कांच का लिबास संग नगरी

डॉ. लोक सेतिया, स्वतंत्र लेखक और चिंतक

उनकी नकाब हट गई तो उनका असली चेहरा सामने आएगा जो खुद उन्हीं को डराएगा। आईना उनको कोई दिखा नहीं सकता है दाग़ ही दाग़ हैं बता नहीं सकता है। उनको खुद अपनी सूरत से अधिक अपनी सीरत से घबराहट होती है। कला की देवी ये देखती है और खामोश कहीं छुपकर रोती है।

उनकी दुनिया उनके तौर तरीके उनके ढंग शायद हम कल्पना भी नहीं कर सकते बाहर से दिखाई देते हैं विशाल बेहद मज़बूत मगर भीतर से खोखले और कागज़ के फूल की तरह थोड़ी हवा से या छूने से बिखर जाते हैं। तभी उनकी वास्तविकता की चर्चा कोई करता है तो हंगामा खड़ा हो जाता है जबकि उनको हक है देश समाज की हर बात पर बोलने का ही नहीं जब जिस को जैसे चाहे अच्छा बुरा साबित कर अपनी

आमदनी बढ़ाने सफलता का परचम लहराने को खलनायक के किरदार से लेकर हिंसा को बढ़ावा देने और सामाजिक मूल्यों मर्यादा को ताक पर रख कर फिल्म कला के नाम पर अश्लीलता और अपराध को बढ़ावा देने महिमामंडित करने का। कभी आपने सोचा है उनको देश से अपने दर्शक वर्ग से कितना सरोकार है सच तो ये है कि फ़िल्मी अभिनय से लेकर टीवी अख़बार में विज्ञापन देने तक जो सामने नज़र आता है उनकी असलियत से विपरीत है।

उनकी आम आदमी के लिए कोई संवेदना ही नहीं होती है उनके लिए धन दौलत शोहरत और सबसे ख़ास समाज जिसको जो भी चाहे करने की छूट मिली हो की अपनी दुनिया है जो किसी और को अपने बराबर नहीं समझती है यहां तक कि देश के राजनीतिक दल भी उनके मोहपाश और स्वार्थ की खातिर उनको समाज के नियम नैतिक मूल्यों और देश के कानून की परवाह नहीं करने को उचित समझते हैं।  ये दोनों इक दूजे के लिए हैं मगर पति पत्नी की तरह नहीं इनका रिश्ता मतलब रहने तक का है। चोरबाज़ार में सबसे बड़ी दो दुकान इन्हीं की हैं।

इनका संबंध चोर चोर मौसेरे भाई जैसा है मगर हम आज केवल फिल्मनगरी की बात करते हैं। आपको जो टॉनिक बेचते हैं तेल मालिश करवाते हैं न खुद आज़माते है नहीं खाते न लगवाते हैं। हम लोग कर चोर से दिल चोर कहलाते हैं मगर फिल्म वाले कहानी क्या फिल्म तक कहीं से चुरा लाते हैं अपनी बनाकर खूब धन कमाते हैं। आपको झूठी बातें बतलाते हैं नायक गरीब है ईमानदार है महनत उसूल से रईस बन जाता है उल्लू बनाना यही कहलाता है। ये कमाने को सब कुछ करते हैं किसी सच पर नहीं पैसे पर मरते हैं।

बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी तभी फ़िल्मी नायिका को ऐतराज़ है कोई अंदर की बात बाहर कहे क्योंकि अंदर सब तरह की गंदगी भरी हुई है जिसको कोई सामने नहीं लाने देता है। टीवी अख़बार वालों का स्वार्थ जुड़ा रहता है उनको नायक महानयक बनाकर अपना उल्लू सीधा करने को। सदी का तथाकथित महानायक जालसाज़ी भी करता है किसान होने का झूठा दस्तावेज़ हासिल करने को किसी राज्य की सत्ताधारी सरकार से मिलकर गांव की पंचायत की ज़मीन अपने नाम करवाता है ताकि लोनावला में जो ज़मीन किसान ही खरीद सकता है गैर कनूनी हथकंडे अपना कर खरीद सके।
कभी सोचा है जो अभिनेता ईमानदारी और सच्चाई के किरदार निभाता है वास्तव में आचरण में सब कुछ कर सकता है। और उनकी पत्नी जो किसी दल की सांसद थी तब क्या उनको देश अपने पद और कायदे कानून की चिंता थी। इतना ही नहीं जब अदालत ने अमिताभ बच्चन को पंचायती ज़मीन लौटने की बात की तब भी चालबाज़ी से उस ज़मीन को जिस दल की सांसद उनकी पत्नी थी उसी दल की और सांसद के एनजीओ को देने का काम किया जबकि उनको पंचायत को वापस देने का वादा निभाना था।
ये कोई अकेली घटना नहीं है सुनील दत्त का बेटा संजय दत्त अपने घर में अवैध हथियार रखने और गुनहगार लोगों का साथ देने का दोषी होता है। कोई और अपनी गाड़ी से किसी को कुचलता है कभी नियम को तोड़कर काले हिरण का शिकार करता है। जाने कितने ऐसे लोग हैं जिनको कानून की रत्ती भर भी परवाह नहीं है जो मन चाहा करते हैं। ये आपको कोई खेल खेलने को उकसा रहे हैं पैसे कमाने का नहीं आपको बर्बादी का रास्ता दिखला रहे हैं मगर ये इसी की कमाई से मौज उड़ा रहे हैं।

    आज का सिनेमा उसकी फ़िल्में कहानी संगीत अपने मार्ग से वास्तविक उद्देश्य से भटक गया है। अन्यथा कभी इस के अभिनेता निर्देशक और संगीतकार गीतकार उच्च आदर्श और सामाजिक मूल्यों को सबसे अधिक महत्व देते थे। पैसे कमाने को दर्शक को गलत संदेश नहीं देना चाहते थे। सोच विचार और सामाजिक कर्तव्य निभाने को लेकर आधुनिक सिनेमा पहले से ऊपर जाने की जगह नीचे ही गिरता गया है। खुद दिशाहीन ही नहीं हुआ बल्कि साथ में बाक़ी समाज को भी गलत दिशा को ले जाने का ही काम किया है।

वास्तव में मुंबई नगरी में ऐसी कितनी घटनाएं सामने ही नहीं आती हैं ये इक विडंबना भी है कि देश की बड़ी बड़ी समस्याओं को छोड़ हर कोई किसी एक अभिनेता की मौत पर अटका हुआ है और नतीजा राजनीति और जाने किस किस के मकसद जुड़ने से हर दिन कोई जिन्न इस बोतल से बाहर निकलता रहता है। कोई जादू का चिराग़ किसी ने बिना जाने समझे बस यूं ही मसल दिया और नहीं मालूम ये क्या बला है इस से कैसे निपटा जा सकता है। ये ऐसी नगरी है जिस में कांच का लिबास पहने हुए लोग हैं

संग का बना हुआ शहर है अर्थात पत्थर के लोग भगवान इंसान सभी चलते फिरते भावनाशून्य हैं। उनकी हंसी खोखली और आंसू नकली हैं दिखावे के उनका सरोकार खुद के सिवा किसी से नहीं है। कोई ऐसे भी हैं जिनकी छवि देशभक्त वाली है जबकि उनकी नागरिकता किसी और देश की है क्यों है वही जानते हैं खाने कमाने को ये देश है और बसने को कोई और भाता है।

आपने देखा है टीवी शो पर जब भी आते हैं जाने कैसी कैसी बातें बनाते हैं उनकी गंदी वाहियात बातों पर दर्शक तालियां बजाते हैं। कुछ लोग उनसे कहने को प्यार का रिश्ता बनाते हैं मंच पर उनके संग झूमते हैं गाते हैं उनको अपना आशिक़ चितचोर कहते हैं बेशर्म होकर बहुत कुछ बताते हैं और उनके अपने बैठे मुस्कुराते हैं वास्तविक जीवन में ये हो तो ख़ुदकुशी कर जाते हैं। चुल्लू भर पानी मिले डूब के मर जाते हैं। उनकी शोहरत की बुलंदी झूठ की बुनियाद पर टिकी हुई है कुरेदने भर से कलई उतर जाती है ये दुनिया बस इसी बात से घबराती है।

उनकी कमाई की रोटी को कोई नानक निचोड़ दे तो खून की नदिया बह जाएगी। हम जो भी हैं वही नज़र आते हैं ये तो अंधेरा बढ़ाने वाले हैं फिर भी सितारे कहलाते हैं। नाम की ज़रूरत नहीं हैं तमाम अभनेता नायिकाओं के किस्से सभी जानते हैं दुनिया जिस को मुहब्बत की कहानी मानते हैं वास्तविकता को नहीं पहचानते हैं। ये आपकी दुनिया के किरदार नहीं हैं भले जो भी ये कभी वफ़ादार नहीं हैं ये बेवफ़ाई करते हैं मगर गुनहगार नहीं हैं। ज़मीर क्या होता ईमान किसे कहते हैं कहते हैं अभिनय करते हैं खुद होते नहीं है जैसे नज़र आते हैं अदाकार हैं कोई किरदार नहीं है। ये लाईलाज रोग है समाज को बीमार कर रहा है ये आपके लिए कोई उपचार नहीं है। कोई  शायर कहता है , इस कदर कोई बड़ा हो मुझे मंज़ूर नहीं , कोई बंदों में खुदा हो मुझे मंज़ूर नहीं। रौशनी छीन के घर घर से चिराग़ों की अगर , चांद बस्ती में उगा हो मुझे मंज़ूर नहीं। आखिर  में मेरी इक ग़ज़ल भी पेश है।

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