आशा विनय सिंह बैस की कलम से : कुंभकर्ण

रायबरेली। रामायण केवल भगवान राम, देवी सीता, लक्ष्मण, भरत जैसे सर्वविदित नायक, नायिकाओं और रावण, बाली जैसे विद्वान, बलवान लेकिन कामी, दम्भी खलनायकों की गाथा भर नहीं है। इस महाकाव्य के गौण पात्र, लघु घटनाक्रम भी बड़ा संदेश, सीख देते हैं। इन्हीं छोटी घटनाओं में से एक “विभीषण-कुम्भकर्ण संवाद” अत्यंत रोचक बन पड़ा है। सत्य, धर्म और नैतिकता के लिए अपने सगे भाई महाबली रावण का साथ छोड़ देने का साहस विभीषण में है तो सब कुछ जानते हुए, धर्म-अधर्म को समझते हुए भी अपने राक्षस-कुल, अपने अग्रज दसानन के साथ खड़ा होने का अतुलनीय वीरत्व महाभट कुम्भकर्ण में है।

सत्य, धर्म के लिए सर्वस्व त्याग कर देने वाले निश्चय ही पूजनीय हैं लेकिन अपने भाई को उसके अधर्म, अनैतिक आचरण हेतु धिक्कारने तथा रावण के समक्ष रघुवीर को “श्री”राम और सीता माता को जगदम्बा कहने का नैतिक बल रखने वाले परंतु अपने देश के लिए आसन्न निश्चित मौत को चुनने वाले तथा भातृ, कुल, जाति की प्रतिष्ठा के लिए आत्मोत्सर्ग कर देने वाले कुंभकर्ण जैसे बिरले ही हैं।

अब तक हम राक्षसराज कुम्भकर्ण को उसकी “कुम्भकर्णी नींद”और पराक्रम के लिए जानते रहें हैं लेकिन अपने राष्ट्र और भातृ प्रेम, अकाट्य तर्कों, विचारों की स्पष्टता में कुम्भकर्ण एक क्षण के लिए विभीषण को छोड़िये, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के समकक्ष खड़ा नजर आता है। मरना तो सब को है लेकिन कुछ पात्र अपने छोटे जीवनकाल में ही बड़ा नाम कर जाते हैं।

(आशा विनय सिंह बैस)
अवकाश के दिन कुम्भकर्णी नींद सोने वाले

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