भारतीय भाषाओं के जिन लेखकों, रचनाकारों ने पिछली सदी में समाज पर गहरी छाप छोड़ी है, उनमें पंजाबी भाषा की लेखिका अमृता प्रीतम का नाम उल्लेखनीय है। उनकी कविताएं, कथा-साहित्य, आध्यात्मिक, राजनैतिक, सामाजिक चिंतन भारतीय ही नहीं बल्कि कई विदेशी भाषाओं में अनूदित हुआ है और पाठकों ने उनकी रचनात्मकता को दिल से सराहा है । अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त 1919 ई. में ऐसे प्रदेश में हुआ जहां दुनिया की बेहतरीन प्रेम गाथा हीर- रांझा लोगों की जुबान पर बसती है । हीर- रांझा के कवि वारिसशाह अमृता प्रीतम के पसंदीदा रचनाकार भी रहे हैं।
अक्सर अमृता प्रीतम के साहित्य का आधा अधूरा मूल्यांकन किया जाता रहा है । अमृता प्रीतम के साहित्य से जो परिचित है वे उनकी सशक्त लेखन कला के कायल है लेकिन आम जनता में अमृता प्रीतम की छवि क्या है ? इसको लेकर कैसा नजरियां है ? इसकी झलक पिछले दो- तीन वर्षों में अमृता प्रीतम पर छपे पत्र – पत्रिका के लेखों से पता चलता है । वास्तव में अमृता प्रीतम के इमेज को लेकर जो नजरिया उनके साहित्य से अपरिचित पत्रकार या लेखक रखते है, वे उनकी गलती नहीं है बल्कि भारतीय सिने दुनिया में उनको लेकर जो अफवाहें है, उसी का उन पर प्रभाव देखने को मिलता है । बाजारू पत्र – पत्रिका में जो लेख छपते है वे सब उनकी और साहिर लुधियानवी की प्रेम की अधूरी अफवाहें ही है । इन अफवाहों को कभी अमृता प्रीतम के लिखे प्रेम पत्र तो कभी साहिर लुधियानवी के प्रेम गीतों के हवाले से बल मिलता है । लेकिन उनका प्रेम सतही प्रेम नहीं था जो केवल अफवाहों की बाजार गरम और बाजारू पत्र-पत्रिका के लिए मसाला बने ।
अमृता प्रीतम की नजर में प्रेम क्या है ? उनकी नजर में प्रेम एक एहसास है । किसी शख्स के प्रति जब अनुभूति अपनी तीब्रता तक पहॅुच जाती है, वह एहसास ही प्रेम है । अमृता प्रीतम का साहिर के प्रति यही एहसास था । अमृता प्रीतम का उठती जवानी में प्रीतम सिंह क्वात्रा के साथ विवाह होता है । विवाह के कुछ वर्षों के बाद एक शाम एक जलसे में उनकी मुलाकात साहिर लुधियानवी से होती है । इस पहली मुलाकात में ही वे उनपर आकर्षित हो उठती हैं । साहिर लुधियानवी के साथ अपनी पहली मुलाकात के एहसास के बारे में वे बताती है – “उठती हुई जवानी के समय एक छोटी सी घटना हुई थी, लाहौर और अमृतसर के दरम्यान एक छोटा –सा नगर आबाद हुआ था प्रीतम नगर, जहां एक बार उर्दू – पंजाबी शायरी की एक शाम मनायी गई । वहां से बस स्टैंड दो या तीन मील दूर था । सभी पैदल जा रहे थे, उनका पतला और लंबा सा साया, जहां- जहां पड़ता देखा, मैं शांत सी उनके साएं के साथ चलने लगी थी… बस इतनी सी घटना थी, और चेतन मन से बिल्कुल नहीं जान पाई जी कि आने वाले बरसों बरस तक मुझे इस साएं के साथ चलना होगा ।“
साहिर लुधियानवी से अमृता प्रीतम का प्रेम इतना गहरा था और पहली मुलाकात उनके मन के अंदर इस कदर बसा हुआ था कि उन्होंने उन यादों को सदा के लिए अपने साथ जोड़ लिया । अमृता प्रीतम और साहिर की पहली मुलाकात प्रीतमनगर में हुई थी । उनकी जिंदगी का सबसे खुशनुमा क्षण था इसलिए प्रीतमनगर के प्रीतम को उन्होंने अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लिया और अपना नाम अमृत कौर से अमृता प्रीतम रख लिया । इस प्रीतम ने हमेशा उनको साहिर से जोड़े रखा ।
अमृता प्रीतम यह जानती थी कि उनके इस रिश्ते का कोई भविष्य नहीं है । लेकिन उनमें यह साहस था कि वे अपने प्यार को स्वीकार कर सके । उन्होंने इस रिश्ते के बारे में कहा है – “यह मेरा और साहिर का रिश्ता, रिश्तों की किसी पकड़ में नहीं आएगा । इसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता ।” अमृता जी हमेशा से साहिर का साथ चाहती थी, इसके लिए वे अपना घर-बार, परिवार सब छोड़ने को तैयार थी लेकिन साहिर में वह साहस न था । अमृता जी को ये पता था जिस एहसास को वे जी रही है, वही एहसास साहिर में भी है लेकिन साहिर में वह हिम्मत नहीं थी कि एक विवाहित स्त्री को सामाजिक मान्यताओं को ताक पर रखकर स्वीकार कर लें । अमृता प्रीतम साहिर की चुप्पी और उसमें मौजूद अपने प्रति प्रेम के एहसास के संदर्भ में एक साक्षात्कार के दौरान साफ कहती है कि साहिर मुझसे प्रेम करते थे या नहीं यह मैं नहीं जानती लेकिन साहिर की खामोशी कहीं न कहीं प्रेम को स्वीकार करती थी – “साहिर का एक खास लहजा था खामोशी का लहजा, जिसमें लज्जा कभी आए ही नहीं, लेकिन खामोशी खूबसूरत थी… एक खामोशी होती है ठंडी डिटेच्ट और आपसे दूर, एक खामोशी होती है जो छू जाती है । उसी खामोशी के बल पर इतना कुछ कहा ।” अक्सर अमृता प्रीतम की आत्मकथा रसीदी टिकट के हवाले से साहिर और उनके प्रेम का जिक्र होता है । इस आत्मकथा को लोगों में तोड़-मरोड़कर पेश किया ताकि उनके और साहिर के बीच जो प्रेम था उस पर कुछ चटपटी खबरे, आर्टिकल लिखे जा सके । अमृता जी की लिखी इस आत्मकथा के साथ अमृता जी की लिखी एक उपन्यास ‘एक थी अनीता’ को पढ़ा जाना चाहिए । इनमें तीन मुख्य पात्र है – अनीता, सागर और इकबाल । इन तीन पात्रों को क्रमबद्ध अमृता प्रीतम, साहिर लुधियानवनी और इमरोज को सामने रखकर पढा जाना चाहिए । इस उपन्यास अमृता जी की निजी जिंदगी का संघर्ष, साहिर के साथ प्रेम और फिर इमरोज के साथ जिदगी जीने का फैसला सब मौजूद है ।
अमृता प्रीतम ने साहिर के जिस खामोशी का जिक्र अपने साक्षात्कार में किया वह खूबसूरज खामोशी ‘एक थी अनीता’ उपन्यास के सागर का अनीता के प्रति भी था । उपन्यास में एक वाक्या है, अनीता सागर से कई वर्षों के बाद जब मिलती हैं तो वह अपना घर-बार परिवार सब छोड़कर सागर के साथ जाना चाहती है लेकिन सागर तैयार नहीं है । अमृता जी इस उपन्यास में सागर के जरिए साहिर का शादी के बारे में नजरिया पेश करती हैं । अनीता सागर से प्रश्न करती है – “विवाह कर लिया होगा ?” इस प्रश्न से सागर बेचैन हो जाता है । उसने जो उत्तर दिया उससे यह स्पष्ट पता चलता है कि सागर भी अनीता से प्रेम करता है – “जिसके साथ विवाह करना था, उसने मुझसे पहले ही किसी से विवाह कर लिया, फिर मैं किससे विवाह करूँ ?” अनीता सागर को ऑफर करती है कि वह उसके साथ जिंदगी जीना चाहती है लेकिन सागर में वह हिम्मत नहीं और वह उठ कर चला जाता है – “अनीता ने हाथ ऊॅचा उठाकर सागर को ठहरने के लिए कहा, पर सागर ने शायद समझा नहीं या शायद समझकर भी ठहरना नहीं चाहा । उसने टैक्सी की खिड़की में से हाथ हिलाया और अनीता की ओर केवल एक बार देखा । फिर वह सीधा सड़क की ओर देखने लगा। अनीता ठहरी की ठहरी रह गई । टैक्सी मिनटों में ही सामने की सड़क पर से गुजर गई और अब सामने की सड़क नितांत सूनी थी ।” सूनी सड़क की तरह अनीता का जीवन भी सूनेपन और उदासी में डूब गया । एक साक्षात्कार के दौरान इमरोज से अमृता प्रीतम, साहिर लुधियानवी और इमरोज के बीच के संबंधों के बारे में बातचीत करते हुए जब इमरोज से साहिर और अमृता प्रीतम के प्रेम के बारे में पूछा जाता है तो इमरोज ने भी इस बात को स्वीकार किया कि यदि साहिर अमृता प्रीतम को अपने साथ ले जाना चाहते तो वे कभी भी उनके साथ जाने को तैयार हो जाती – “साहिर का नाम अमृता के नाम के साथ हमेशा जुड़ा रहा । क्या आपके बीच यह कभी चर्चा को विषय बना ?”
इमरोज – “सहिर को लेकर मुझे कोई परेशानी नहीं हुई । हालांकि वह एक बार भी कहते तो अमृता उनके साथ चल देती, लेकिन उनमें इतना साहस नहीं था । उन्हें पता ही नहीं था कि उन्हें कैसी औरत चाहिए ।”
‘एक थी अनीता’ के सागर की तरह साहिर भी कभी शादी नहीं करते । यहां साहिर की एक छोटी सी नज्म जिसमें इनके जीवन का इंतजार उतरकर आया है, उल्लेखनीय है – “हम इंतिजार करेंगे तिरा कयामत तक / खुदा करे कि कयामत हो और तू आए / ये इंतिजार भी इक इम्तिहान होता है / इसी से इश्क का शोला जवान होता है / ये इंतिजार सलामत हो और तू आए / बिछाए शौक के सज्दे वफा की राहों में / खड़े है दिल की हसरत लिए निगाहों में / कुबूल दिल की इबादत हो और तू आए / वे खुश-नसीब है जिसको तू इंतिखाब करे / खुदा हमारी मुहब्बत को कामयाब करे / जवां सितारा – ए – किस्मत हो और तू आए / खुदा करे कि कयामत हो और तू आए ।”
इसी बीच अनीता की मुलाकात चित्रकार इकबाल से होती है । अमृता प्रीतम की जिदगी में भी ऐसा ही वाक्या होता है । उम्र के चालीसवें वर्ष में उनकी मुलाकात इमरोज से होती है । इमरोज भी चित्रकार ही है । धीरे धीरे अनीता और इकबाल नजदीक आ जाते हैं । वे दोनों एक दूसरे के इतने नजदीक आ जाते हैं कि अपने मन की बात करते हैं । एक दूसरे के सुख –दुख के साथी हो जाते हैं । अनीता के मन में सागर के जाने का गम तो है साथ ही इकबाल के खोने का डर भी । वह कहती है – “मुझे न तो कभी सागर मिलेगा और न मेरी आवश्यकता मिटेगी । पर इकबाल, आप ही किसी दिन इतनी दूर चले जाएंगे कि आपको मेरी आवश्यकता स्मरण भी न रहेगी ।”
अमृता प्रीतम और इमरोज का रिश्ता भी बड़ा अजीब था । अमृता प्रीतम साहिर से प्यार करती थी और इमरोज अमृता प्रीतम से । इमरोज इस बात से अच्छी तरह वाकिफ थे कि अमृता जी की जिदगी में वे दूसरे स्थान पर है । लेकिन अमृता प्रीतम इमरोज से भी गहरा प्रेम करती थी इसमें कहीं कोई संदेह नहीं है । यहां एक वाक्या उल्लेखनीय है । जब अमृता प्रीतम से इमरोज कुछ दिनों के लिए काम के सिलसिले में उनसे दूर जाते है तो वे बीमार पड़ जाती है । इस वाकयें को इमरोज कुछ इस तरह बताते है – “बात भावनाओं, संवेदनाओं की होती है, जिसमें कुछ कहने सुनने की जरूरत नहीं रह जाती । अमृता ने मुझे कभी ‘आई लव यू’ नहीं कहा । जब पहली बार मुझे गुरूदत्त की तरफ से बांम्बे आकर काम करने का ऑफर मिला, अपनी शर्तों पर, अपनी मर्जी के पैसों पर, तो मैने हां कह दी । अमृता को बताया, तो वह खुश भी हुई, रोने भी लगी और इतना कहा, ‘आई लव वन मैन बँट लॉस्ट हिम ट्वाइस ।” इमरोज यह समझते थे कि अमृता प्रीतम उनको कितना प्यार करती है । वे यह भी जानते थे कि साहिर के जाने का दुख है और साहिर जब बांम्बे चले गये तो फिर वापस नहीं आए । इमरोज आगे कहते हैं कि अमृता प्रीतम के मन में एक असुरक्षा का भाव था कि बांम्बे जाने के बाद शायद वे भी वापस न लौटे तो – “उनके ख्याल में साहिर बॉम्बे गया, तो वहां खो गया और अब मैं भी जा रहा था । मैंने कुछ नहीं कहा, लेकिन जाकर वापस आने का तय कर लिया । तीन दिन बाद मैं चला गया, तो जितने दिन वहां रहा, उन्हें मुसलसल बुखार आता रहा । जब वापस आया, तो उनका बुखार ठीक हो गया । बिना किसी दवा इलाज के ।”
अनीता और इकबाल एक साथ रहने का फैसला करते हैं । इकबाल अनीता से छ: वर्ष का छोटा है । अनीता उसे समझती है कि परिवार और समाज इसे आसानी से स्वीकार नहीं करेगा, लेकिन इकबाल केवल अनीता को चाहता है । वह अनीता से कहता है कि “मुझे जो कुछ इस दुनिया में पाना था पा लिया ।” ठीक इसी तरह की घटना अमृता प्रीतम और इमरोज की जिदंगी में भी घटित होता है । अमृता प्रीतम इमरोज से सात वर्ष बड़ी थी । इमरोज कहते है – “मैने सुना है कि विवाह स्वर्ग में ही तय होते हैं । अमृता का विवाह तय करने में विधाता ने जो क्षति छोड़ी थी, उसकी पूर्ति हमने कर दी है ।”
इमरोज के लिए अपने से सात वर्ष बड़ी, दो संतानों की मां से प्रेम करना और उसे स्वीकार करना आसान नहीं था लेकिन इमरोज को ऐसी ही औरत की तलाश थी । इमरोज लिखते हैं – “अमृता मुझसे सात साल बड़ी थी, पर मेरे और उसके विचारों में बड़ी समानता थी, साथ ही कई बातों में असमानता भी । बातों में समानता और उससे मुहब्बत नहीं होती, तो दोस्ती फीकी पड़ जाती तब शायद हम दोनों अलग हो जाते हैं ।”
अमृता और इमरोज का संबंध भी ‘एक थी अनीता’ उपन्यास में उतरकर सामने आया है । उपन्यास की पात्र अनीता में अमृता जी को देखा जा सकता है । इतना तो होता है कि एक लेखिका अपने पात्रों में मौजूद होती है लेकिन यहां लेखिका के व्यक्तिगत जीवन की घटनाएं भी उपन्यास का हिस्सा हो गया है । उपन्यास की नायिका अनीता इकबाल से विवाह करने के पूर्व कहती हैं कि उसे पहले पूरी दुनिया देख आनी चाहिए फिर वह बोलेगा तो अनीता उसके साथ रहेगी – “अनीता पहले हँस पड़ी, फिर गंभीर होकर कहने लगी, ‘’अच्छा इकबाल, आप एक बार जाकर दुनिया देख आइए । अगर किसी स्थान ने आपको अटका लिया तो वही रह लेना । पर अगर आपको किसी भी वस्तु ने न बांधा तो मेरे पास आ जाना ।” अनीता के इस प्रस्ताव पर “इकबाल ने उठकर कमरे में एक पूरा चक्कर लगाया और फिर अनीता के पास ठहरकर कहने लगा, मैं सारी दुनिया देख आया हूँ । मुझे अनीता को छोड़कर और कुछ न चाहिए ।” ठीक इसी तरह की घटना का उल्लेख इमरोज करते हैं । वे बताते हैं कि “सब यही कहते थे कि मेरी उम्र कम है, कुछ समय का जोश है । फिर मैं उसे छोड़कर चला जाऊॅगा । मुझे तो छोड़कर जाना कहां था, उसके भीतर भी एक उम्मीद और विश्वास काम करता रहा ।” इमरोज को अपने आप पर विश्वास था । उसे अमृता प्रीतम से प्रेम था । आगे वे कहते हैं कि “एक ज्योतिषी ने कहा, मेरा और उनका संयोग बस ढाई घड़ी का है, ज्याद से ज्यादा ढाई महीने और बहुत हुआ तो ढाई साल का हो सकता है । अमृता ने कहा फिर ज्यादा से ज्यादा ढाई जन्म का भी हो सकता है । एक बार मायूसी में मुझसे बोली, तुम पहले दुनिया देख आओ, फिर मेरे साथ रहना । मैनें अपने कमरे के सात चक्कर लगाए और आकर कहा, मैं दुनिया देख आया । दोनों हँस दिये, बात समाप्त हो गई ।”
अनीता और अमृता प्रीतम क्रमश: सागर और साहिर से आजीवन प्रेम करती रहीं । यद्यपि वे क्रमश: इकबाल और इमरोज के साथ रहती थी । अनीता और अमृता प्रीतम का क्रमश: सागर और साहिर से एकनिष्ट प्रेम था, लेकिन जीवन की जरूरतों को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । दोनों ही क्रमश: इकबाल और इमरोज में सागर और साहिर को ढूँढ़ लेती हैं । अनीता इकबाल के साथ जाने के पहले सागर को एक पत्र लिखती है । यद्यपि वह पत्र कभी भी डालती नहीं है । इस पत्र में वह लिखती है – “दुनिया के किसी भी आदमी के लिए यह समझना कठिन होगा कि मैं तुम्हे भी प्यार करती हूँ और इकबाल को भी प्यार करती हूँ । पर मुझे इसकी समझ यूँ आती है जैसे तुम्हारी मुहब्बत कोई आकाश जैसी वस्तु हो जिसके अस्तित्व को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता, पर जिसके नीचे बसने के लिए ईंटों और मिट्टी का कोई घर बनाना पड़ता है । इकबाल की मुहब्बत उस घर की तरह है जिसकी दीवारों से मुझे आश्रय की आवश्यकता है । एक घर की आवश्यकता को भी कोई इंकार नहीं कर सकता और इस बात को भी अस्वीकार नहीं कर सकता कि आकाश सर्वव्यापी होता है, घर के बाहर भी और घर के अंदर भी ।” ऐसे दिल को छू जाने वाले पत्र को लिखकर भी उसे पोस्ट न करना अनीता के मन के अंतर्द्वन्द्व और आत्मस्वाभिमान को दर्शाता है जो अमृता जी में भी ठीक उसी तरह देखने को मिलता है ।
अमृता प्रीतम सन् 1963 ई. में दिये एक साक्षात्कार में कहती हैं, “मेरा प्यार मन में से उमड़कर बाहर नहीं छलकता । यह स्थिर है, शांत, चुपचाप, पर्वतों से घिरी हुई किसी गहरी झील की भांति । पुरूषों का प्यार डोमिनी की हंडिया की तरह उफन – उफन पड़ता है । मैं ऐसे प्यार को बहुत अच्छा नहीं समझती । पुरूष अपने प्यार की डींगे मारता है, स्त्री इसे छुपाती है । पुरूष इसको चौराहे में रखकर दिखा – दिखा प्रसन्न होता है, स्त्री अपने आंचल में सहेजकर गांठ बांध लेती है और रात के अंधकार में जब कोई नहीं होता, तो वह इसे देखती है । इसके साथ खेलती है, जैसे मणिधर आधी रात में मणि से खेलता है । इसके प्रकाश में मस्त और कोई आ जाए, तो एकदम इसे मुँह में रखकर खामोश हो जाती है ।”
प्रेम समर्पण चाहता है, संपूर्ण समर्पण के बिना एक दूसरे पर भरोसे के प्रेम नहीं हो सकता । आज की बात करें तो अभी के प्रेमी प्रेम लुकाव, छिपाव और दुराव रखते हैं । एक कहावत है ‘प्रेम आग का दरिया, जिसमें डूब कर जाना होता है ।’ यह सच है कि प्रेम में बिना साहस के सफलता नहीं मिलती । प्रेम में गहराई और समर्पण के साथ –साथ ईमानदारी होनी चाहिए । इस संदर्भ में घनानंद हमारे उदाहरण हो सकते है । घनानंद ने लिखा है – “अति सूधो सनेह को मारग है जहां नेकु सयानप बॉक नहीं / तहां साचे चले तजी अपनापौ झझकै कपटी जे निसांक नहीं ।” प्रेम साहस की भी अपेक्षा रखता है । इस संदर्भ में अमृता प्रीतम पूरी तरह से खरी उतरती है । यद्यपि साहिर ने अपने दिल की बात हमेशा छुपाई है लेकिन अमृता जी ने खुलकर इस बात को स्वीकार किया है कि उन्होंने साहिर से बेइंतहा मुहब्बत की है ।
ये तो हुई अमृता प्रीतम की साहिर के प्रति दीवानगी । यदि साहिर के फिल्मी गीतों पर एक नजर डाले तो पता चलता है कि साहिर भी अमृता जी को कभी भूल नहीं पाए । साहिर ने ‘कभी – कभी मेरे दिल में ख्याल आता है’ गीत की अंतिम कड़ी में जो लिखा है वह फिल्म के साथ –साथ उनकी जिंदगी की भी झलक दे जाता है – “मैं जानता हूँ कि तू गैर है मगर यूँ ही’’ इसी तरह उन्होंने लिखा है – ‘’कभी खुद पे, कभी हालात पे रोना आया / बात निकली, तो हर इक बात पे रोना आया / हम तो समझे थे कि हम भूल गये है उनको / क्या हुआ आज, ये किस बात पे रोना आया ।” साहिर अमृता जी को कभी भूल नहीं पाए थें । इसलिए जब कभी उनके सामने अमृता जी का जिक्र होता वे एक अजीब किस्म की खामोशी में खो जाते । अमृता के कई उपन्यासों में साहिर की इस खामोशी का जिक्र मिलता है, जिसे वे केवल अपने नजदीकी मित्रों के सामने ही तोड़ते है । ‘न राधा न रूकमणी’ उनके द्वारा लिखित एक ऐसा ही उपन्यास है जिसमें साहिर की खामोशी का जिक्र है । इस उपन्यास को अमृता जी ने अपने समकालीन चित्रकार हरकृष्ण जी के जीवन से लिया है और इसमें उनके मित्र के तौर पर साहिर, फिल्मों के संगीत निर्देशक जयदेव भी मौजूद है ।
अमृता प्रीतम ने अपने कई उपन्यासों में प्रेम के सच्चे रूप का वर्णन किया है । यह सच्चा प्रेम आखिर है क्या ? अमृता प्रीतम की नजरों से देखें तो यह सच्चा प्रेम शारीरिक न होकर मानसिक है । उनके चर्चित उपन्यास ‘पिंजर’ जिसपर एक फिल्म भी बनी उसकी नायिका पूरो कहती है – “पूरो सोचती रही, सब गीत लड़कियों के ही गुण गाते हैं, सारे भजन सच्चे प्रेम का वर्णन करते हैं । क्या कभी ऐसे गीत भी बनेंगे जिनमें मुझ जैसी लड़कियों के रूदन की कथा लिखी जाएगी ? क्या कभी ऐसे भजन भी होंगे जिनका कोई भगवान ही न होगा ?” वास्तव में प्रेम जाति, धर्म, धन-दौलत, ऊँच –नीच का मोहताज नहीं होता, वह चाहता है तो सिर्फ ईमानदारी, सच्चाई और संपूर्ण समर्पण । अमृता जी का एक उपन्यास है ‘कैली’ उर्फ रंग का पत्ता, इस उपन्यास की नायिका कैली ऐसे ही प्रेम को सच्चा प्रेम मानती है । अमृता जी ने इस संदर्भ में लिखा हैं – “मुहब्बत से बड़ा जादू इस दुनिया में नहीं है । उसी जादू से लिपटा हुआ एक किरदार कहता है – ‘’इस गांव में जहां कैली बसती है, मेरी मुहब्बत की ताज बसती है ।” और इसी जादू में लिपटा हुआ कोई और किरदार कहता है – ‘’प्रिय तुम्हे देखा तो मैने खुदा की जात पहचान ली…’’
इसके अलावा ऑक के पत्ते, नीना उर्फ घोंसला, कामिनी उर्फ दिल्ली की गलियां, डॉक्टर देव, ‘तेरहवां सूरज’, ‘उनचास दिन’ जैसे उपन्यासों के पात्रों के माध्यम से अमृता जी ने प्रेम के प्रति जो नजरिया रखा है वह बेजोड़ है ‘नागमणि’ उर्फ चक न. छत्ती उपन्यास का जिक्र यदि इस संदर्भ में छूट जाए तो अमृता जी का प्रेम के प्रति नजरिया अधूरा रह जाएगा । यह उपन्यास एक स्त्री के प्रेम में समर्पण की बुलंदियों की दास्तान बयान करता है । इस उपन्यास की कथा को थोड़ा जिक्र प्रेम में समर्पण के मूल्य को समझने में जरूरी बन जाता है । उपन्यास में दो मुख्य पात्र है एक कुमार और दूसरी अलका ।
कुमार एक चित्रकार है, एक कलाकार है । यह उसके मन का एक हिस्सा सेल्फ अपने आप को अभिव्यक्त कर रहा है, लेकिन यही कुमार रिश्तों को एक बंधन मानते हुए उससे भागता है । वह अपने पास काम करने वाली अलका से कहता है – “मैं यह बताने चला था कि एक बार मुझमें ऐसी भूख जगी कि मैं कई दिन सो न सका । वह सिर्फ जिस्म की भूख थी, एक औरत के जिस्म की भूख । पर मैं किसी भी औरत के साथ अपना जिंदगी के साल बांधने के लिए तैयार न था, कभी तैयार नहीं हो सकता । इसलिए कुछ दिन में ऐसी औरत के पास जाता रहा जो रोज के बीस रूपए लेती थी और मेरी स्वतंत्रता को कभी नहीं मांगती थी ।” कुमार के लिए जिंदगी का एक ही फलसफा था और वह था – मुक्त जीवन । वह बंधनों में बंधने को तैयार न था । ऐसा क्यों ? इस प्रश्न का उत्तर अमृता जी की डायरी में मौजूद है । सन् 1977 के 15 अप्रैल को अपनी डायरी में वे लिखती है – “हम जानते है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता सेक्स की स्वतंत्रता में है । हर कोई स्वयं अपने जिस्म का मालिक है – इसमें गिरजाघर , मिलिट्री और सरकार सब दखल-अंदाज है…’’
कुमार के मन के अंदर अंतर्द्वन्द्व होता है । अलका उससे प्यार करती है, लेकिन वह की भी कुमार को अपने से बांधने की कोशिश नहीं करती है । उसे स्वतंत्रत करती है । कुमार भी धीरे-धीरे अलका से प्रेम करने लगता है । उसे डर है कि वह बंध न जाए । कुमार अपने ख्यालों, अपने आप से भागने लगा । वह अलका से दूर जाने की चाहत में अलका को कहता है कि उसे औरत के जिस्म की भूख है । वह शहर जाना चाहता है अपनी भूख मिटाने । अलका उसे कहती है, इसके लिए शहर जाने की क्या जरूरत, वह बीस रूपए मुझे दे दो और अपनी भूख मिटा लो । एक तरह से अलका कुमार के लिए वेश्या बनने को तैयार है । वह आगे कुमार को विश्वास दिलाती है कि वह कभी भी इस बीस रूपए के रिश्ते से आगे नहीं बढ़ेगी । इस शर्त पर कुमार अलका से संबंध बनाता है और अपनी औरत के जिस्म की भूख मिटा लेता है, लेकिन कुमार कुछ दिनों में महसूस करने लगता है कि वह अलका से प्रेम करने लगा है – “पर कुमार अपने मन की गहराइयों से डर रहा था कि कहीं यह भूख सिर्फ अलका से जिस्म की भूख न हो । जिसका मतलब था कि वह अलका से प्यार करने लगा था । प्यार का मतलब था कि उसके ख्याल और उसके सपने सारी उम्र के लिए अलका के रहम पर हो जाएंगे । कुमार ने हमेशा उन लोगों को कोसा था जिन्होनें अपने सपने चांदी से तौल दिए थे , या शोहरत को बेच दिये थे, या किसी को मुहब्बत करके हमेशा के लिए उसकी नजर के मुहताज हो गये थे ।”
डेढ़ महीने दिल्ली में रहने के बाद जब कुमार को यह अनुभव हो जाता है कि अब अलका का जादू उस पर से खत्म हो गया है, उसने अपने जिस्म की भूख को जीत लिया तो वह चक न. छत्ती में लौट आता है । वह अलका को अपने आने की खबर तक नहीं देता, लेकिन वह उससे मिलने आती है । कुमार उससे दूर रहने की कोशिश करता है । कुछ दिनों के बाद अलका को उसके पिता का खत आता है और कुमार उसे जोर देकर घर भेज देता है । साथ ही उसे किसी और से विवाह करने को कहता है । अलका पहले तो नहीं मानती, लेकिन कुमार के आग्रह पर विवाह करना स्वीकार कर लेती है । अलका के जाने के बाद कुमार के मन में फिर से एक द्वन्द्व शुरू हो जाता है । वह महसूस करता है कि उसके सीने में कए दर्द शुरू हो गया है जिसकी दवा केवल अलका का सिर सीने पर रखना है, लेकिन अपने अंदर अलका से दूर जाने की ओर उसे पाने के बीच के द्वन्द्व से वह मुक्त नहीं हो पाता है । अलका का विवाह तय हो जाता है । जैसे – जैसे अलका के विवाह की तारीख नजदीक आती जाती है, कुमार के सीने का दर्द बढ़ता जाता है, कुमार अलका से दूर होकर सीने के दर्द से मर जाता है । यह कुमार के अंदर का आत्मसंघर्ष है जो रिश्ते, स्त्री से बंधने को तैयार नहीं है, लेकिन उसे अलका की भी जरूरत है । कुमार का यह अंतर्द्वन्द्व पाठकों को कई बार चौंका देता है । उसकी तकलीफ , उसके संधर्ष करने की ताकत शायद अलका ही थी । अलका के बिना पहले वह बीमार होता है और फिर दुनिया को अलविदा कर देता है । उपन्यास के अंत में अलका ने कुमार को अपने पति स्वीकार कर वैध्वय का जीवन जीना तय कर लिया ।
इस पूरे उपन्यास में अमृता जी ने कुमार के आत्मसंघर्ष को विशेष महत्व दिया । कुमार मुक्त सेक्स में विश्वास करता है । विवाह, रिश्ते –नाते उसे बंधन लगते है, लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि कुमार अमृता जी का मुख्य पात्र नहीं है । उन्होंने अपनी पीड़ा, दर्द अलका के माध्यम से पाठकों को दिया है । अलका भी इस उपन्यास में एक आत्मपीड़ा, आत्मसंघर्ष से गुजरती है । यद्यपि यह आत्समंघर्ष मुखर नहीं है । वह अंदर ही अंदर इस पीड़ा को झेलती है । अमृता जी विवाह जैसी सामाजिक मान्यताओं को पूरी तरह से अस्वीकार नहीं करती है । उनका मानना है कि विवाह किसी के लिए कोई बंधन नहीं बल्कि उसे उसकी स्वतंत्रता बननी चाहिए – “मैरिज का बेसिक कंसेप्ट एक दूसरों का पूरक होना है । एक दूसरों की स्वतंत्रता । गुलामी नहीं… मुश्किल तो यह है कि मैरिज शब्द के अर्थ खो गए है ।”
‘नागमणि’ उपन्यास का कुमार भी कहीं भी तसल्ली नहीं पाता है । वह रिश्तों-नातों, विवाह, एक स्त्री से बंधना स्वीकार नहीं करता, लेकिन अलका के जाने के बाद वह महसूस करता है कि उसके भीतर कुछ कमी है । वह उसे पाने के लिए तड़प उठता है । दिनेश द्विवेदी ‘नागमणि’ के अलका के बारे में कहते हैं – “इसमें कोई शक नहीं कि ‘नाममणि’ उपन्यास का कथानक अपने आप में अद्वितीय है… सपर्पण का कोई सामाजिक रिश्ते जैसे मूल्य नहीं मांगती अलका, बल्कि कुमार के मृत्यु के बाद एक अनब्याहा वैधब्य स्वीकार कर लेती है ।…’’
अमृता जी और इमरोज का संबंध नागमणि के अलका और कुमार के संबंध के जैसा ही है । यद्यपि अलका और कुमार एक नहीं हो सके और अलका ने वैधब्य का जीवन स्वीकार कर लिया, परन्तु अमृता प्रीतम और इमरोज एक साथ रहते हैं । कुमार के शादी के संबंध में जो विचार है, इमरोज के भी वैसे ही विचार हैं । अमृता प्रीतम अपने पति को छोड़कर इमरोज के पास आ जाती है और साथ ही इमरोज जो शादी के प्रोग्राम को अपने लाइफ स्टाइल के अनुरूप स्वीकार नहीं करते, दोनों एक साथ रहने लगते है । दोनों में एक मौन समझौता है । एक दूसरे की स्वतंत्रता में दखल न देने की । इमरोज कहते है – “फैसला न उन्होंने किया और न मैंने । उन्होंने बताया कि पहली तारीख को मैं अपने पति से अलग हो रही हूँ । आप आ जाना । मैं आ गया ।” आगे इमरोज रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक कहानी का हवाला देते हुए कहते हैं कि उनमें और अमृता प्रीतम में एक प्रस्ताव आता है कि दोनों आत्मनिर्भर जीवन व्यतीत करेंगे और कोई किसी की लाइफ स्टाइल को बदलने की कोशिश नहीं करेंगे । इमरोज कहते हैं – “टैगोर की एक कहानी है, जिसमें पुरूष किसी स्त्री के सामने शादी का प्रस्ताव रखता है । स्त्री प्रस्ताव स्वीकार करते हुए कहती है कि नदी के पार मेरा घर है । इस पार अपना बना लो । जब दिल चाहेगा, मुझसे मिलने आ जाना । मेरी इच्छा हुई, मैं आ जाऊँगी । जी न चाहे तो इंकार भी कर सकते हैं । कहानी में आदमी को यह व्यवस्था अच्छी नहीं लगती और वह चला जाता है, लेकिन मैं यही जीवन शैली चाहता था, जिसमें दोनों व्यक्ति हर लिहाज से आत्मनिर्भर हो । शादी का प्रोग्राम मेरे लाइफ स्टाइल से मैच नहीं करता था ।”
अमृता प्रीतम प्रेम, विवाह आदि को मनुष्य की गुलामी या बंधन नहीं मानती । वे मानती है कि प्रेम मनुष्य को और अधिक स्वतंत्र बनाता है । आज के प्रेम की बात करे तो समर्पण की कमी तो प्रेमियों में है ही साथ ही वे अपने साथी को अपने साथ बांधने की कोशिश में लग जाते हैं । इसलिए भी शायद आज रिश्ते कमजोर होते जाते हैं । हम एक दूसरे की जरूरतों को समझे बिना निर्णय लेने लगते हे । इसलिए प्रेम में कहीं न कहीं कमी रह जाती है । प्रेमियों में अक्सर छोटी –मोटी बातों पर तकरार होती ही रहती है । ऐसे में अक्सर वे एक दूसरों की जज्बातों का ख्याल रखे बिना वर्षों के संबंध को एक ही झटके में तोडने का या अलग होने का जो फैसला करते है, बिना यह सोचे समझे कि उसके इस फैसले से किसी की जिंदगी तबाह हो सकती है । इश्क में जुदाई की तड़प क्या होती है ? सच्चे मन से प्रेम करने वाले प्रेमियों से पूछिए । अमृता प्रीतम ने साहिर के साथ प्रेम को स्वीकार करके जिस साहस और हिम्मत का परिचय दिया वह बहुत कम लोगों में देखने को मिलता है और इमरोज के साथ उनका रहने का फैसला तो एक मिसाल के सिवा और कुछ नहीं हो सकता । ऐसी हिम्मत और जज्बा यदि आज के प्रेमी रखे तो हमारे देश कुछ एक सामाजिक समस्याएं जैसे जाति –पाति, छुआछूत,ऊॅच-नीच का भेदभाव, दहेज प्रथा कुरीतियां खत्म हो सकती हैं ।
अमृता प्रीतम की प्रेम कहानी आज के युवा प्रेमियों के लिए एक आदर्श है, एक मिसाल है । इश्क जज्बातों के सम्मान का नाम है इसमें जबरदस्ती वाली चीज नहीं हो सकती । अमृता प्रीतम के ‘कामिनी’ उपन्यास की नायिका कामिनी कहती है – “इश्क इलायची की तरह हथेली में पेश करने वाली चीज नहीं है ।” आज की पीढ़ी के लिए यह बड़ा सबक है । हम जिसे प्यार करें उसके प्रति पूरा समर्पण रखे, उस पर विश्वास करें, उसकी स्वतंत्रता का सम्मान करें । इश्क की इस दास्तान को साहिर के गीत की कुछ पंक्तियों से खत्म करने की बात नहीं करूँगा बल्कि विराम दूँगा क्योंकि इश्क दास्तान खत्म नहीं होती वैसे भी इनका इश्क सदियों तक न केवल लोगों की जुबां पर होगा बल्कि इसकी मिसाले हीर –रांझा, रोमियो जूलियट, सोनी महिवाल जैसे अमर प्रेम गाथों के साथ दी जाएंगी । साहिर की ये पंक्तियों उनके इश्क की दास्तान का मुकाम और जज्बात दोनों है –
“वे अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन / उसे एक खुबसूरत मोड़ देकर, छोड़ना अच्छा / चलो इकबार फिर अजनबी बन जाए हम दोनों ।”
(फोटो : सारी तस्वीरें गूगल से ली गई हैं)