“माहवारी के कारण भारत में करोड़ों लड़कियां छोड़ देती हैं पढ़ाई”

कोलकाता। पीरियड्स यानी माहवारी को लेकर सामाजिक शर्मिंदगी की वजह से भारत में करोड़ों लड़कियों को पढ़ाई छोड़नी पड़ रही है। भारत में आज माहवारी एक ऐसा मुद्दा बना हुआ है, जिस पर खुलकर बात नहीं होती। माहवारी के कारण भारत में करोड़ों लड़कियां स्कूल बीच में छोड़ देती हैं। माहवारी से जुड़ी स्वच्छता के बारे में जागरूकता की कमी, इसे लेकर समाज में मौजूद रूढ़िवादी अंधविश्वास और सुविधाओं की कमी के कारण इन लड़कियों के सामने स्कूल जाना बंद करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में आज भी जागरूकता की कमी के कारण माहवारी एक ऐसा मुद्दा बना हुआ है, जिस पर बात करना मुनासिब नहीं समझा जाता।

यह लड़कियों के लिए शर्म का सबब माना जाता है। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की बाल सुरक्षा के लिए काम करने वाली एजेंसी यूनिसेफ ने एक अध्ययन में बताया है कि भारत में 71 फीसदी किशोरियों को माहवारी के बारे में जानकारी नहीं है।
उन्हें पहली बार माहवारी होने पर इसका पता चलता है और ऐसा होते ही उन्हें स्कूल भेजना बंद कर दिया जाता है। माहवारी के दर्द से मैच हारने वाली चीन की टेनिस खिलाड़ी ने एक सामाजिक संस्था दसरा ने 2019 में एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें बताया गया था कि 2.3 करोड़ लड़कियां हर साल स्कूल छोड़ देती हैं क्योंकि माहवारी के दौरान स्वच्छता के लिए जरूरी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं।

इनमें सैनिटरी पैड्स की उपलब्धता और पीरियड्स के बारे में समुचित जानकारी शामिल हैं। इस क्षेत्र में काम कर रहीं संस्थाएं और कार्यकर्ता इस बात की ओर इशारा करते हैं कि शौचालयों और साफ पानी जैसी जरूरी सुविधाओं की कमी और माहवारी से जुड़ी शर्मिंदगी के कारण लड़कियों की जिंदगी प्रभावित हो रही है। बच्चों की डॉक्टर और जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ वंदना प्रसाद कहती हैं कि पहली बार माहवारी से पहले तक लड़कियों को इसके बारे में लगभग कोई जानकारी नहीं होती।
वह कहती हैं, “हमने कितनी बार लड़कियों और महिलाओं से सुना है कि जब उन्हें पहली बार माहवारी हुई तो कैसे उन्हें लगा कि उन्हें कोई गंभीर बीमारी हो गई है।

periodsfbउन्हें जो जानकारियां मिलती हैं वे भी अक्सर साथियों से मिलती हैं और वे आधी-अधूरी होती हैं। प्रसाद करीब दो दशकों से ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में महिलाओं और लड़कियों की स्वास्थ्य समस्याओं पर काम कर रही हैं। वह कहती हैं कि माहवारी जन स्वास्थ्य का एक ऐसा मुद्दा है जो कई स्तर पर समस्याएं और बाधाएं पैदा करता है। वह बताती हैं, “आज भी यह एक सामाजिक टैबू है और लड़कियों को अपनी माहवारी के दौरान कई तरह की यातनाएं सहनी पड़ती हैं, जैसे कि उन्हें कुछ खास तरह की चीजें खाने को नहीं दी जातीं।

उन्हें रसोई और मंदिर आदि में जाने की इजाजत नहीं होती और कई जगहों पर तो उन्हें एक-दो दिन के लिए घर से भी बाहर रखा जाता है। इस कारण लड़कियों को भारी मानसिक तनाव से गुजरना पड़ता है। ऊपर से गुपचुप सैनिटरी पैड्स लेना, फिर उनका निवारण, खुद को स्वच्छ रखना जैसी बातें भी किशोरियों के लिए खासी मुश्किलें पैदा करती हैं। प्रसाद कहती हैं, “कुल मिलाकर यह बेचारी लड़कियों और महिलाओं के लिए हर महीने का सिरदर्द बन जाता है।

इससे उनका अलगाव बढ़ता है और पहले से ही कमजोर स्वास्थ्य, कुपोषण, शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ापन झेल रही लड़कियां और पिछड़ जाती हैं। महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था ‘जागो री’ की निदेशक जया वेलांकर कहती हैं कि सामाजिक और व्यवहारिक वजहों से माहवारी के दौरान लड़कियों का स्कूल ना आना एक बहुत आम है। वह कहती हैं कि जैसी ही लड़की की माहवारी शुरू हो जाती है, परिवार में चिंता शुरू हो जाती है। वेलांकर कहती हैं, “खासकर ग्रामीण इलाकों बहुत सी लड़कियों के लिए माहवारी का शुरू होना मतलब पढ़ाई का बंद हो जाना।

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