थी। मैं भी बैठा, लोग गाड़ी आने का इंतजार कर रहे थे। तब तक अजय की गाड़ी वहां पहुंची, लोग अजय बाबु जिंदावाद के नारे लगा रहे थे। अजय ने हाथ उठाकर सबका स्वागत किया। फिर अपनें पिता का हाथ पकड़ कर मंच पर ले गया, कुछ बातों के बीच झोपड़ पट्टी के तमाम लोगों में वस्त्र वितरण के साथ मिठाई के डिब्बे दिए गये।

तब अजय की नजर मेरी तरफ पड़ी, उसने नीचे उतर कर मेरा हाथ पकड़ा और ऊपर ले जाकर मेरा परिचय लोगों के बीच कराया। अजय लोगों से यह कह रहा कि एक दिन था जब इसी जगह हमनें अपनें दोस्त को बिना कुछ खिलाये अपनें घर से विदा किया था। आज मैं यहां तमाम बस्ती के नौजवानों से कहूंगा कि तुम लोग नेताओं के अनुदान के भरोसे अपनें जीवन को नष्ट न करो, बस अपनें बहुमूल्य समय को शिक्षा में लगाओ और अपनें माता पिता का आदर करो, लक्ष्मी ज़रूर तुम्हारे घर आएंगी ये मेरा विश्वास है। आज अजय ने उस बस्ती के पांच विद्यार्थियों की शिक्षा का भार उठाने का ऐलान किया था और मैं उस दिन को याद कर रहा था जिसे मैंने व्यर्थ में गवाया था।

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