आशा विनय सिंह बैस की कलम से… फुटबॉल

नई दिल्ली । इंग्लैंड को आधुनिक फुटबॉल का जनक माना जाता है। इंग्लैंड में लोगों के झुंड फुटबॉल खेलते थे, जहां इसे ‘मॉब फुटबॉल’ के रूप में जाना जाता था। यह खेल नौवीं शताब्दी तक यूरोप के कई देशों में खेला जाने लगा था। भारत में क्रिकेट की तरह फुटबॉल भी सबसे पहले अंग्रेज ही लेकर आए। प्रारंभ में, फुटबॉल पूरी तरह से सेना की टीमों द्वारा खेला जाने वाला खेल था। 1872 में कलकत्ता में सारदा एफसी के गठन के साथ भारत में क्लब फुटबॉल ने आकार लिया। 1889 में भारत की सबसे पुरानी वर्तमान टीम मोहन बागान को “मोहन बागान स्पोर्टिंग क्लब” के रूप में स्थापित किया गया था।

ब्रिटिश भारत की राजधानी होने के कारण कलकत्ता सहित पूरे बंगाल में कई क्लब स्थापित हुए। 19 वीं शताब्दी के अंत तक कई टूर्नामेंट जैसे- डूरंड कप और आईएफए शील्ड जैसी वर्तमान प्रतियोगिताएं खेली जाने लगी थीं। बाद में भारतीय फुटबॉल संघ (1893) और अखिल भारतीय फुटबॉल संघ (1937) जैसे नियामक निकायों का गठन किया गया था। क्योंकि फुटबॉल देश के अन्य हिस्सों में भी खेला जाने लगा था। भारत में व्यक्तिगत स्तर पर फुटबॉल की शुरुआत नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी ने 1877 में कलकत्ता के हेयर स्कूल में फुटबॉल टीम बनाकर की। इसीलिए सर्वाधिकारी को भारतीय फुटबॉल का पितामह और कोलकाता को फुटबॉल की राजधानी कहा जाता है।

फुटबॉल और कोलकाता से याद आया कि मैं पूरे तीन वर्ष ‘सिटी ऑफ जॉय’ में रहा हूं। इस दौरान मैंने नोटिस किया कि हम उत्तर भारतीयों विशेषकर यूपी और बिहार को बंगाल से संयुक्त परिवार की परंपरा, लड़कियों को बोझ न समझना, पर्यटन, त्योहारों (दुर्गा पूजा) में खुल के खर्च करना, अलमस्त जीवन जीना, पैसे के पीछे न भागना, सुलेख, कला, मूर्तिकला, चित्रकला, गायन, वादन, साहित्य, अपनी परम्पराओं और रीति-रिवाजों पर गर्व होना, बुद्धिजीविता आदि के क्षेत्र में बहुत कुछ सीखने की जरुरत है।

आशा विनय सिंह बैस, लेखिका

हालांकि अनियमित दिनचर्या (रात को देर से भोजन और शयन, दोपहर में सोना), अनियमित खानपान (मछली के अलावा शायद ही कुछ पौष्टिक खाते होंगे! दूध से तो पर्याप्त दूरी बनाकर रखते हैं), पत्नी की कुछ ज्यादा ही सुनना, बच्चों का अति दुलार करना, माँ-बाप से ज्यादा सास-ससुर को पूजना, अतिव्ययता, बीड़ी, चाय का आदी होना, राजनीति में कट्टरता और हिंसा, कठिन श्रम से जी चुराना उनकी कमजोरी भी रही हैं।

बाबू मोशाय लोगों के गुण और अवगुण देखने, जानने और समझने के बाद कई बार मुझे आश्चर्य होता है कि दादा लोगों का पसंदीदा खेल फुटबॉल जैसा श्रमसाध्य खेल कैसे है? इसका जादू आखिर पूरे बंगाल विशेषकर कोलकाता के सर पर चढ़कर क्यों बोलता है?? मुझे लगता है कि शतरंज, लूडो, कैरम जैसा कोई इंडोर और दिमाग वाला खेल उनके स्वभाव और खान-पान को अधिक सुइट करता!

(स्पष्टीकरण : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी व व्यक्तिगत है। इस आलेख में दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई है।)

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