नई दिल्ली । मैं 12 वीं कक्षा में पढ़ता था। हमें लालगंज बैसवारा में रहते हुए 4-5 साल हो गए थे। इसलिए अब तक सब कुछ तय सा हो गया था। पढाई के लिए बैसवारा इंटर कॉलेज, फिजिक्स ट्यूशन एल के पांडेय जी के पास, केमिस्ट्री के लिए सुरेश मिश्रा जी, मैथ डीके दीक्षित सर के पास और अंग्रेजी का ट्यूशन चाचाश्री नरेन्द्र बहादुर सिंह के पास।
इसी तरह कॉपी-किताब के लिए बाजपेयी पुस्तक भंडार और दवा-दरमत के लिए डॉ. ओपी सिंह, होम्योपैथी वाले तय थे। तय इसलिए कि इन जगहों पर हमें पैसे देने की मजबूरी न थी। हुए तो दे दिया, न हुए तो पापा का नाम बता दिया। काम हो जाता था।
हमारा पैतृक गांव बरी था। बाबा और परिवार के अन्य सदस्य अब भी वहीं रहते थे। पापा हर इतवार को गांव जाते और उन लोगों की जरूरत का सारा सामान ले जाते थे तथा वापसी में खाने-पीने का सामान, दूध-घी आदि ले आते थे। गांव में कोई बीमार हो जाता तो उसे लालगंज ही आना पड़ता था। वैसे तो मरीज को दिखाने का कार्य पापा का था लेकिन उनकी अनुपस्थिति में भैया या मुझे यह जिम्मेदारी निभानी पड़ती थी।
एक बार बाबा के बीमार पड़ने पर , उनको दिखाने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर आ पड़ी। लेकिन बाबा के डॉक्टर फिक्स थे। उनकी हर बीमारी का इलाज पंडित ननकऊ “वैद्य जी” ही करते थे। इसलिए मैं उनको वैद्य जी के पास लेकर गया। पहुँचते ही बाबा ने “वैद्य जी पांय लागी” कहकर पैंलगी की और वैद्य जी ने “मजे मां रहो लंबरदार” कहकर आशीर्वाद दिया।
हम बैठ गए और अपनी बारी का इंतजार करने लगे। करीब 15 मिनट बाद हमारा नम्बर आया। बाबा ने अपनी बीमारी तो शार्ट में बताई लेकिन गांव-घर का हाल विस्तार से बताया। वैद्य जी बाबा की नाड़ी पकड़े हुए एकौनी वाले रामलखन सिंह से लेकर अजीतपुर के बघेल साहब का हाल चाल पूछते रहे। इस बीच वह एक छोटे से कागज में अंग्रेजी दवाइयों के नाम हिंदी में लिखते रहे। फिर मुझे वही पर्चा पकड़ाया और बोले बेटा बगल वाले मेडिकल स्टोर से ले आओ।
हम दवा लेकर आए। वैद्य जी ने दवाओं को एक कटोरी में पीसा, उसमे चूरन जैसा कुछ मिलाया और फिर कागज की कई पुड़िया बना दी। इस बीच उनका बाबा से वार्तालाप चलता रहा-
“एक-एक पुड़िया तीन बार पानी के साथ खा लेना और यह शीशी वाली दवाई सुबह शाम 5-5 बूंद पी लेना।” वैद्य जी बोलते गए। तत्पश्चात, बाबा ने दो रुपये फीस दी, पैर छुए और हम बाहर आ गए।
अगले साल बीएससी की पढाई के लिए मुझे कानपुर जाना पड़ा। गर्मी की छुट्टियों में आया तो देखा बाबा घर मे बैठे हुए थे। पापा ने मुझसे कहा, “मुन्ना, अच्छा हुआ तुम आ गए। मुझे आज कई जगह शादियों में व्यवहार देने जाना है। खाना-पीना खा लो फिर बाबा को डॉक्टर के पास लिए जाना।” मैंने कहा ठीक है। यह सुनकर पापा चले गए।
इधर कुछ महीनों में ही मुझे कानपुर की हवा लग चुकी थी। मेरे लिए डॉक्टर केवल वही था जिसके पास MBBS, MD या BHMS की डिग्री हो। बाकी सब को मैं झोला छाप ही समझता था। इसलिए रास्ते भर मैं बाबा का ब्रेनवाश करता रहा। वह वैद्य जी पर अड़े हुए थे और मै डॉ. ओपी सिंह, होम्योपैथी वाले को रिकमेंड करता रहा। अन्ततः, बाबा को पोते की बात माननी ही पड़ी। मैं जीत गया। अब मेरे तर्क भारी पड़े या उनका मेरे प्रति स्नेह, यह कहना मुश्किल था।
खैर, मैं बाबा को लेकर डॉ. ओ.पी. सिंह के क्लीनिक के पास रुका। क्लीनिक के ठीक सामने, सड़क के उस पार वैद्य जी का दवाखाना था। बाबा पहली बार वैद्य जी के अलावा किसी और के पास इलाज के लिए जा रहे थे। क्या होगा अगर वैद्य जी ने गलती से देख लिया और पूछ बैठे कि, “लंबरदार वहाँ क्या कर रहे हो?” तो क्या जवाब देंगे। एक तरफ वैद्य जी से वर्षों पुराना नाता और दूसरी तरफ पोते की जिद।
बाबा चल तो मेरे साथ रहे थे लेकिन देख वैद्य जी के दवाखाने की तरफ रहे थे। शरीर इधर घुस रहा था, मन वैद्य जी के पास पहुंच चुका था। खैर किसी तरह हम बेंच पर बैठे। नंबर आया तो मैंने डॉक्टर साहब को नमस्ते किया और बताया कि बाबा को दिखाने लाए हैं। बाबा स्टूल पर बैठाए गए। वह कुछ असहज से लग रहे थे। जैसे किसी ने जबरदस्ती किसी बच्चे को पकड़ कर इंजेक्शन लेने के लिए बैठा दिया हो। वह चुपचाप बैठे थे अतः मुझे ही बोलना पड़ा,
“बाबा, डॉक्टर साहब को समस्या बताओ।”
खैर, बड़ी मुश्किल से बाबा अपनी बीमारी बुदबुदा पाए।
डॉक्टर साहब ने गले से स्टेथोस्कोप बाहर निकाला और बाबा के सीने में लगा दिया। बोले “लंबी-लंबी सांस लो।” बाबा थोड़े घबरा गए। जैसे किसी ने सीने पर पिस्तौल रखकर “हैंड्स अप” करने को बोल दिया हो। खैर किसी तरह यह कठिन समय गुजरा। अब डॉक्टर साहब ने एक मोटी किताब निकाल ली। वे बाबा से पूछते जाते और बड़े से पर्चे में कुछ लिखते जाते।
“हुक्का पीते हो?? पान भी खाते हो?? सर्दी ज्यादा लगती है या गर्मी?? मीठा अच्छा लगता है या तीखा?? पिछली बार कब बीमार पड़े थे और किसलिए??”
बाबा झुंझलाते, कुढ़ते जाते। वह कभी मुझे देखते और कभी डॉक्टर साहब को फिर अनमने से जवाब देते जाते।
“ठीक है, मैंने दवा लिख दी है। साफ जीभ पर खाना। पान, हुक्का, बीड़ी छोड़ना होगा।” डॉक्टर साहब ने हिदायत देकर बाबा को बाहर भेज दिया।
8-10 मिनट का यह चेकअप और डायग्नोसिस बाबा के लिए मानों सदियों समान बीता। बाहर आए तो चेहरा लाल था और भौंहे तनी हुई। होंठ सूख रहे थे। मैंने उठकर एक गिलास पानी बाबा को दिया। बाबा ने बमुश्किल दो घूंट पानी पिया और गुस्से में बोले-
“तुम इनको डॉक्टर कहते हो?? आला सीने में लगाए रोड की तरफ देख रहें हैं?? सब कुछ हमको ही बताना है तो ये किस चीज़ के डॉक्टर हैं??? डॉक्टर वह है जो नाड़ी पकड़े और मर्ज समझ जाए। यह नहीं कि मरीज़ से उसकी पूरी हगनी-मुतनी पूछने लगे??? हमारे वैद्य जी ने कभी न कहा कि पान-सुपारी, हुक्का सब छोड़ दो। इनके पास दोबारा मत लाना मुझे।”
बाबा पूरी भड़ास निकाल के ही माने।
चुपचाप रुआंसे होकर किसी तरह मैंने दवा ली। घर आया। रात को पैर दबाते हुए पूरी रामकहानी पापा को बताई। पापा ने धैर्य से सुना और फिर प्यार से बोले –
“बच्चा, विश्वास ही सबसे कारगर इलाज़ है। डॉक्टर और दवाएं तो निमित्त मात्र हैं।”
पापा की यह सीख मैंने गांठ बांध ली।
#पितृ पक्ष