18 जनवरी 1941 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस गोमो स्टेशन से रेल में सवार हुए थे अपने महाप्रयाण मार्ग पर जाने के लिए
श्रीराम पुकार शर्मा, कोलकाता : सुभाष चंद्र बोस कालका मेल ट्रेन से पहले दिल्ली पहुँचे। फिर वहाँ से उन्होंने पेशावर के लिए फ़्रंटियर मेल पकड़ी। 19 जनवरी की देर शाम पेशावर के केंटोनमेंट स्टेशन पहुँचे, तो वहाँ मियाँ अकबर शाह बाहर निकलने वाले गेट के पास खड़े थे। वह एक अच्छे व्यक्तित्व वाले मुस्लिम शख़्स को गेट से बाहर निकलते देखकर ही समझ गए कि वे कोई और नहीं, बल्कि भेष बदले सुभाष चंद्र बोस ही हैं। उन्होंने उनसे एक ताँगे में बैठने के लिए कहा और ताँगे वाले को डीन होटल ले चलने का निर्देशन दिया। फिर स्वयं एक दूसरे ताँगे में बैठे सुभाष के पीछे चलने लगे।
मियाँ अकबर शाह अपनी किताब ‘नेताजीज़ ग्रेट एस्केप’ में लिखते हैं, – ‘मेरे ताँगेवाले ने मुझसे कहा कि आप इतने मज़हबी मुस्लिम शख़्स को विधर्मियों के होटल में क्यों ले जा रहे हैं। आप उनको क्यों नहीं ताजमहल होटल ले चलते जहाँ मेहमानों के नमाज़ पढ़ने के लिए जानमाज़ और वज़ू के लिए पानी भी उपलब्ध कराया जाता है? मुझे भी लगा कि बोस के लिए ताजमहल होटल ज़्यादा सुरक्षित जगह हो सकती है क्योंकि डीन होटल में पुलिस के जासूसों के होने की संभावना हो सकती है।’ आगे लिखते हैं, – ‘लिहाज़ा बीच में ही दोनों ताँगों के रास्ते बदले गए। ताजमहल होटल का मैनेजर मोहम्मद ज़ियाउद्दीन से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उनके लिए फ़ायर प्लेस वाला एक सुंदर कमरा खुलवाया। अगले दिन मैंने सुभाष चंद्र बोस को अपने एक साथी आबाद ख़ाँ के घर पर शिफ़्ट कर दिया। वहाँ पर अगले कुछ दिनों में सुभाष बोस ने ज़ियाउद्दीन का भेष त्याग कर एक बहरे पठान का वेष धारण कर लिया क्योंकि सुभाष स्थानीय पश्तो भाषा बोलना नहीं जानते थे।‘
सुभाष के पेशावर पहुँचने से पहले ही मियाँ अकबर शाह ने तय कर लिया था कि फ़ॉरवर्ड ब्लॉक के दो लोग, मोहम्मद शाह और भगतराम तलवार, बोस को भारत की सीमा पार कराएंगे। भगत राम ही रहमत ख़ाँ के रूप में वहाँ के सोवियत दूतावास से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। तब तय हुआ कि वे अपने गूँगे व बहरे रिश्तेदार ज़ियाउद्दीन को अड्डा शरीफ़ की मज़ार ले जाएँगे, जहाँ उनके फिर से बोलने और सुनने की दुआ माँगी जाएगी।
26 जनवरी, 1941 की सुबह मोहम्मद ज़ियाउद्दीन और रहमत ख़ाँ एक कार में रवाना हुए। दोपहर तक उन्होंने तब के ब्रिटिश साम्राज्य की सीमा पार कर ली। वहाँ उन्होंने कार छोड़ उत्तर पश्चिमी सीमाँत के ऊबड़-खाबड़ कबाएली इलाके में पैदल ही बढ़ना शुरू कर दिया। 27-28 जनवरी की आधी रात वो अफ़ग़ानिस्तान के एक गाँव में पहुँचे। मियाँ अकबर शाह अपनी किताब में आगे लिखते हैं, – ‘इन लोगों ने चाय के डिब्बों से भरे एक ट्रक में लिफ़्ट ली और 28 जनवरी की रात जलालाबाद पहुँच गए। अगले दिन उन्होंने जलालाबाद के पास अड्डा शरीफ़ मज़ार पर ज़ियारत की। 30 जनवरी को उन्होंने ताँगे से काबुल की तरफ़ बढ़ना शुरू किया। फिर वे एक ट्रक पर बैठ कर बुद ख़ाक के चेक पॉइंट पर पहुँचे। वहाँ से एक अन्य ताँगा कर वे 31 जनवरी, 1941 की सुबह काबुल में दाख़िल हुए।’
इस बीच सुभाष को गोमो छोड़ कर शिशिर 18 जनवरी को कलकत्ता वापस पहुँच गए। जब उनसे लोगों ने सुभाष के स्वास्थ्य के बारे में पूछा तो उन्होंने जवाब दिया कि उनके चाचा गंभीर रूप से बीमार हैं। सौगत बोस अपनी किताब ‘हिज़ मेजेस्टीज़ अपोनेंट’ में लिखते हैं, – ’27 जनवरी को एक अदालत में सुभाष के ख़िलाफ़ एक मुकदमें की सुनवाई होनी थी। पूर्व ही तय किया गया था कि उसी दिन अदालत को बताया जाएगा कि सुभाष का घर में कहीं पता नहीं है। सुभाष के दो भतीजों ने पुलिस को ख़बर दी कि वे घर से गायब हो गए हैं। ये सुनकर सुभाष की माँ प्रभाबती का रोते-रोते बुरा हाल हो गया। उनको संतुष्ट करने के लिए सुभाष के भाई शरत ने अपने बेटे शिशिर को उसी वाँडरर कार में सुभाष की तलाश के लिए कालीघाट मंदिर भेजा। 27 जनवरी को सुभाष के गायब होने की ख़बर सबसे पहले आनंद बाज़ार पत्रिका और हिंदुस्तान हेरल्ड में छपी। जहाँ से ये ख़बर पूरी दुनिया में फैल गई। ये सुनकर ब्रिटिश खुफ़िया अधिकारी न सिर्फ़ आश्चर्यचकित रह गए बल्कि शर्मिंदा भी हुए।’
जब सुभाष ने खुद जर्मन दूतावास से संपर्क करने का फ़ैसला किया। उनसे मिलने के बाद काबुल दूतावास में जर्मन मिनिस्टर हाँस पिल्गेर ने 5 फ़रवरी को जर्मन विदेश मंत्री को तार भेज कर कहा, – ‘सुभाष को मैंने उन्हें सलाह दी है कि वे भारतीय दोस्तों के बीच बाज़ार में अपने-आप को छिपाए रखें। मैंने उनकी तरफ़ से रूसी राजदूत से संपर्क किया है।’ बर्लिन और मास्को से उनके वहाँ से निकलने की सहमति आने तक बोस सीमेंस कंपनी के हेर टॉमस के ज़रिए जर्मन नेतृत्व के संपर्क में रहे। इस बीच सराय में सुभाष बोस और रहमत ख़ाँ पर ख़तरा मंडरा रहा था। एक अफ़ग़ान पुलिस वाले को उन पर शक हो गया था। उन दोनों ने पहले कुछ रुपये देकर और बाद में सुभाष की सोने की घड़ी दे कर उससे अपना पिंड छुड़ाया। ये घड़ी सुभाष को उनके पिता ने उपहार में दी थी।
कुछ दिनों बाद सीमेंस के हेर टॉमस के ज़रिए सुभाष बोस के पास संदेश आया कि अगर वे अपनी अफ़ग़ानिस्तान से निकल पाने की योजना पर अमल करना चाहते हैं तो उन्हें काबुल में इटली के राजदूत पाइत्रो क्वारोनी से मिलना चाहिए। 22 फ़रवरी, 1941 की रात को सुभाष चन्द्र बोस ने इटली के राजदूत से मुलाक़ात की। इस मुलाक़ात के 16 दिन बाद 10 मार्च, 1941 को इटालियन राजदूत की रूसी पत्नी सुभाष चंद्र बोस के लिए एक संदेश ले कर आईं, जिसमें कहा गया था कि सुभाष दूसरे कपड़ो में एक तस्वीर खिचवाएँ। सुभाष की उस तस्वीर को एक इटालियन राजनयिक ओरलांडो मज़ोटा के पासपोर्ट में लगा दिया गया और 17 मार्च की रात सुभाष को एक इटालियन राजनयिक सिनोर क्रेससिनी के घर शिफ़्ट कर दिया गया।
सुबह तड़के वे एक जर्मन इंजीनियर वेंगर और दो अन्य लोगों के साथ कार से रवाना हुए। वे अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पार करते हुए पहले समरकंद पहुँचे और फिर ट्रेन से मास्को के लिए रवाना हुए। वहाँ से सुभाष चंद्र बोस ने जर्मनी की राजधानी बर्लिन का रुख़ किया। 9 अप्रेल, 1941 को उन्होंने जर्मन सरकार को एक मेमोरंडम सौंपा, जिसमें एक्सिस पॉवर और भारत के बीच परस्पर सहयोग को संदर्भित किया गया था। इसी साल नवम्बर में स्वतंत्र भारत केंद्र और स्वतंत्र भारत रेडिओ की स्थापना की। 29 अक्टूबर, 1943 को उन्होंने अंडमान और निकोबार में आजाद हिन्द सरकार की स्थापना की। जहाँ इनका नाम ‘शहीद’ और ‘स्वराज्य’ रखा गया। 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध में जापान ने परमाणु हमले के बाद हथियार डाल दिए। इसके कुछ दिन बाद ही 18 अगस्त, 1945 को नेताजी की एक हवाई दुर्घटना में मारे जाने की खबर आई। हालाकि उनकी मृत्यु आज तक रहस्य ही बनी हुई है। (पूर्ण)
श्रीराम पुकार शर्मा
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