पहचानना बड़ा मुश्किल, डॉ. लोक सेतिया

पहचानना बड़ा मुश्किल
(इंसाफ और ज़ुल्म) डॉ. लोक सेतिया

ये बड़े लोग हैं बड़ी शान है इनकी बड़ी बड़ी बातों से जो कर के कायल अपनी मासूम खूबसूरत शक्ल दिखा हमदर्द बन करते हैं हंस के घायल। सोचा था समझेंगे गरीबों की बात कैसे खुले आसमान तले सर्द रात जान हथेली पर रख छोटे बड़े सब बदनसीबी से लड़ने आये बन बिन बुलाई बारात। देर से समझ आई उनकी हक़ीक़त शराफ़त दिखावा था सियासत की बनावट। कुछ और इरादा था कुछ और नज़र आया था तपता हुआ सूरज निकला लगता जो साया था। क्या इतने फरेबी चालबाज़ होते हैं पढ़े लिखे बड़े ओहदे वाले लिबास सफ़ेद और दिल के काले। ऐसे हैं मुंसिफ यहां जान के हैं लाले कैसे कोई ऐतबार करे इनका भगवान बचा ले। ज़ख़्म पर मरहम नहीं लगा सकते थे इतना करते नमक ज़ख़्म पर नहीं डाले।

फैसले तब सही नहीं होते (ग़ज़ल) डॉ. लोक सेतिया “तनहा”
फैसले तब सही नहीं होते
बेखता जब बरी नहीं होते।

जो नज़र आते हैं सबूत हमें
दर हकीकत वही नहीं होते।

गुज़रे जिन मंज़रों से हम अक्सर
सबके उन जैसे ही नहीं होते।

क्या किया और क्यों किया हमने
क्या गलत हम कभी नहीं होते।

हमको कोई नहीं है ग़म इसका
कह के सच हम दुखी नहीं होते।

जो न इंसाफ दे सकें हमको
पंच वो पंच ही नहीं होते।

सोचना जब कभी लिखो “तनहा”
फैसले आखिरी नहीं होते।

हम तो जियेंगे शान से (ग़ज़ल) डॉ. लोक सेतिया “तनहा”
हम तो जियेंगे शान से
गर्दन झुकाये से नहीं।

कैसे कहें सच झूठ को
हम ये गज़ब करते नहीं।

दावे तेरे थोथे हैं सब
लोग अब यकीं करते नहीं।

राहों में तेरी बेवफा
अब हम कदम धरते नहीं।

हम तो चलाते हैं कलम
शमशीर से डरते नहीं।

कहते हैं जो इक बार हम
उस बात से फिरते नहीं।

माना मुनासिब है मगर
फरियाद हम करते नहीं।

सरकार है बेकार है लाचार है (ग़ज़ल) डॉ. लोक सेतिया “तनहा”
सरकार है, बेकार है, लाचार है
सुनती नहीं जनता की हाहाकार है।

फुर्सत नहीं समझें हमारी बात को
कहने को पर उनका खुला दरबार है।

रहजन बना बैठा है रहबर आजकल
सब की दवा करता जो खुद बीमार है।

जो कुछ नहीं देते कभी हैं देश को
अपने लिए सब कुछ उन्हें दरकार है।

इंसानियत की बात करना छोड़ दो
महंगा बड़ा सत्ता से करना प्यार है।

हैवानियत को ख़त्म करना आज है
इस बात से क्या आपको इनकार है।

ईमान बेचा जा रहा कैसे यहां
देखो लगा कैसा यहां बाज़ार है।

है पास फिर भी दूर रहता है सदा
मुझको मिला ऐसा मेरा दिलदार है।

अपना नहीं था, कौन था देखा जिसे
“तनहा” यहां अब कौन किसका यार है।

कह रहे कुछ लोग उनको भले सरकार हैं (ग़ज़ल)
डॉ. लोक सेतिया “तनहा”

कह रहे कुछ लोग उनको भले सरकार हैं
तुम परखना मत कभी खोखले किरदार हैं।

छोड़कर ईमान को लोग नेता बन गये
दो टके के लोग तक बन गये सरदार हैं।

देखकर तूफ़ान को, छोड़ दी पतवार तक
डूबने के बन गये अब सभी आसार हैं।

फेर ली उसने नज़र, देखकर आता हमें
इस कदर रूठे हुए आजकल दिलदार हैं।

पास पहली बार आये हमारे मेहरबां
और फिर कहने लगे फासले दरकार हैं।

हम समझते हैं अदाएं हसीनों की सभी
आपके इनकार में भी छुपे इकरार हैं।

गैर जब अपने बने, तब यही “तनहा” कहा
ज़िंदगी तुझसे हुए आज हम दो चार हैं।

आज खारों की बात याद आई (ग़ज़ल) डॉ. लोक सेतिया “तनहा”
आज खारों की बात याद आई
जब बहारों की बात याद आई।

प्यास अपनी न बुझ सकी अभी तक
ये किनारों की बात याद आई।

आज जाने कहां वो खो गये हैं
जिन नज़ारों की बात याद आई।

साथ मिल के दुआ थे मांगते हम
उन मज़ारों की बात याद आई।

कुछ नहीं दर्द के सिवा मुहब्बत
ग़म के मारों की बात याद आई।

जब गुज़ारी थी जाग कर के रातें
चांद-तारों की बात याद आई।

दूर रह कर भी पास-पास होंगे
हमको यारों की बात याद आई।

आज देखा वतन का हाल “तनहा”
उनके नारों की बात याद आई।

डॉ. लोक सेतिया, विचारक

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