भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी : दशा एवं दिशा

नीरज कुमार चौधरी, राजकीय इन्टरकॉलेज प्रवक्ता हिंदी, गिरिडीह, झारखण्ड

‘भूमंडलीकरण’ शब्द भारतीय संस्कृति के ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की उतर आधुनिक  सोच है ।भारतीय अवधारणा मानवता पर आधारित है जबकि भूमंडलीकरण का नवोन्मेष अर्थ पर अवलंबित है। यदि एक दया, करुणा,प्रेम,सहानुभूति व त्याग पर आश्रित विश्व-कल्याण में रत् है तो दूसरा व्यपार-व्यवसाय में केन्द्रित सूचना क्रांति और तकनीकी विस्तार में तत्पर -तल्लीन विशुद्ध आर्थिक अवधारणा है। “यह विश्वग्राम के सपनों को संजोती,विश्व प्रादर्श को सहेजती भुवन को भवन में बदलती और संसार को बाजार के रूप में परिवर्तित करके मनुष्य को यह केवल अर्थ-व्यवस्था को ही प्रभावित नहीं कर रहा है वरन् जीवन की पद्धति को भी परिवर्तित कर रहा है जिसमें संस्कृति,साहित्य और भाषा भी सम्मिलित है।”(कामकाजी हिंदी :भूमंडलीकरण के दौर में)

भूमंडलीकरण की उपभोक्तावादी संस्कृति ने हिंदी को भी प्रभावित किया है,अतः अब उसका बहुविध स्वरूप और प्रयोजनमूलक रूप उजागर हुआ है।अब हिंदी सृजन,राजभाषा व संपर्क भाषा के समानांतर वह जनसंचार के साधनों में प्रचलित तकनीकी समृद्धि के अनुरूप आकाशवाणी ,दूरदर्शन,कंप्यूटर,इन्टरनेट और पत्रकारिता से होते  हुए सेटेलाइट एवं डिजिटल क्रांति से भी संपृक्त हो चुकी है।आज हिंदी में ऐसे अनेक अंतर्राष्ट्रीय शब्द प्रचलित हो गए हैं जिनकी विश्व स्तर पर उपयोगिता है।आज उपभोक्ताओं की रूचि को ध्यान में रखकर साहित्य लिखा जा रहा है।विश्व बाजार सूचना तंत्र से संचालित है जो विज्ञापनों से अटे पड़े हैं।

यह सर्वविदित है कि जीवित भाषा हर बाधा को एक चुनौती के रूप में लेती है तथा संभावना तलाशती है।इसी तलाश में भाषा की विकास गाथा छिपी रहती है,जो उसकी संघर्षगाथा है।इस संघर्ष के बिना भाषा निष्क्रिय हो जाती है।अठारहवीं शताब्दी तक लैटिन से मुक्त होकर इंग्लैंड ने आधुनिकता का अधिग्रहण कर लिया था।हिंदी में यह क्षमता विद्यमान है लेकिन संकल्प -शक्ति के अभाव और अंग्रेजी मानसिकता के दबाव ने इस पथ को सुलझाने की बजाय उलझाने का ही कार्य अधिक किया है।अंग्रेजी मानसिकता ने इस देश में भाषा के स्तर पर एकाधिपत्य स्थापित कर हिंदी को पिछड़ा प्रमाणित करने के कुचक्रों को ही विकसित किया है।

सभी जानते हैं कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने पैर फ़ैलाने के लिए भारत की धरती पर भाषिक खेल खेला।इस खेल के कारण ही हिंदी अभी तक राष्ट्रभाषा नहीं राजभाषा बनी हुई है।इस बारे में प्रो.रामवक्ष जाट ने लिखा है– “…स्वतंत्र भारत की राजभाषा के प्रश्न पर फिर विवाद शुरू हुआ।यहाँ अंग्रेजी या हिंदी का सवाल उठा।तथ्य यह है कि अभी भी हिंदी भारत की अधिकृत,एकमात्र राजभाषा नहीं बन पायी है।उसे प्रोत्साहन दिया जा रहा है।इसी ऊहापोह के बीच अनेक घटनाओं के मोड़ से गुजरते हुए यह वैश्वीकरण बाजारवाद और संचार क्रांति का युग गया और हिंदी के सामने नयी चुनौतियाँ खड़ी हुईं।” (वैश्वीकरण और हिंदी)

वर्तमान में  केबल, इंटरनेट, मोबाइल के माध्यम से एक नई हिंदी गढ़ी जा रही है।यह हिंदी फिल्मों, सिरीयलों, विज्ञापनों, समाचार पत्रों और खबरिया चैनलों के माध्यम से तेजी से फैल रही है।सच है कि देश-विदेश में हिंदी की पहुँच इससे काफी बढ़ी है। सच है कि ‘विज्ञापन की हिंदी’ सहज ही लोगों के दिल में जगह बना लेती है, लेकिन यह भाषा भूमंडलीकरण के साथ फैल रही उपभोक्ता संस्कृति की है, विमर्श की नहीं।इस भाषा में लोक-राग और रंग नहीं है जहाँ से हिंदी अपनी जीवनीशक्ति पाती रही है।

इन चुनौतियों को चाहे जिस रूप में देखा जाय,लेकिन यह भी सच है कि कहाँ से वे चुनौतियाँ उत्पन्न हो रही हैं।वैश्वीकरण के सच की गहराई में जाते हुए हिंदी के आलोचक प्रो. शिवकुमार मिश्र ने ठीक ही कहा है- “वस्तुतः जिसे आज वैश्वीकरण के नाम से विज्ञापित किया जा रहा है,स्वयं इस वैश्वीकरण के आकाओं के शब्दों में वह विश्व का अमरीकीकरण है।अर्थात् अमरीका की संस्कृति,उसकी सोच ,उसकी भाषा ,उसके अपने राष्ट्रीय हितों का समूचे विश्व में प्रसार।जैसा हमने कहा है,पहले का उपनिवेशवाद और पूंजीवाद अपनी सैन्य शक्ति और धन बल के आधार पर दुनिया के कमजोर पिछड़े हुए और विकासशील देशों पर अपना दबदबा जमाता था,उन्हें गुलाम बनाकर उन देशों पर शासन करता था,उनकी अपनी आर्थिक सम्पदा का दोहन करता था।आज उसने अपने चेहरे पर उदारतावाद के मुखौटे चढ़ा रखे है।”(मुश्किलों के बावजूद)

भूमंडलीकरण की जकड़ और वैश्वीकरण की पकड़ से हिंदी का व्यवहार माल की अधिक खपत के लिए हो रहा है।एक अरब से अधिक जनसँख्या वाले इस विशाल देश में हिंदी को रोमन लिपि में लिखकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा वैश्वीकरण के वृत्त में पहुंचाने का दावा किया जा रहा है।यह अपनी लिपि को खोने और जड़ से कटे होने की संस्कृति को प्रकारांतर में प्रेरित कर रही है ।भाषा संवैधानिक से ज्यादा सांस्कृतिक सवाल है,लेकिन भूमंडलीकरण और विश्व-बाजार के चलते यह विविध सूचना -माध्यमों के द्वारा सामाजिक संचरण से विकसित होने की प्रक्रिया में संलग्न है।यही कारण है कि जहाँ सरकारी प्रयास औपचारिक प्रमाणित हुए हैं,वहीं बाजार की हिंदी विजय -यात्रा का नूतन इतिहास रच रही है।

विगत दो दशकों में वैश्वीकरण के विरुद्ध काफी प्रचार हुआ है,जिस प्रचार में हिंदी भाषा की सार्थक भूमिका रही है।कहा जा रहा है कि यदि वैश्वीकरण का विरोध किया जाता है तो ज्ञानात्मक साहित्य  का प्रचार नहीं हो पायेगा।यह सच है कि चिकित्सा शास्त्र की मुख्य विचारधारा को हिंदी माध्यम में न पढ़ाया जाता हो,पर जब मरीज का इलाज किया जाता है,और मरीज सिर्फ हिंदी में बोलना जनता हो, तब उस इंग्लिश मैन को हिंदी समझने के लिए बाध्य होना पड़ता है।

बहरहाल वैश्वीकरण की चुनौतियों के बीच से गुजरती हुई हिंदी भाषा अपनी अग्रगति की सारी संभावनाओं की तलाश करते हुए आगे बढ़ती चली जा रही है।हाल में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार विश्व में चार भाषाओं अंग्रेजी,स्पैनिश, चीनी तथा हिंदी का भविष्य ही विश्व-बाजार में उज्ज्वल है और भारत में निर्विवाद रूप से यह हिंदी पर आश्रित है।आज अंग्रेजी से अधिक चैनल हिंदी में है तथा वे लगातार लोकप्रियता की शिखर पर पहुँच रहे हैं।आज हिंदी चैनलों की तूती बोल रही है।मजे की बात तो यह है कि जिन लोगों ने अंग्रेजी चैनल शुरू किया था,वे ही अब हिंदी की पूंछ पकड़कर वैतरणी पार करने में कटिबद्ध हैं।ज्ञान के भूमंडलीकरण के इस युग में हिंदी को महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करना है।उसे नयी तकनीक और साहित्येत्तर विषयों के लिए न केवल उपयोगी प्रभावित होना है,वरन् नई भाषा का अन्वेषण भी करना है।

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