प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम” । चारो ओर घना अंधेरा है। रात ने जंगल को घेर लिया है। वैसे भी क्या कम भयावहता थी, जो यह रात इसे और चौड़ी किए जाती है। रह-रहकर कुछ घोर ध्वनियाँ सुनाई देती हैं। और अचानक से कोई गहरी निश्शब्दता आ धमकती है। इस शब्दहीन वातावरण में अकेले होने का भय कुछ और गहरा हो जाता है। एक सामान्य सा आदमी रातमें एक घनघोर जङ्गल में अटक गया है। वह भयभीत है। प्राण पर संकट दीखता है। पहले की सुनी गयी कहानियाँ आज सच्ची मालूम होती हैं। सच में जङ्गल भयावह होते हैं। मुझे सुबह ही निकल जाना चाहिए था! रात चलूँ भी तो और भय है! इसी उधेड़बुन में वो किसी जङ्गली पेड़ के पाट पर टिक जाता है। समय का कुछ पता नहीं।
अँधेरा कुछ देखने न देता है। थकान दूर से देखती है। नींद किसी दूसरी दुनिया की बात मालूम पड़ती है। अपने जीवन के अनगिन रात यों ही बिता देने वाला वह आदमी आज क्षणक्षण को महसूसता है। तनिक सी हलचल भी उसके प्राण पर रेंगती हुई दिखाई देती है। धीरज भी धीरज नहीं दे रहा। अपने को मस्तिष्क की अनेकानेक विधियों से लुबधाता वह आदमी सहसा अधीर होने लगता है। उसके जी में आता है कि रो लूँ किन्तु सुनेगा कौन? और जो कोई सुन भी ले, तब तो और छाती पर पहाड़ चढ़े। वो भीतर ही भीतर पुकारता है। गुहारता है। शिव उसके आराध्य हैं।
शिव भयहर हैं। शिव प्रत्यक्ष हैं। शिव सर्वसर्व हैं। तपस्वी स्थिति में तपता है। फिर स्थिति कैसी भी, कोई भी होवे। शिव घोरता के अतिरेक हैं। जङ्गल तो फिर भी सुगम है। वे तो अथाह शून्यता के शिखर पर विराजते हैं। पुकार जो शिव को ही हो जाय, तब तो वे हैं ही। वह आदमी निःसहाय है। वह शिवको तब पुकारता है, जब उसके पासके सभी पुकार चुक जाते हैं। वह व्यक्ति मृत्यु से भयभीत है। वह उसी से भयभीत है जिसने किसी भी डरने वाले को नहीं छोड़ा। वह सबको लील जाती है। किन्तु शिव! शिव तो मृत्यु को पोषते हैं। उसे इतनीं सक्षमता देते हैं कि वो डराती रहे। किन्तु आयुध तो धारक के वश में रहता है। शिव तो धारक हैं। जो शिव का हो गया, वह मृत्यु का हो गया। और जो मृत्यु का ही हो गया, वह जीवन का हो गया। तब शिव आते हैं।
वहाँ शिव इसलिए नहीं आते कि उसे अमर करना है। शिव तो बस इसलिए आते हैं कि उसे भीतर यह बोध रह जाय कि इस जगत में अन्तिम बात मृत्यु ही नहीं है। शिव एक बटुक के रूप में आते हैं। आदमी उस घोर जङ्गल में अचानक से आये इस बालक को देख सहम उठता है। बालक हँसता है। कहता है कि यह तो रात है, बीत जायेगी। आदमी पूछता है कि तुम हो कौन? बालक मुस्कुराते हुए कहता है कि बस इतना जानो कि मैं एकरात का साथी हूँ। मैं तो बस एक भटके में भटकने आया हूँ। सुबह होगी तो मैं न होऊँगा। मैं तुम्हारी निश्चिन्तता हूँ। चुपचाप सो जाओ। मैं जबतक हूँ तबतक जागरण है। तुम आजकी रात तो सो ही सकते हो। कल जो जागना तब मत सो जाना। आदमी सच में सो जाता है। सुबह उठता है। बालक कहीं नहीं है। आदमी लौट जाता है। फिर वो कभी नहीं सोता। शिव तो ऐसे हैं।
इस जगत में कौन ऐसा होगा जिसे शिव ने मोहित न किया हो। इस जगत में कौन ऐसा होगा जिसके शृंगार में इतना उत्सव हो। इतनीं हरीतिमा हो। वह कौन होगा जिसपर भाँग, धतूर, दूध, दही, मधु, विभिन्न रस, गंगाजल, नैवेद्य, ताम्बुल, बिल्वपत्र, कर्पूर, चावल, चन्दन, भस्म, केसर, घी, शर्करा, फूल, फल, दुर्वा, इत्र, रङ्ग, अबीर, बुक्का, इत्यादि एकसाथ चढ़ते हों और वह सबकुछ पूरी बौराहट से स्वीकार करता हो। वह कौन है जो संसृति के बीचोबीच लिङ्गरूप में अधिष्ठापित हो। और कौन है जिसने धर्म, धर्मांगम, द्वैत, अद्वैत, तंत्र, योग, ध्यान, भक्ति, तपस्या, उपवास, मौन, गायन, नृत्य, शक्ति, सृजन, संहार, आहार, शृंगार, शब्द, व्याकरण, काम, शारीरिक स्वरोदय, सृष्टि और अस्तिव, तत्व, सत्व आदि अनेकानेक सूक्ष्म विषयों और सिद्धान्तों को सूत्रबद्ध किया है।
और कौन है जिसके सङ्ग भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनी, डाकिनी, शाकिनी, बटुक, भैरव, दैत्य, असुर, यक्ष, राक्षस, सिद्ध, बैताल, आदि सभी निष्कलुष हो घूमते हों। और कौन है जो महाश्मशान में धूनी रमाता हो? और कौन है जो अपनी इतनीं अघोरता के बाद भी मोहता हो। ऐसे रूपरङ्ग का और कौन अड़भंगी होगा जिनसे इस देश में सुन्दर साथी पाने की चाहना की जाती है। शिव तो अपने मलङ्ग में गोरख हैं। शिव पिप्पलाद में अंशरूपी होकर चिकित्सा, दर्शन और विज्ञान के प्रणेता बन जाते हैं। शिव तो ग्रहों के त्राता हैं। शिव तो मोक्ष में भी शेष होकर उसे सिद्धि देते हैं। जाने हुए शून्य में से बचे हुए शून्य। बस इसीलिए तो माया से परे। तभी तो अवधूतेश्वर। ऐसे अवधूत, ब्रह्मचारी, भिक्षुवर्य, सुनटनर्तक महादेव का ही सबकुछ है और सब उनको ही समर्पित है।
और अन्त में — महादेव सबका कल्याण करें, इसी शुभेच्छा के साथ अनंत अशेष शुभकामनाएं
प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
ईमेल : prafulsingh90@gmail.com